स्वाध्याय सन्दोह

July 1961

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“इच्छाओं के त्याग का अर्थ संसार को त्याग देना नहीं है। जीवन का ऐसा किसी प्रकार का निषेध मनुष्य को मनुष्यत्वशून्य बनाता है। ईश्वरत्व, मनुष्यत्व से रहित नहीं है। आध्यात्मिक का परमावश्यक कर्तव्य मनुष्य को अधिक मनुष्यत्व युक्त बनाना है। मनुष्य में जो सौंदर्य है, महानता तथा सात्विकता है, उन्हें मुक्त तथा व्यक्त करने का नाम आध्यात्मिक है। वाह्य-जगत में जो कुछ भी भव्य तथा सुन्दर है, उसे भी वह विकसित रहती है। साँसारिक कार्यों में बाह्य त्याग तथा कर्तव्य और उत्तरदायित्व की उपेक्षा को वह आवश्यक नहीं मानती। वह केवल यही कहती है कि व्यक्ति के जो कार्य और उत्तरदायित्व है, उनका सम्पादन करते समय, उसकी आत्मा इच्छाओं के बोझ से मुक्त रहे। द्वैत के बन्धनों से मुक्त रहना ही पूर्णता है। बन्धनों के भय से जीवन से दूर भागने से यह मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती। बन्धनों से बचने के प्रयत्न का अर्थ है जीवन से भयभीत होना। किंतु आध्यात्मिकता का अर्थ है ‘परस्पर विरोधों के वशीभूत हुए बिना जीवन का ठीक और पूर्ण ढंग से सामना करना।”

-मेहरबाबा

“इतिहास से जाना जाता है कि पृथ्वी से बहुतेरी प्राचीन जातियाँ लुप्त हो गई। ये प्राचीन सभ्यताएँ बहुत उन्नत थी ऐसे प्रमाण भी मिलते है। पर आज उन सभ्यताओं चिह्न भी शेष नहीं है। किंतु भारत की सभ्यता का निकास भारत में और विकास भी भारत में हुआ है और भारतवासी सदा उसी के आदर्श पर जीवन बिताते आये है। काल चक्र के कारण, घटना प्रभाव से भारत का धर्म और समाज नाना शाखाओं में विभक्त तो हो गया है, पर वे सब सनातन आर्यधर्म के भिन्न-भिन्न फल ही है। शंकर, रामानुज, चैतन्य आदि कितने ही मनीषियों ने इस भारत भूमि में धर्मप्रचार किया- सम्प्रदाय गठन किया, किन्तु सब ने ही वेद के तत्त्व की भिन्न-भिन्न भाव से व्याख्या मात्र की। अनन्त शाखा प्रशाखाओं में परिणित होकर भी आर्य धर्म सार्वजनिक और सर्ववाद सम्मत हुआ। पृथ्वी के प्रचारित सब धर्मों की नीति नाना भाव से सनातन आर्य धर्म की अंगीभूत बन गईं”

-नीलकंठदास

“स्पष्ट है कि जो भी धर्म अथवा दर्शन आधुनिक विज्ञान के प्रतिकूल होगा वह पाखण्ड और दम्भ बनकर रह जाएगा। यदि हम मानव प्रगति को दृढ़ आधार पर सुरक्षित रखना चाहते है तो विज्ञान और धर्म तथा राजनीति और धर्म के बीच पाई जाने वाली समस्त विसंगति का अन्त किया जाना चाहिये। जिससे समन्वित विचार और भावनाओं की प्रतिष्ठा हो सके। भारत में एक धर्म मूलक दर्शन प्रस्तुत है जो स्वयं सभ्यता के समान पुरातन है। वह विज्ञान के असाधारण अनुकूल है, यद्यपि विदेशियों को यह दावा विलक्षण प्रतीत हो सकता है। उस धर्म मूलक दर्शन से एक नीतिशास्त्र विकसित हुआ है, जो अधिक न्यायपूर्ण सामाजिक तथा आर्थिक संगठन का दृढ़ आध्यात्मिक आधार बनने योग्य है। यह एक असाधारण बात है कि विकास के सिद्धान्त का और नियम के शासन का- जिस रूप में उसे वैज्ञानिक जानते है- निरूपण हिन्दू धर्म में पहले ही कर दिया गया है। वेदान्त का परमात्मा मनुष्य की कल्पना द्वारा उत्पन्न और मानव-रूप-आरोपित परमात्मा नहीं है। गीता में ईश्वर के प्रभुत्व की व्याख्या ऐसी भाषा में की गई है, जिसमें आधुनिक विज्ञान द्वारा धार्मिक विश्वोत्पत्ति शास्त्र के विरुद्ध उठाई गई आपत्तियों का अनुमान और समाधान निहित है।”

-राजगोपालचार्य


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