आत्मशक्ति का अक्षय भण्डार

July 1961

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(डा. रामचरण महेन्द्र एच ए, पी.एच.डी.)

जब आप किसी सुन्दर मधुसिक्त डाली पर विहँसते किलकते सुवासित पुष्प को देखते हैं तो मन ही मन आपके हृदय में यह इच्छा उठती है कि “क्या ही अच्छा होता, यदि हम भी ऐसे ही सरल सुन्दर और आकर्षक रहे होते! हममें भी ऐसा ही रंग होता ऐसी ही गुणों की सुवास होती, हम भी ऐसे ही सरल और होते। हम भी ऐसा ही निश्चिन्त आडम्बर रहित जीवन व्यतीत करते।”

जब आप मयूर के पंखों की चटकीली रंगीनी देखते हैं, या उस नृत्य में आत्म-विभोर देखते हैं, तो आपकी अनायास ही यह इच्छा होती है कि “काश, हम भी ऐसा ही विमोहक नित्य कर पाते, मस्ती से दूसरों को आकर्षित कर पाते। हमारे पाँवों की थिरकन हमारे हृदय की भावनाओं की गहरी और सच्ची अभिव्यंजना कर पाती। हमारे मुख से निकले हुये गीतों में से हमारा हर्ष विषाद, घृणा-प्रेम आशा-निराशा इत्यादि गुम्फित हो जाता।”

जब हम किसी भक्त कवि या कवियित्री की रसस्निग्ध वाणी पढ़ती हैं, या भजन सुनते हैं, तो अनायास ही हमारी इच्छा होती है कि “हम भी हृदय स्पर्शी भजन लिखते, और मधुर गीत गाते। अपने भीतर उठने वाले द्वन्द्वों को भक्ति-पूर्ण वाणी में प्रकट करते। भक्ति तथा काव्य के सम्मिश्रण से हमें विशुद्ध आनन्द प्राप्त होता और आत्म श्रद्धा के योग से हमारा जीवन मंगलमय और शान्तिमय होता। लोगों को हमारी वाणी में साँस्कृतिक चेतना का स्फुरण मिलता।”

जब आप प्रहलाद, ध्रुव आदि की धर्मवृत्ति, मूर्तियों के सत् धर्म, दधीचि का देवत्व की रक्षा के लिये बलिदान देश के गुलामी से मुक्त करने वाले शहीदों की ओजस्वी कहानियाँ, वीर हककतराय की दृढ़ता और साहस, गुरु गोविन्दसिंह के पुत्रों की निर्भयता और वीरता की प्रेरक घटनाएँ सुनते हैं, तो मन ही मन हमारे अन्दर यह इच्छा जागृत होती है कि “काश, ये सब उत्तम गुण, ये चारित्रिक विशेषताएँ, यह उच्च भावनाएँ हम भी अपने जीवन में प्रकट कर पाते। स्वतन्त्रता की वेदी पर हम भी अपने प्राण न्यौछावर कर देते।”

जहाँ कही किसी व्यक्ति में हम उत्तम गुण, उच्च चरित्र, स्वास्थ्य, सौंदर्य या कोई प्रशस्त कला देखते हैं, हमारे अन्दर कहीं से चुपचाप एक उच्च भाव पैदा होता है कि “काश, हम भी यही उच्च दैवी भाव या भव्य शक्तियाँ प्रदर्शित कर पाते।”

प्रत्येक अच्छाई हममें एक जागृति पैदा करती हैं। हमारी सोयी हुई आत्म-शक्ति को जगाती हैं तथा हमें श्रेष्ठता की ओर बढ़ने का गुप्त संकेत करती हैं। श्रेष्ठता और अच्छाई की ओर हमारा उत्साह और रुचि पैदा करने वाली हमारी गुप्त आत्मशक्ति ही है। दूसरों के अच्छे और सद्गुणों के प्रति हमारे हृदय में ललक और अनुकरण की इच्छा इस गुप्त आत्मशक्ति के भण्डार के ही कारण होती है। दूसरी भर एक ओर विचारधारा है।

आप जब किसी पागल को प्रलाप करते हुये चिथड़े लपेटे भद्दे रूप में अटपटे वाक्य बोलते सुनते हैं, तो आपकी यह इच्छा कभी नहीं होती कि हम भी इस व्यक्ति की तरह मूड, उन्मत्त या असंतुलित बन जाय। जब आप किसी चोर, डाकू या हत्यारे को सजा पाते या समाज में बहिष्कृत होते देखते है। तो हमारी यह इच्छा कदापि नहीं होती कि हम भी चोर, डाकू या हत्यारे बन जाये। जब हम किसी कोढ़ी, अपाहिज, रोगी, दुर्बल, दीन, दरिद्र बहिष्कृत, सजावार को देखते हैं, तो हमारा कभी यह नहीं कहता कि हमें भी ऐसे ही बन जाये। कुरूप को देखकर हम स्वयं बदसूरत होने की कामना नहीं करते। रोगी को देखकर हम स्वयं कभी रोगी होने की इच्छा नहीं करते।

हम प्रजा पीड़क कंस जैसे नहीं बनना चाहते। सीता जी का हरण करने और अत्याचार की और प्रवृत्त रावण के प्रति हमारी कोई सहानुभूति नहीं होती। भाइयों को सताने और असंख्य व्यक्तियों का संहार कराने वाले दुष्ट दुर्योधन के प्रति हमारा ममत्व नहीं जागता। हम दुष्टों, दुश्चरित्रों, प्रजा-पीड़ा के अत्याचारियों, पर संहाराके, शोषकों, शराबियों, जुआरियों या व्यभिचारियों का घृणा करते हैं। हम इनमें से कुछ भी नहीं बनना चाहते। इधर हमारी रुचि नहीं होती। ये तमाम दुष्प्रवृत्तियाँ हमारी आत्मा के विपरीत पड़ती है। हमारी नैसर्गिक प्रवृत्ति कभी इनकी ओर नहीं होती।

हम केवल सत् मार्ग और प्रवृत्तियाँ, ऊँची कलाओं और देवत्व के दिव्य गुणों की ही ओर अग्रसर होते है। प्रत्येक दिव्य गुण का अमृत-कुण्ड हमारी आत्मा है। वह ऐसा दिव्य केन्द्र है, जिसमें से हमारी उच्च प्रवृत्तियाँ अग्नि से चिनगारियों की भाँति फैला करती है। जहाँ पृथ्वी में जल छिपा हुआ होता है, वहाँ हरे भरे वृक्ष लहलहाते दृष्टिगोचर होते है। इसी प्रकार जहाँ मनुष्य का आत्मा-तत्त्व जागरूक होता है, वहाँ हमारी प्रवृत्ति आत्मा के दिव्य गुणों की ही ओर होती है। वह देवत्व की ओर अग्रसर होती है। अच्छाई से प्रेम करता है। संसार और समाज की सब श्रेष्ठताओं के रूप में हमारा आत्म-तत्त्व ही बह रहा है। श्रेष्ठता और सौंदर्य का मूल केन्द्र हमारी सत् चित्त आनन्द स्वरूप वह आत्मा ही है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118