कठिन समस्याओं के सरल समाधान

July 1961

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

आस्तिकता का स्वरूप

आस्तिकता का अर्थ है विश्वास। अविश्वासी ही मस्तिष्क कहा जा सकता है। संसार चक्र को नियमबद्ध नियंत्रण में रखकर चलाने वाली परम सत्ता पर विश्वास करना आस्तिकता का चिह्न है। कर्म फल सुनिश्चित है, जो किया है वह भोगना पड़ेगा यह मानना आस्तिकता का ही स्वरूप है। सब प्राणियों का अंततः कल्याण ही होगा, सब एक दिन विकास की मंजिल पूरी करते हुए परम मंगल को प्राप्त करेंगे यह मान्यता भी आस्तिकता के अनुरूप हैं।

यह विश्व परमात्मा से ही ओत-प्रोत है। यह उसी का एक प्रत्यक्ष रूप है। जो कुछ हमें दिखाई पड़ता है वह उसी प्रभु के एक अंश का दर्शन है। उसकी न तो उपेक्षा की जानी चाहिए और न घृणा। यह घृणा या उपेक्षा वस्तुतः परमात्मा के एक अंश के प्रति व्यक्त की हुई मानी जाएगी।

मनुष्य जाति के गौरव

संसार में ऐसे मनुष्यों की बड़ी आवश्यकता है जो ईमानदारी हो। जो भय या लोभ के कारण अपनी अन्तरात्मा को बेचते न हों। जो मचाई पर कायम रहने के लिए अपने प्राणों तक को भी उत्सर्ग कर सकें। जिन्होंने बनावट से घृणा करना और सचाई से प्यार करना सीखा है वस्तुतः वे ही ज्ञानी है।

कुतुबनुमा (दिशा सूचक यंत्र) की सुई जिस तरह सदा उत्तर दिशा में ही रहती है उसी तरह जिनकी अन्तरात्मा सदा सत्य की ओर उन्मुख रहती है वे ही मनुष्य जाति के गौरव है। ऐसे ही लोगों से मानवता धन्य होती है और उन्हीं से संसार की सुख शान्ति बढ़ती है। महान् व्यक्तियों की विशेषता यही होती है कि वे अपने चरित्र से विचलित नहीं होते। प्रलोभनों और आपत्तियों के बीच भी वे चट्टान की तरह अविचल बन रहते है।

प्रेम और ब्रह्म

प्रेम ब्रह्म रस की ही अनुभूति है। वह एक आत्मा दूसरे के प्रति करती है और मिलन से उत्पन्न होने वाला दिव्य आनन्द की अनुभूति होती है। किन्तु जब यह प्रेम शरीर से सम्बन्धित हो जाता है तो काम या मोह बन जाता हैं मोह तुच्छ है उसमें सुख क्षणिक और दुःख बहुत है।

ब्रह्म एक से अनेक हुआ। इसलिए कि अनेक से एक होने में जो आनन्द है उसका अनुभव करें। एक से उद्भूत हुए अनेक जीव, पुनः अनेक से एक होने के लिए प्रयत्नशील हैं। इस प्रयत्न में उन्हें जो आनन्द आता है उसे प्रेम कहते हैं। उस एक से मिलने के प्रयत्न में अनेक जीव आपस में भी मिलाते रहते है। जीव के ब्रह्म से पूर्ण मिलन को परमानन्द कहते है, उसी का आँशिक रूप आँशिक मिलन में अनुभव होता हे। एक आत्मा जब सच्चे हृदय से दूसरी आत्मा को प्यार करती है, मिलने को अग्रसर होती है तो उसे परमानन्द की एक झलक देखने का-प्रेम रख के आस्वादन का आनन्द मिलता है। इस संसार में यही सबसे बड़ा आनन्द है।

ब्रह्म एक से अनेक हुआ। इसलिए कि अनेक से एक होने में जो आनन्द है उसका अनुभव करें। एक से उद्भूत हुए अनेक जीव, पुनः अनेक से एक होने के लिए प्रयत्नशील हैं। इस प्रयत्न में उन्हें जो आनन्द आता है उसे प्रेम कहते हैं। उस एक से मिलने के प्रयत्न में अनेक जीव आपस में भी मिलाते रहते है। जीव के ब्रह्म से पूर्ण मिलन को परमानन्द कहते हैं, उसी का आँशिक रूप आँशिक मिलन में अनुभव होता हे। एक आत्मा जब सच्चे हृदय से दूसरी आत्मा को प्यार करती है, मिलने को अग्रसर होती है तो उसे परमानन्द की एक झलक देखने का-प्रेम रख के आस्वादन का आनन्द मिलता है। इस संसार में यही सबसे बड़ा आनन्द है।

नियत मार्ग की मर्यादा

आकाश में ग्रह और नक्षत्र तूफानी चाल से अपनपी राह चलते हैं। एक सेकेण्ड में हजारों मील की यात्रा पार करते हैं पर चलते अपने नियत मार्ग पर ही हैं। यदि कोई तारा जरा सा भी भटक जाय तो वह दूसरे तारों से टकराकर सृष्टि में भारी उथल पुथल पैदा कर सकता है। हर एक तारा अपने निर्धारित मार्ग पर पूर्ण नियम बद्ध होकर चलता है तभी यह दुनियाँ अपनी जगह पर ठहरी हुई है। यदि मर्यादाओं का पालन छोड़ दिया जाय तो समाज की सारी शृंखला बिखर जाएगी और साथ ही मनुष्य जाति सुख शान्ति से भी वंचित हो जाएगी।

यदि मनुष्य अपनी बुद्धि की थोड़ी अधिक खींच तान करे तो वह बुरी और गलत से गलत बातों को उचित ठहराने के लिए तर्क और प्रमाण ढूँढ़ सकता है। विश्वासों और भावनाओं को पुष्टि करना बुद्धि का काम है। मस्तिष्क को हृदय का वकील कहा जा सकता है। भीतर से जो आकांक्षा और अभिरुचि उठती है उसी को पुष्ट करने और मार्ग ढूँढ़ने में मस्तिष्क लगे जाता है। चोर के लिए वह चोरी की कला में प्रवीणता प्राप्त करने और उसके लिए अवसर ढूँढ़ देने का काम करता है और साधु के लिए पुण्य परमार्थ के अवसर तथा साधन जुटाने में सफल प्रयत्न करता है।

इसलिए बुद्धि के चमत्कार से प्रभावित होने की जरूरत नहीं है और न बुद्धि को बहुत मान देने की आवश्यकता है। वह तो एक वेश्या के समान है जो प्रलोभन की ओर फिसलती रहती है। प्रभावित होने योग्य तो केवल एक ही वस्तु हैं, उदारता मिश्रित सचाई। भले ही कोई मूर्ख गिना जाय पर जिसमें उदारता और सच्चाई है वह हजार बुद्धिमानों से अच्छा है।

बालू के कण

सीपी के पेट में बालू का एक कण घुस जाता है। उस कण के ऊपर सीपी के शरीर का रस लिपटता जाता है और वह बढ़ते-बढ़ते एक चमकते हुये कीमती मोती के रूप में प्रस्तुत हो जाता है। यो बालू के एक कण की कुछ कीमत नहीं, पर सीपी जब उसे अपने उदर में धारण कर अपने जीवन रस से सींचने लगती हैं तो वह तुच्छ रज कण एक मूल्यवान पदार्थ बनता है। उच्च नैतिक आदर्श भी ऐसे ही बालू के कण हैं जो यदि मनुष्य के हृदय में गहराई तक प्रवेश कर जाये तो एक तुच्छ व्यक्ति को महापुरुष, ऋषि और देवता के रुपये प्रस्तुत कर सकते है।

छोटा और तुच्छ काम

काम वे छोटे गिने जाते है जो फूहड़पन और बेसलीके से किये जाते हैं। यदि सावधानी, सतर्कता और खूबसूरती के साथ, व्यवस्था पूर्वक कोई काम किया जाय तो वही अच्छा, बढ़ा और प्रशंसनीय बन जाता है। चरखा कातना कुछ समय पूर्व विधवाओं और बुढ़ियाओं का काम समझा जाता था, उसे करने में सधवायें और युवतियाँ सकुचाती थी। पर गाँधी जी ने जब चरखा कातना एक आदर्शवाद के रूप में उपस्थित किया और वे उसे स्वयं कातने लगे तो वही छोटा समझा जाने वाला काम प्रतिष्ठित बन गया। चरखा कातने वाले स्त्री पुरुषों को देश भक्त और आदर्शवादी माना जाने लगा।

संसार में कोई काम छोटा नहीं। हर काम का अपना महत्व है। पर उसे ही जब लापरवाही और फूहड़पन के साथ किया जाता है तो छोटा माना जाता है और उसके करने वाला भी छोटा गिना जाता है।

गृहस्थ जीवन की सफलता

गृहस्थ जीवन की सफलता के लिये, अनेक कठिनाइयाँ होते हुये भी दाम्पत्य जीवन को सुखमय बनाये रहने के लिये इस बात की आवश्यकता है कि पति-पत्नि में प्रगाढ़ प्रेम और अटूट विश्वास हो। इसी प्रकार जिस कार्य में मनुष्य सफलता प्राप्त करना चाहता है उसमें पूरा प्रेम होना और उस कार्य के गौरव को समझना आवश्यक है। जो कार्यक्रम अपनाया गया है उसे हलका, ओछा, तुच्छ व्यर्थ और साधारण नहीं वरन् विश्व का एक अत्यन्त आवश्यक और उपयोगी कार्य मानना चाहिये। उसे करते हुये गर्व और गौरव अनुभव किया जाना चाहिये दाम्पत्य प्रेम की तरह हमें अपने कार्यक्रम में भी पूरी निष्ठा, ममता अभिरुचि और श्रेष्ठता भी रखनी चाहिये। यह भावनायें जितनी ही गहरी होगी, कार्यक्रम की सफलता में उतनी ही आशा बढ़ती जायेगी।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118