भ्रम का विस्तार

July 1961

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(श्री. नरेन्द्र शर्मा)

बस्ती खंडहर हुई बन गई नगरी जंगल - गैल!

गठरी बनी कही पर ठठरी, कहीं अस्थि के फूल!

गिरने को उठती दीवारें शिखर पताका केतु!

है उपयोगी अनन प्राण मन ज्ञान और विज्ञान,

भ्रम के बिना करे श्रम कोई क्यों, जब सब कुछ व्यर्थ?

पूर्ण काम वह, जो निष्काम कर्म करता अनिवार,

आओ, हम अनेक जन मिल कर करे एक का ध्यान!

स्रष्टा एक अनेक बना है, केन्द्र बना है वृत्त,

पूर्ण अंश से परे नहीं है परे पूर्ण से अंश!

*समाप्त*


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