जीव ईश्वर का ही अंश है
जीव ईश्वर का अंश है तो ईश्वर के समान शक्ति उसमें क्यों नहीं हैं? यह प्रश्न एक शिष्य ने गुरु से पूछा। गुरु ने विस्तार पूर्वक उत्तर दिया पर शिष्य की समझ में न आया शंका बनी ही रही।
एक दिन गुरु और शिष्य गंगा स्नान के लिये गये। शिष्य से कहा-एक लोटा गंगा जल भर लो। उसने भर लिया। घर आकर गुरु ने कहा-बेटा इस गंगा जल में नाव चलाओ। शिष्य ने कहा-नाव तो गंगाजी के बहुत जल में चलती हैं, इतने थोड़े जल में कैसे चल सकती हैं? गुरु ने कहा-यही बात जीव और ईश्वर के संबंध में है। जीव अल्प है। इसलिये उसमें शक्ति भी थोड़ी है। ईश्वर विभु है उसमें अनन्त शक्ति है। इसलिये दोनों की शक्ति और कार्य क्षमता न्यूनाधिक है। वैसे लोटे का जल भी गंगाजल ही था, इसी प्रकार जीव अल्प होते हुये भी ईश्वर का अंश ही है।
जीव अपने को जब ईश्वर का सान्निध्य प्राप्त कर उसी में निमग्न हो जाता है तो उसमें भी ईश्वर जैसी शक्ति आ जाती है।
अविचल धैर्य की महिमा
एक बार एक तपस्वी जंगल में तप कर रहा था। नारद जी उधर से निकले तो उसने साष्टांग प्रणाम किया और पूछा-मुनिवर कहाँ जा रहे हैं? नारदजी ने कहा-विष्णुलोक को भगवान के दर्शन करने जा रहे हैं। तपस्वी ने कहा-एक प्रश्न मेरा भी पूछते आइए कि-मुझे उनके दर्शन कब तक होंगे?
नारद जी विष्णुलोक पहुँचे तो उनने उस तपस्वी का भी प्रश्न पूछा-भगवान ने कहा-84 लाख योनियों में अभी 18 बार उसे और चक्कर लगाने पड़ेंगे तब कही मेरे दर्शन होंगे। वापिस लौटने पर नारदजी ने यही उत्तर उस तपस्वी को सुना दिया।
तपस्वी अधीर नहीं हुआ। समय की उसे जल्दी न थी। इतना आश्वासन उसे पर्याप्त लगा कि भगवान के दर्शन देर सबेर में उसे होंगे अवश्य! इससे उसे बड़ी प्रसन्नता हुईं और दूने उत्साह के साथ अपनी तपस्या में लग गया। उसकी इस अविचल निष्ठा और धैर्य को देखकर भगवान बड़े प्रसन्न हुये और उनने तुरन्त ही उस तपस्वी को दर्शन दे दिये।
कुछ दिन बाद नारद जी उधर से फिर निकले तो भक्त ने कहा-मुझे तो आपके जाने के दूसरे दिन ही दर्शन हो गये थे। इस पर नारद जी बहुत दुखी हुये और विष्णु भगवान के पास जाकर शिकायत की कि आपने मुझसे कहा इनको लंबी अवधि में दर्शन होंगे और आपने तुरन्त ही दर्शन देकर मुझे झूठा बनाया।
भगवान ने कहा-नारद जिसकी निष्ठा अविचल है जिसमें असीम धैर्य है उसके तो मैं सदा ही समीप हूँ। देर तो उन्हें लगती है तो सघन पल में उतावली करते है। उस भक्त के प्रश्न में उतावली का आभास देखकर मैंने लंबी अवधि बताई थी पर जब देखा कि वह तो बहुत ही धैर्य वान है तो उतना विलंब लगाने की आवश्यकता न समझ और तुरन्त दर्शन दे दिये।
ईश्वर प्राप्ति की मनोदशा
एक जिज्ञासु ने किसी महात्मा से पूछा-ईश्वर किन को मिल सकता है? महात्मा ने कुछ उत्तर न दिया। कई दिन वही प्रश्न पूछने पर एक दिन महात्मा उसे नदी में स्नान कराने ले गये और उस जिज्ञासु को साथ लेकर गले तक पानी में घुस गये। यहाँ पहुँचकर उनने उस व्यक्ति की गरदन पकड़ ली और जोर से पानी में दबोच दिया। कई मिनट बाद उसे छोड़ा तो वह साँस घुटने से बुरी तरह हाँफ रहा था।
महात्मा ने पूछा जब तुम्हें पानी में डुबाया गया तो उस समय तुम्हारी मनोदशा क्या थी? उसमें उत्तर दिया में केवल यह सोचता था कि किसी प्रकार मेरे प्राण बचें और बाहर निकले, इसके अतिरिक्त और कोई विचार मेरे मन में नहीं उठ रहा था। महात्मा ने कहा-जैसी तुम्हारी मनोदशा पानी में डूबे रहते थी, वैसी ही व्याकुलता और एक मात्र इच्छा यदि परमात्मा के प्राप्त करने के लिये किसी की हो जाय तो उसे अविलम्ब परमात्मा मिल सकता है।
परमात्मा को प्राप्त करने के लिये जिसमें तीव्र लगन और सच्ची आकांक्षा है उसको प्रभु की प्राप्ति में बहुत विलम्ब नहीं लगता।
साधुता की कसौटी
एकबार एक धनी व्यक्ति ने एक ऊँची बली पर रत्न जटित कीमती कमण्डल टाँग दिया और घोषणा की कि जो कोई साधु इस बल्ली पर सीधा चढ़कर कमण्डल उतार लेगा उसे यह कीमती पात्र ही नहीं बहुत दक्षिणा भी दूँगा। बहुत से त्यागी और विद्वान् साधुओं ने भी प्रयत्न किया पर किसी को सफलता न मिली। अन्त में कश्यप नामक नट विद्या में बहुत सा जीवन बिताकर साधु बने एक बौद्ध भिक्षु ने उस बल्ली पर चढ़कर कमण्डलु उतार लिया। उसकी बहुत प्रशंसा हुई और धन भी मिला।
जब यह समाचार भगवान बुद्ध के पास पहुँचा तो वे बहुत दुःखी हुये। उनने सब शिष्यों को बुलाकर कहा-भविष्य तुम में से कोई भिक्षु इस प्रकार का चमत्कार न दिखाये और न उन लोगों से भिक्षा ग्रहण करे जो साधु का आचार नहीं चमत्कार देखकर उसे बड़ा मानते हों।
चमत्कार नहीं चरित्र और ज्ञान ही साधुता की कसौटी है।
भक्ति में भावना की प्रधानता
चैतन्य महाप्रभु जब जगन्नाथ पुरी से दक्षिण की यात्रा पर जा रहे थे तो उन्होंने एक सरोवर के किनारे कोई ब्राह्मण गीता पाठ करता हुआ देखा वह संस्कृत नहीं जानता था और श्लोक अशुद्ध बोलता था। चैतन्य महाप्रभु वहाँ ठहर गये कि उसकी अशुद्धि के लिये टोके। पर देखा कि भक्ति में विह्वल होने से उसकी आँखों से अश्रु बह रहे हैं।
चैतन्य महाप्रभु ने आश्चर्य से पूछा-आप संस्कृत तो जानते नहीं, फिर श्लोकों का अर्थ क्या समझ में आता होगा और बिना अर्थ जाने आप इतने भाव विभोर कैसे हो पाते है। उस व्यक्ति ने उत्तर दिया आपको यह कथन सर्वथा सत्य है।
कि मैं न तो संस्कृत जानता हूँ और न श्लोकों का अर्थ समझता हूँ। फिर भी जब मैं पाठ करता हूँ तो लगता है मानों कुरुक्षेत्र में खड़े हुये भगवान अमृतमय वाणी बोल रहे हैं और मैं उस वाणी को दुहरा रहा है। इस भावना से मेरा आत्म आनन्द विभोर हो जाता है।
चैतन्य महाप्रभु उस भक्त के चरणों पर गिर पड़े और उनने कहा तुम हजार विद्वानों से बढ़कर हो, तुम्हारा गीता पाठ धन्य है।
भक्ति में भावना ही प्रधान हैं, कर्मकाण्ड तो उसका कलेवर मात्र हैं। जिसकी भावना श्रेष्ठ है उसका कर्मकाण्ड अशुद्ध होने पर भी वह ईश्वर को प्राप्त कर सकता है। केवल भावना हीन व्यक्ति शुद्ध कर्मकाण्ड होने पर भी कोई बड़ी सफलता प्राप्त नहीं कर सकता।