कला का उद्देश्य-सृष्टा के अनन्त सौंदर्य की अनुभूति

July 1961

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(श्री जाह्नवीचरण वानप्रस्थी)

पदार्थ अपने बाह्य स्वरूप में बहुत ही तुच्छ होता है, मोटी दृष्टि से देखने में वह एक छोटा-बड़ा उपयोगी निरुपयोगी तथा अपनी विशेषताओं युक्त एक साधारण सा कलेवर मात्र प्रतीत होता है। कला का उद्देश्य इस कलेवर के अन्तराल में छिपे हुए सौंदर्य को प्रकट करना है। समस्त कलाएँ इसी उद्देश्य की पूर्ति में लगी हुई हैं। मनुष्य प्रकृति के जिस गुह्य सौंदर्य का अपनी मोटी दृष्टि से नहीं देख पाता उसके लिए यह संभव करती है कि गुहा को देख और समझ सके। कला की खरीद पर खरीदा गई हर वस्तु चमकती है, अपना अन्तः सौंदर्य सब के सामने प्रकट कर सकने में समर्थ होती है। इसीलिए कला का इतना मान और महत्व है। कला रहित को पुच्छविषाण हीन पशु इसीलिए कहा गया है कि उसे पदार्थों में अन्तर्हित दिव्य सत्ता का मान न हो सका केवल उसने वस्तुओं का बाहरी रूप ही देखा, जैसा कि मन्द बुद्धि के पशु देखते हैं।

संसार में अनेक कलाएँ और उनकी सहायता से प्रकृति के गर्भ में पग-पग पर दिये हुए सौंदर्य का उद्घाटन होता है। उसकी अनुभूति से मनुष्य की आत्मा आनन्द विभोर हो उठती है, उसका उल्लास थिरकने लगता है। इसे काले कुरूप, दुःख दैन्य में भरे भवसागर कहे जाने वाले संसार के कण-कण को सुरम्य पुष्पोद्यान की तरह मनोरम अनुभव कराने की शक्ति कला में ही है इसलिए कला का उपासक ही इस संसार के मनोरम सौंदर्य का रसास्वादन कर पाता है। कला विहीन के लिए यहाँ जो कुछ भी है वह कहा कचरा, बन्धन और विद्रूप ही है।

अध्यात्म। आध्यात्मिक अनुभूतियों के जागरण से प्रकृति के सौंदर्य को, पदार्थों में छिपे लालित्य को समझ सकना संभव होता है। किसी चित्र की सुन्दरता को देखकर प्रसन्नता प्राप्त कर सकना तभी संभव है जब आँखों में ज्योति हो। यदि ज्योति ही नहीं तो अन्धी आँखें उस सुन्दर चित्र में से क्या प्राप्त करेंगी? कलाकारों के मधुर कंठ और सुन्दर वाद्य का रस तभी मिलेगा जब कान के पर्दे ठीक काम करते है। बहरा व्यक्ति न उस गान का रस प्राप्त कर सकेगा और न वाद्य का। इसी प्रकार अध्यात्म के आधार पर विकसित हुआ अन्तःकरण की इस संसार के विभिन्न पदार्थों में सौंदर्य देख सकता है, वही विभिन्न प्राणियों और पौधों में अपने समान आत्मा देखकर उन्हें कुटुम्बी की दृष्टि से देखता हुआ प्रसन्न हो सकता है और वही मनुष्य के अन्दर भरी हुई महानता को अनुभव करके उसे ईश्वर का निकटतम प्रतिनिधि मानकर श्रद्धा से उसके आगे अपना मस्तक झुका सकता है।

बेशक मनुष्य स्वार्थी है, दुष्ट है, अनेक दुर्गुणों और कुसंस्कारों से भरा है, इतने पर भी ईश्वर की दिव्य सत्ता उसके अन्दर जगमगाती है और कितना ही गया बीता होने पर भी इतने अधिक सद्गुण और दिव्य तत्त्व उसके अन्दर शेष रहते हैं कि उनके आगे उन दुर्गुणों की तुलना उतनी ही है जितनी सिर के सुन्दर केशों में जुएँ की। गुलाब के खिले हुए सुगन्धित पुष्प में काँटे भी होते हैं पर उन काँटों के रहते हुए भी गुलाब प्रशंसनीय ही माना जाता है। मनुष्य में चाहे कितने ही दोष दुर्गुण क्यों ने हों वे सब मिलकर भी उसकी शाश्वत श्रेष्ठता से बढ़कर कर सकते। पर इस तथ्य की अनुभूति हो? इसे ही अपना उस श्रेष्ठता को देख सकना सम्भव न होगा। सोई हुई अन्तरात्मा तो केवल बाह्य कलेवर को ही देख सकेगी। हमारी अपनी संकीर्णता, कुरूपता और गंदगी, दूसरों में अपने सरीखे दोषों को ही ढूँढ़ निकालेगी। गुबरीला कीड़ा नंदन बन में छोड़ा जाय तो वहाँ भी गोबर और गंदगी ही ढूँढ़ निकालेगा। गुलाब की गंध ढूँढ़ने के लिए भ्रमर जैसी नाक होनी चाहिए। फूलों में से मधु संचय करने के लिए मधु जैसी कुशलता होनी चाहिए।

मानव प्राणी की आत्मा में अनन्त सौंदर्य भरा पड़ा है, उसके अन्दर सात्विकता की एक भारी मात्रा मौजूद है। समस्त ऋषियों और देवताओं की सत्ता इस मानव पिण्ड में मौजूद है पर उस देख कौन? देखने वाले हमारे यंत्र टूटे पड़े हैं। पशु जिस प्रकार संसार में प्रकृति के सर्वत्र बिखरे हुए सौंदर्य को नहीं समझ पाते उसी प्रकार मनुष्य भी विभिन्न आत्माओं में भरे पड़े दिव्य सौंदर्य को भी कहाँ देख पाता है? अध्यात्म के अभाव में उसकी स्थिति एक प्रकार के अन्धे के समान हो रही है।

दूसरों की बात जाने दीजिए हम अपने आपको भी कहाँ देख और समझ पाते है ? अपने स्त्री बच्चों में, स्वजन संबंधियों में, जो अनेकों सद्गुण, अनेक सद् वृत्तियों, अनेकों सद्भावनाएँ, तथा विशेषताएँ भरी पड़ी हैं उन्हें देखने समझने की क्षमता हममें कहाँ है? इस अभाव के कारण वे हमें केवल रूखे, फूहड़, कुरूप, एवं भार स्वरूप मालूम पड़ने हैं क्या वस्तुतः वे ऐसे ही हैं ? क्या सचमुच उनमें कोई ऐसी विशेषता नहीं है जो हमें उल्लास एवं आह्लाद प्रदान कर सकें ? क्या वे केवल भार भूत ही पैदा हुए हैं? क्या उनमें ईश्वर ने ऐसा कुछ परिश्रम नहीं किया है जिसकी अनुभूति से हम आनन्द लाभ कर सकें?

हमारी दृष्टि में सौंदर्य भावना का न होना ही संसार में कल्पना दीखने का एकमात्र कारण है। बेचारा अन्धा किसी मनोरम दृश्य से क्या अनुभूति ग्रहण करेगा? वस्तुतः इस संसार में सर्वत्र सौंदर्य ही सौंदर्य बिखरा पड़ा है, सर्वत्र रस ही रस टपक रहा है। उल्लास और आह्लाद प्रदान करने वाले तत्त्व हर वस्तु में हर प्राणी में, हर व्यक्ति में भरी पड़े है। उसे ढूँढ़ सकने, समझ सकने और अनुभूति में उतार सकने की आध्यात्मिक क्षमता की कला कहते हैं। कला कोई विग या कारीगरी नहीं है। संगीत, कविता, नृत्य, वाद्य, गायन, सज्जा चित्रकारी, मूर्ति निर्माण आदि तो उसे विकसित करने के माध्यम मात्र हैं। कला का प्राण है- आध्यात्म। वह दृष्टिकोण जिसके द्वारा पदार्थों के बीच छिपे हुए सृष्टा के सौंदर्य को खोज निकालने में हम सफल होते हैं।

कला में जो रस है वह ईश्वर दर्शन के आनंद की एक हलकी सी झाँकी है। कला का उद्देश्य यही है कि मनुष्य अपने चारों और बिखरे हुए-जड़ चेतन में ओत प्रोत अनन्त सौंदर्य को, सत्य और शिव की झाँकी करें। इसी लिए कला को जीवन दर्शन का उद्गम कहा गया है और जो कला रहित हैं उन्हें सींग पूछ रहित पशु कहा गया है।


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