प्रगति का आन्तरिक आधार

July 1961

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(श्री. विद्यावागाँश ब्रह्मचारी)

लोहे के एक टुकड़े को लेकर एक कम योग्यता का लुहार मामूली भी हलकी फाल, खुरपी, गँडासा या दूसरी चीजें बना देता है। एक दूसरा लुहार उसी लोहे को अच्छी तरह पकाकर चतुराई से ढालकर बन्दूक की नाल बनाता है। तीसरा लुहार लोहे से किन्हीं बढ़िया घड़ियों के कीमती पुर्जे बनाता है। लोहे का टुकड़ा एक ही दाम का था और लुहारों को समय एवं श्रम भी लगभग समान ही लगाना पड़ा पर बनी हुई चीजों की महत्ता एवं कीमत में भारी अन्तर है। हल की फाल एक दो रुपये की बिकी। बन्दूक की नाल चार सौ की बनी और घड़ियों के पुर्जे हजारों रुपये के बिके।

इस अन्तर का कारण लुहारों की क्षमता का अन्तर है। शारीरिक दृष्टि से ये तीनों लुहार देखने में एक से लगेंगे, पर अन्तर उनकी मानसिक योग्यता का है। एक को लोहे का मामूली उपयोग आता है वह साधारण सी मोटी मोटी चीजें बना सकता हैं, उसने अपने उस्ताद से जितना सीखा था उसे ही याद रखा, इससे आगे उस कला में प्रवेश करने की, उसकी बारीकियाँ जानने की और अपने आपको अधिक किया कुशल बनाने की कोशिश नहीं की। फलस्वरूप वह जैसा मामूली लुहार बचपन में था, लगभग जीवन भर वैसा ही बना रहा।

बन्दूक की नाल ढालने वाले और घड़ी के पुर्जे बनाने वाले लुहार भी आरम्भ में उस मामूली लुहार की भाँति ही छोटा काम सीखें होंगे, प्रारम्भिक दिन तीनों के ही एक से रहे होंगे। पर आगे चलकर जिनने अपने मस्तिष्क पर अधिक जोर दिया, अधिक जानने और अधिक प्रवीण बनने की इच्छा की उन्हें आगे बढ़ने के साधन भी मिलते गये। और आज वे अपने पिछड़े हुये साथी की अपेक्षा कई गुना कमाते हैं और सम्मान प्राप्त करते हैं।

लुहारों का तो उदाहरण मात्र हैं। सारे समाज में यही क्रम चल रहा। जिनका मन आगे बढ़ने के लिये उल्लसित नहीं होता, जो बारीकियों को ढूँढ़ने उन्हें पकड़ने और आज की अपेक्षा कल अधिक उत्कृष्ट निर्माण करने की साथ में रहते हैं, निश्चय ही उन्हें अपनी क्षमता बढ़ाने का अवसर मिलता है कई लोग यह शिकायत करते रहते हैं कि हमें आगे बढ़ने का अवसर ही नहीं मिला, उन्नति करने के साधन उपलब्ध नहीं हुये। उनका ऐसा सोचना अपनी काहिली और हीन मनोदशा को छिपाने का एक बहाना मात्र हे। उसमें सार की बात अधिक नहीं है। यह ठीक है कि यदि अच्छे अवसर का साधन अनायास ही प्रचुर मात्रा से मिल शीघ्र उन्नति हो सकती हैं, किन्तु यदि मानसिक काहिली घेरे हुये हो तो साधन भी उसकी कुछ सहायता नहीं कर सकते।

अनेकों अमीरों और उन्नतिशील लोगों के लड़के अपने बुजुर्गों की अपेक्षा अधिक उन्नति के अवसर प्राप्त होते हुये भी गिरी हुई दशा में पड़े रहते हैं, इतना ही नहीं ऐश, आराम की आदत पड़ जाने पर पूर्वजों की संचित सम्पत्ति और प्रतिष्ठा को खो भी देते हैं। पर ऐसे अगणित मनुष्य है जो गरीब और साधन हीन परिवार में पैदा होकर भी अपनी आन्तरिक स्फूर्ति, लगन, धर्मशीलता तथा बारीकी से देखने की दृष्टि होने के कारण उन्नतिशील हुये हैं, उनने आगे बढ़ने के साधन खोजे हैं और वे उन्हें मिली भी हैं। इस सृष्टि का यह मनातन नित्य रहा है कि सत्पात्रों को उनकी आवश्यक वस्तुएँ तब परिस्थितियाँ देर सवेर में अवश्य मिल जाती है साधनों के अभाव में आज तक किसी को भी गिरी अवस्था में पड़े नहीं रहना पड़ा है।

जिन्हें बुद्धिमान कहा जाता है वस्तुतः उनमें भी साधारण लोगों में जितनी बुद्धि होती है पर अन्तर केवल इतना ही रहता है कि वे हर चीज को बारीकी से देखते हैं, उसमें गहराई तक जाने की कोशिश करते हैं, ढूँढ़ने में उन्हें आनन्द मिलता हैं, वे अपने क्षेत्र में उदासीनता की नहीं वरन् दिलचस्पी की दृष्टि फेंकते है फलस्वरूप उन्हें वह बहुत कुछ मिल जाता है।

एक आदमी नदी के किनारे बैठा-बैठा ठण्डी हवा लेता रहता है किन्तु दूसरा मनुष्य लकड़ी में रस्सी बाँधकर मछली पकड़ना आरम्भ कर देता है। हवा खाने वाला शाम को खाली हाथ जाता है पर वह उद्योगी मनुष्य मछलियों से टोकरी भर ले जाता है। यही बात जीवन के हर क्षेत्र में लागू होती है।

मन्द बुद्धि का अर्थ मस्तिष्क के किसी भाग का दुर्बल होना नहीं है वरन् यह है कि वह व्यक्ति अपने क्षेत्र में दिलचस्पी नहीं लेता, आधे मन से बातों को सोचता है और आधी दिलचस्पी से अपने कार्यों को करता है। यदि खोजने की, सीखने की अधिक उत्कृष्टता उपलब्ध करने की आकांक्षा हो तो मस्तिष्क के कल पुर्जे अपने आप ही बहुत काम करते हैं, उनमें यदि कुछ कमी भी हो तो इस प्रकार की उल्लसित मनोभावना के कारण उसकी पूर्ति जल्दी ही हो जाती है। मन्द बुद्धि समझे जाने वाले लोग यदि इस प्रक्रिया को अपना ले तो वे निश्चित रूप से थोड़े ही दिनों में बुद्धिमान कहलाने लगेंगे।

निर्जीव मशीन को जिस ढर्रे पर चला दिया जाय सदा उसी पर चलती रहती है। कुछ लोग मशीन की तरह ही एक ढर्रे पर काम करते रहते हैं किन्तु कुछ लोग ऐसे ही होते हैं जो हाथ में आये हुये काम को, अधिक सुन्दर और उत्कृष्ट बनाने का रास्ता मालूम करने के लिये बेचैन रहते हैं। सजीव का यही चिह्न है। यह गुण जिसमें होगा वह आज की परिस्थिति में कदापि न पड़ा रहेगा। खोजने वाले को मिलता है। उसकी कृतियाँ उत्कृष्ट बनती हैं। उसके सीखने और खोजने की वृत्ति का पता जब लोगों को लगता है तो वे उसका आदर करने ही है। हीरा अधिक देर तक जौहरी की आँखों से बचा नहीं रहता उसकी परख होती ही है और अन्त में उसे सम्मान नींव स्थान पर रखा ही जाता है। खोजने और सीखने का गुरु मंत्र जिसने भली प्रकार हृदयंगम कर लिया उसे उन्नतिशील होने की सिद्धि मिलकर ही रहती है।

मंदबुद्धि का एक लक्षण यह है कि आधे मन से, उदासीनता पूर्वक किसी काम को एक ढर्रे की तरह पूरा करते रहा जाय उसमें कोई नवीनता खोजा ने एवं उत्कृष्टता पैदा करने का प्रयत्न न किया जाय। दूसरा लक्षण यह है कि पर्याप्त परिश्रम न करना, थोड़े ही प्रयत्न से संतुष्ट हो जाना और बहुत जल्दी सफलता की आशा करना, छिछोरे आदमी प्रायः ऐसे ही होते है। वे बड़ी-बड़ी कामनायें तो करते हैं पर इसके लिये जितनी तन्मयता तत्परता और प्रयत्नशीलता की आवश्यकता है वह उनसे नहीं बन पड़ती। थोड़े ही प्रयत्न को बहुत बड़ा मान लेते हैं और यह सोचने लगते हैं जो कुछ कर लिया अब इससे ज्यादा कुछ नहीं हो सकता। इस प्रकार ये समय के बारे में अधीर होते हैं। इतने दिन प्रयत्न करते हुये हो गये, अभी तक सफलता न मिली तो आगे क्या मिलेगी? यह सोचकर वे निराशा में डूब जाते हैं और प्रयत्न करना छोड़कर भाग्य को कोसने लगते हैं।

यदि हमें बुद्धिमान बनना हो, उन्नतिशील लोगों की श्रेणी में सम्मिलित होना हो तो यह बात गाँठ बाँध लेनी चाहिये कि जीवन भर तक विद्यार्थी बने रहने की आदत डालनी होगी। जितना हम जानते हैं वह बहुत है, ऐसा मिथ्या अभिमान जिस किसी को आ जाता है उसी दिन उसकी उन्नति के द्वार बन्द हो जाते है। यह अभिमान प्रगति का सबसे बड़ा शत्रु है इससे सर्प और सिंह के समान बचना चाहिये। जितना अब तक हम जानते है।

संभव है वह कई पिछड़े हुए लोगों को अपेक्षा अधिक हो, परन्तु जो लोग आगे हैं। उनकी अपेक्षा निश्चय ही हम बहुत पिछड़े हुए है। ऐसी दशा में अभामन किस बिरते पर किया जाय? यदि कोई सर्वोत्कृष्ट ज्ञानवान हो जाय तो भी उसे यही समझना चाहिए कि अभी ज्ञान विज्ञान का क्षेत्र अनन्त है और जितना जान लिया गया है भविष्य में उससे और अधिक जानने की संभावना मौजूद है। जो लोग स्वल्प ज्ञान रखते हुए भी अपने को बड़ा जानकर मानते हैं और घमंड से ऐंठते हैं उनकी मूर्खता सचमुच उपहास के योग्य है।

ज्ञान अनन्त है। किसी छोटे से छोटे विषय की अधिकाधिक जानकारी प्राप्त करने के लिए एक जन्म का समय बहुत थोड़ा है इसके लिए कई जन्म चाहिए। अतएव जिस दिशा में अपनी अभिरुचि हो उसका विनम्र विद्यार्थी ही बना रहना चाहिए और जितना जान लिया गया है उसे अपर्याप्त मानकर आगे और अधिक जानने के लिए सचेष्ट रहना चाहिए।


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