सद्भावना से कार्य करें।

May 1947

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[श्रीमती चन्द्रकान्ता जेरथ, बी. ए. दिल्ली]

कई बार ऐसा देखा जाता है कि मनुष्य अपनी समझ के अनुसार भलाई की दृष्टि से किसी काम को करता है उसकी इच्छा शुभ परिणाम प्राप्त करने की होती है इस पर भी ऐसी बात सामने आ जाती है कि परिणाम विपरीत होता है। जिन लोगों के हित के लिए वह कार्य किया था वे उसे अहितकर मानते हैं और अप्रसन्न होते हैं।

इस प्रकार के अवसर आने पर एक मानसिक अशान्ति की गड़बड़ी उत्पन्न होती है। उस कार्य को करने वाला सोचता है कि मैंने शुभ परिणाम की इच्छा से सद्भावना से यह कार्य किया, पर मुझे उलटा निन्दा और विरोध का भागी बनना पड़ा। इस प्रतिकूलता के लिए वह अपने आप को, परिस्थिति को, दैवी विधान को और दूसरों की असहिष्णुता को कोसता है। दूसरी ओर जिन लोगों को वह कार्य नापसन्द रहा वे उसे मूर्ख ठहराते हैं या उसकी सद्भावना पर सन्देह करते हैं। इस प्रकार दोनों ओर मनोमालिन्य उत्पन्न होता है।

इस उभय पक्षीय मनोमालिन्य का कारण-कर्म विज्ञान का अज्ञान है। हमें भली प्रकार समझ रखना चाहिए कि किसी कार्य का इच्छित परिणाम हो ही यह आवश्यक नहीं है। कई बार शुभ इच्छा से किये हुए कार्यों का परिणाम अशुभ भी होता देखा जाता है और अशुभ इच्छा से किये कार्य शुभ फलदायक भी हो जाते हैं। विवेकशील व्यापारियों को दिवालिया बनने और मौदू लोगों को लक्षाधीश बनने के अनेकों उदाहरण मिल सकते हैं।

दुनिया उसे बुद्धिमान कहती है जिसकी सूझ के कारण लाभदायक फल निकलता है और जो निशाना चूक जाता है वह बेवकूफ कहा जाता है। पर यह दृष्टिकोण बहुत ही अधूरा है। सफलता में भाग्य, अवसर, परिस्थिति, वातावरण, घटनाक्रम, दूसरों का सहयोग आदि अनेक कारण होते हैं। इतनी सब बातें जुटाना मनुष्य के हाथ की बात नहीं है। वह तो अपनी समझ के अनुसार, शुभ विचार और शुभ कार्य के लिए कर्त्तव्य पालन कर सकता है। अनुकूल प्रतिकूल परिणाम तो दैवाधीन है।

यह भी नहीं कहा जा सकता कि मनुष्य की सूझ सर्वदा ठीक ही होती है। मानवीय मस्तिष्क अपूर्ण है, बहुत दूर तक, अन्तिम परिणाम तक, दृष्टि फेंकने की शक्ति उसमें नहीं है। जो बात इस घड़ी बिलकुल ठीक जँचती है वह कुछ समय बाद गलत जंच सकती है। महात्मागाँधी ने राजकोट में अनशन किया। पीछे उन्हें मालूम हुआ कि यह मेरी भूल थी, मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था। मनुष्य का अपूर्ण मस्तिष्क सदा सही निर्णय ही करे यह आशा करना व्यर्थ है।

काम करने के सम्बन्ध में एक बात मनुष्य के पूर्णतया हाथ में है वह यह कि उसकी नीयत साफ हो, हृदय शुद्ध है। भावना पवित्र हो। शुभ कामना और सद्भावना से काम करना यह उसका आवश्यक कर्तव्य है। यदि उसकी नीयत साफ है तो उसके कार्यों का मूल्य भी सद्भावना से आँका जाना चाहिए फिर चाहे उस कार्य का परिणाम हानिकारक या असुविधाजनक ही क्यों न हुआ हो। इसी प्रकार यदि किसी मनुष्य ने बुरी नीयत से कोई कार्य किया हो तो उसका मूल्य बुराई में आँका जाना चाहिए फिर चाहे संयोगवश उसे बुरे कार्य से कोई लाभदायक परिणाम ही क्यों न मिल गया हो।

गीता की यही शिक्षा है कि ‘कर्म फल की ओर मत देखो वह तुम्हारे हाथ में नहीं है। तुम तो पवित्र हृदय से अपना कर्तव्य। कर्म निस्वार्थ भाव से करो। शुभ भावना से किया हुआ कर्म शुभ है और अशुभ भावना से किया हुआ कर्म अशुभ। इसी दृष्टिकोण से हमें अपने तथा दूसरों के कार्यों को परखना चाहिए। कर्म रहस्य को समझने वाला फल की निन्दा स्तुति करने की अपेक्षा कर्त्ता की भावना को टटोलता है। जहाँ यह कर्मयोगी दृष्टिकोण होगा वहाँ सदा शान्ति विराजती रहेगी।


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