डॉ. एस. पी. सिंह, कैथी
औषधियों के व्यापार में अत्यधिक लाभ हैं। चार पैसे की चीज के चार रुपये वसूल किये जाते हैं। इस पोल में घुसकर शीघ्र धनी बनने के लिए औषधि विक्रेताओं ने विज्ञापन बाजी की ऐसी धूम मचादी है कि साधारण जनता को भ्रम में पड़ने के लिए विवश होना पड़ा है। अखबारों में, दीवारों पर, पर्चों तथा पोस्टरों से, सूची पत्रों से, तथा अन्य अनेकानेक मार्गों से दवाओं की महत्ता प्रदर्शित की जाती है। इतने बड़े प्रोपेगण्डे से प्रभावित होकर जनता यह विश्वास कर लेती है कि स्वास्थ्य को पैसों से खरीदा जा सकता है। वैद्य, डॉक्टरों की दुकानें तथा औषधि निर्माताओं के बड़े बड़े कारखाने अपनी चमक दमक से जनता का मन मोह लेते हैं और जन साधारण को यह विश्वास हो जाता है कि आरोग्य रंग बिरंगे लेविलों की बोतल में बन्द होकर औषधि विक्रेताओं की अलमारियों में रखा है। पैसा फेंककर जब चाहे तब, चाहे जितनी मात्रा में, खरीद लिया जा सकता है।
परन्तु यह धारणा नितान्त भ्रम मूलक है। आरोग्य की रक्षा और वृद्धि-औषधियों से नहीं, उचित आहार विहार से होती है। किसी विशेष आपत्ति के समय कोई रोग उठ खड़ा होने की दशा में तत्कालिक उपचार के रूप में औषधि काम में ली जा सकती है। पर यह निश्चित है कि दवाएं किसी मनुष्य को बलवान, निरोग तथा दीर्घजीवी नहीं बना सकती। अमीर लोग जिनकी आज्ञा में दर्जनों डॉक्टर हाथ बाँधे खड़े रहते हैं- अक्सर बवासीर, कब्ज, मोटापा, नपुँसकता, अनिद्रा, थकान आदि से पीड़ित देखे जाते हैं। बहुमूल्य दवाएं तथा डॉक्टरों की दौड़ धूप से उनका कुछ विशेष हित साधन नहीं हो पाता
उचित आहार, संयमित जीवन, ब्रह्मचर्य, व्यायाम, समय पर सोना जागना, उचित परिश्रम, मानसिक शान्ति, स्वच्छता का आश्रय लेकर मनुष्य बिना दवा के निरोग रह सकता है। उचित आहार विहार एक ऐसी गारन्टी है जिसके ऊपर बीमार न पड़ने का विश्वास रखा जा सकता है। प्रकृति माता के आदेशानुसार जीवन बिताने वाले वन्य पशु पक्षी सदा निरोग रहते और आनन्द पूर्वक विचरण करते हैं। बीमारी तो प्रकृति विरुद्ध आचरणों का एक दँड है। इस दँड से बचने का उपाय तो अपराधों की पुनरावृत्ति न करना है। पैसे खर्च कर देने मात्र से कोई आदमी विद्वान नहीं बन सकता। धन देकर विद्या नहीं खरीदी जा सकती। इसे तो स्वयं प्रयत्न करके अध्ययन द्वारा प्राप्त किया जाता है इसी प्रकार स्वास्थ्य भी खरीदा नहीं जाता। धन से आरोग्य नहीं मिल सकता। प्रकृति माता के आदेशानुसार दिनचर्या बनाकर, आहार विहार में सावधानी बरतकर ही हम स्वस्थ रह सकते हैं।
बीमारों को वैद्य डॉक्टरों के दरवाजे पर डेरा डालने और उनकी जेबें गरम करने की अपेक्षा उपवास, फलाहार, वस्ति, व्यायाम का आश्रय लेना चाहिए और जिन पंच तत्वों से शरीर बना है, उन जल, तेज, वायु पृथ्वी, आकाश द्वारा निरोग बनाने वाली प्राकृतिक चिकित्सा को अपनाना चाहिए।
शरीर के अन्दर जमे हुए विषों और विकारों को बाहर निकाल फेंकने के लिए शरीर की स्वस्थ सत्ता संघर्ष करती है, और भीतर भरे हुए विजातीय विषों को दस्त, थूक, पीव, पसीना, वमन, आदि द्वारा उन्हें बाहर निकालती है। रक्त के स्वास्थ्य रक्षक परमाणुओं और विजातीय विषों का संघर्ष दाह, या दर्द के रूप में प्रकट होता है। शरीर को बीमारी कहते हैं, इससे डरने की कुछ जरूरत नहीं है। यदि हम उपवास, विश्राम, धैर्य और प्राकृतिक उपचार प्रणाली का अवलम्बन करें तो बहुत शीघ्र स्वस्थ सत्ता विकारों के विष को बाहर निकाल फेंकती है और शरीर अपने आप रोग मुक्त हो जाता है। इसके विपरीत यदि दवाइयों की भरमार की जाती है तो रोग दब जाता है, आँतों में जमे हुए विषों को दस्तों द्वारा प्रकृति बाहर निकालती है ताकि पेट शुद्ध हो जाय। रोगी इसे एक आपत्ति समझकर वैद्य के पास दौड़ता है। और वे औषधि देकर दस्त बन्द करा देते हैं। फल यह होता है कि वह विष पेट में ही जमा रह जाता है और मौका पाकर खून खराबी आदि के रूप में फोड़े फुन्सी बनकर बाहर निकलता है। असल में बीमारी हमारी मित्र है पर हम भ्रमवश उन्हें शत्रु समझते हैं। बीमारी हमारी शुद्धि करने आती है। नाली में जमी हुई कीचड़ को जब मेहतर खुरचकर साफ करता है तो बदबू उड़ती है। वह बदबू बुरी मालूम पड़ती है। पर नाली में गंदगी जमा रहने से सफाई की बदबू अच्छी। इसी प्रकार पेट और रक्त में विष दबे हुए भरे रहें ऐसी दशा की अपेक्षा वह बीमारी की स्थिति अच्छी जो कुछ समय कष्ट देकर अन्त में शरीर को शुद्ध एवं निर्मल बना देती है।
अपनी दिनचर्या को प्राकृतिक नियमों के अनुकूल बनाइए। शाम को जल्दी सोइए प्रातः जल्दी उठिए। शारीरिक और मानसिक परिश्रम उतना कीजिए जो आपकी स्थिति के अनुरूप हो, सामर्थ्य से अधिक मेहनत करना या निठल्ले पड़े रहना दोनों ही स्थितियाँ हानिकर हैं। भूख लगने पर सात्विक आहार कीजिए। खूब चबा चबा कर खाइए। ब्रह्मचर्य से रहिए। व्यसनों से बचिए। मस्तिष्क को चिन्ता, उत्तेजना और आवेश से मुक्त रखिए। निर्भय रहिए। जीवन को सात्विक बनाइए और प्रसन्न रहा कीजिए। आप स्वस्थ रहेंगे। बीमारी आवेगी तो बहुत जल्द चली जावेगी। स्वस्थता सर्वोपरि सम्पदा है उसे स्थिर रखिए और बढ़ाइए पर स्मरण रखिए- “आरोग्य खरीदा नहीं जाता” वह तो आहार विहार की सुव्यवस्था द्वारा प्राप्त होता है।