अपने को आवेशों से बचाइए।

May 1947

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भूतकाल की बीती हुई दुखदाई घटनाओं का स्मरण कर करके कितने ही मनुष्य अपने आपको बेचैन बनाये रहते हैं। किसी प्रियजन की मृत्यु, पैसे की हानि, अपमान, विछोह आदि की कटु स्मृतियों को वे भुला नहीं पाते और सदा कुढ़ते एवं जलते रहते हैं। इसी प्रकार कितने ही मनुष्य भविष्य की कठिनाइयों को हल करने की चिन्ता में जला करते हैं। लड़की के विवाह के लिए इतना रुपया कहाँ से आवेगा? बुढ़ापे में क्या खायेंगे? लड़के कुपात्र निकले तो प्रतिष्ठा कैसे कायम रहेगी? गरीबी आ गई तो कैसी बीतेगी? इतना धन इकट्ठा न हो पाया तो अमुक कार्य कैसे पूरा होगा? अमुक ने सहारा न दिया तो कैसी दुर्दशा होगी? अमुक आपत्ति आ गई तो भविष्य अन्धकार-मय हो जायगा। आदि अनेकों प्रकार के भावी संकटों की चिन्ता में रक्त माँस को सुखाते रहते हैं। भूत का शोक और भविष्य का भय इतना त्रासदायक होता है कि मस्तिष्क का अधिकाँश भाग उसी में उलझा रहता है। वर्तमान समय की गुत्थियों को सुलझाने और सामने पड़े हुए कार्य को पूरा करने के लिए शक्तियों का बहुत थोड़ा भाग बचता है। उस बचे खुचे, आँशिक मनोबल से जो थोड़ा सा काम हो पाता है, उतने मात्र से व्यवस्था क्रम यथावत् नहीं चल सकता। फलस्वरूप गति अवरोध उत्पन्न होकर जीवन की बधिया बैठ जाती है। इस उलझन भरी दशा में किंकर्त्तव्यविमूढ़ होकर कितने ही मनुष्य आत्म-हत्या कर लेते हैं, पागल हो जाते हैं, घर बार छोड़ कर भाग जाते हैं, या और दुखदायी कार्य कर बैठते हैं, कितने ही घोर निराशावादी या सनकी हो जाते हैं, कितने ही इस अशाँति के भार से कुछ देर के लिये छूट पाने को, अपने आपको भूलने को, नशेबाजी का सत्यानाशी प्रयत्न करते हैं।

आवेशों से मानसिक तन्तुओं को सदा उत्तेजित रखना, अपने आपको जलती मशाल से झुलसाते रहने के समान है। आवेशों-जीवन की अस्वाभाविक दशा है, उनसे शक्तियों का भयंकर रूप से नाश होता है। डॉक्टरों ने पता लगाया है कि यदि मनुष्य 4॥ घण्टे लगातार क्रोध में भरा रहे तो लगभग 8 ओंस खून जल जायगा और इतना विष उत्पन्न हो जायगा जितना कि 1 तोला कुचला से उत्पन्न होता है। चिन्ता की अधिकता से हड्डियों के भीतर रहने वाली मज्जा सूख जाती है फलस्वरूप निमोनिया, इन्फ्लुएंजा सरीखे रोगों के आक्रमण का अंदेशा बढ़ जाता है। ऐसे लोगों की हड्डियाँ टेढ़ी पड़ जाती हैं और नियत स्थान से ऊपर आ जाती हैं। कनपटी की, गले की, कन्धे कान के पीछे की हड्डियाँ यदि ऊपर उभर आई हों तो कहा जा सकता है कि वह व्यक्ति चिन्ता में घुला जा रहा है। लोभी और कन्जूसों को कब्ज की शिकायतें बनी रहती हैं और आये दिन जुकाम बना रहता है। भय और आशंका से जिनका कलेजा काँपता रहता हैं, उनके शरीर में लहू और क्षार की मात्रा कम हो जाती है। बाल झड़ने लगते हैं और सफेद होने लगते हैं। शोक के कारण नेत्रों की ज्योति-क्षीणता, गठिया, स्मरण शक्ति की कमी स्नायविक दुर्बलता, बहु मूत्र, पथरी, सरीखे रोग हो जाते हैं। ईर्ष्या, द्वेष एवं प्रतिहिंसा की जलन के कारण तपैदिक, दमा, बहरापन, कुष्ठ सरीखी व्याधियाँ उत्पन्न होती देखी जाती हैं। कारण स्पष्ट है- इन मानसिक आवेशों के कारण एक प्रकार का अन्तर्दाह उत्पन्न होता है। अग्नि जहाँ रहती हैं, हवा जलाता है। अन्तर्दाह की अग्नि में जीवन के उपयोग तत्व ईंधन की भाँति जलते रहते हैं, जिससे देह भीतर ही भीतर खोखली हो जाती है। जहाँ अग्नि जलती है, वहाँ ऑक्सीजन [प्राण वायु] खर्च होती है, और कार्बन गैस [विष वायु] उत्पन्न होती है, जिनके कारण शरीर तरह-तरह के रोगों का घर बन जाता है और कुछ ही समय में इतना सड़ गल जाता है कि जीवात्मा को असमय में ही उसे छोड़कर भागने के लिए विवश होना पड़ता है।

आवेशों का तूफान न शारीरिक स्वास्थ्य को कायम रहने देता है और न मानसिक स्वास्थ्य को। वैद्य को नाड़ी पकड़ने से कोई रोग भले ही न मालूम पड़े पर वस्तुतः आवेश की अवस्था में जीवन की उतनी ही क्षति होती रहती है जितनी कि बड़े-बड़े भयंकर रोगों के समय होती है। यह सर्वविदित है कि रोगी मनुष्य शारीरिक दृष्टि से एक प्रकार का अपाहिज बन जाता है। वह चाहता है कि काम करूं पर होता कुछ नहीं। जरा देर काम करने पर थककर चूर हो जाता है, मन वहाँ जमता ही नहीं, काम को छोड़कर लेट जाने या कही चलें जाने की तबियत करती है, करता कुछ है किंतु हो कुछ जाता है, जरा देर के काम में काफी समय खर्च जाता है, सो भी ठीक तरह होता नहीं, जब निरीक्षण किया जाता है तो भूल पर भूल निकलती है। आवेश में भरा हुआ मनुष्य आधा पागल बन जाता है, वह कभी सर्प की तरह फुसकारता है, कभी व्याघ्र की तरह मुंह फाड़ कर खाने दौड़ता है, कभी ऐसा दीन और कातर हो जाता है कि विलाप करने, रोने विरक्त बनने, आत्म हत्या करने के अतिरिक्त और कुछ सूझ ही नहीं पड़ता। मेरे इस आचरण का भविष्य में क्या परिणाम होगा, यह सोचने में उसकी बुद्धि बिलकुल असमर्थ हो जाती है।

जीवन को समुन्नत दिशा की ओर ले जाने के लिये यह आवश्यक है कि विवेक बुद्धि ठीक प्रकार काम करे। विवेक बुद्धि की स्थिरता के लिए निराकुलता आवश्यकता है। दर्पण या पानी में प्रतिबिम्ब तभी दिखाई पड़ सकता है जब वह स्थिर हो, यदि दर्पण या पानी हिल रहा हो तो उसमें प्रतिबिम्ब भी ठहर न सकेगा। मस्तिष्क में जब उफान आ रहे हों तो विवेक स्थिर नहीं रह सकता। ठीक पथ प्रदर्शन कराने वाली बुद्धि तभी उद्भूत होगी जब मन शाँति हो, स्थिर हो, निराकुल हो। किसी काम की अच्छाई बुराई, हानि, लाभ, सुविधा, कठिनाई आदि की ठीक-ठीक कल्पना करने और अनेक दृष्टियों से विचार करके किसी अन्तिम निर्णय पर पहुँचने की क्षमता रखने वाला विवेक तभी मस्तिष्क में रह सकता है जब आवेशों की उद्विग्नता न हो। जो कार्य भले प्रकार आगा-पीछा सोच कर आरम्भ किए जाते हैं, जोश और उतावली में बिना विचारे जिन कार्यों को आरम्भ किया जाता है, प्रायः उन्हें बीच में ही छोड़ने को विवश होना पड़ता है।

अध्यात्म विद्या के प्रायः सभी ग्रंथों में मन को रोकने, चित्त वृत्तियों को एकाग्र करने, मन को वश में करने का पग-पग पर आदेश किया है। अनेकों साधनाएं मन को वश में करने की बताई गई हैं। यह मन को वश में करना और कुछ नहीं, “निराकुलता” ही हैं। दुख-सुख, हानि-लाभ, जय-अजय के कारण उत्पन्न होने वाले आवेशों से बचना ही योग की सफलता है। गीता कहती है :-

यंहि न ब्यथयन्त्येत्ते पुरुषं पुरुषर्ष भ।

संम दुखं सुखं धीरं सोऽमत्वाय कल्पते॥2-15॥

सुखे दुःखें समे कृत्वा लाभालाभौ जय जयौ॥3-38॥

दुःखे ष्वनुद्विग्न मनः सुखेबु बिगत स्पृहः।

बीत राग भय क्रोध स्थित घी र्मुनिरुच्यते॥2-56॥

न प्रहृष्येन्प्रियं प्राष्य नोद्विवेत्प्राव्य चा पियम्।

स्थिर बुविरसं मूढों ब्रह्मविद ब्रह्मणि स्थितः॥5-20॥

आदि अनेक स्थलों पर निराकुलता को योग की सफलता बताया गया है। आवेश सुख प्रधान और दुख प्रधान दोनों प्रकार के हैं। शोक, हानि, विछोह रोग, दंड, भय, विपत्ति, मृत्यु, क्रोध, अपमान, कायरता आदि हानि प्रधान आवेश हैं। कुछ आवेश लाभ प्रधान भी होते हैं-लाभ, सम्पत्ति मिलन, कुटुंब, बल, सत्ता, पद, धन, मैत्री, विद्या, बुद्धि कल कला, विशेषता आदि के कारण एक प्रकार का नशा चढ़ आता है। इस प्रकार की कोई सम्पत्ति जब बड़ी मात्रा में यकायक मिल जाती है अब तो मनुष्य हर्षोन्मत्त हो जाता है। उसकी दशा अर्ध विक्षिप्त जैसी हो जाती है। सुख के मारे लोग फूले नहीं समाते वे कस्तूरी हिरन की तरह इधर उधर दौड़ फिरते हैं। चित्त बल्लियों उछलने लगता है। जब कई सम्पत्ति स्थायी रूप से प्राप्त हो जाती हैं तो उसका अहंकार चढ़ आता है, उसे ऐसा मालूम पड़ता है मानो मैं साधारण मनुष्यों की अपेक्षा सैंकड़ों गुना भारी हूँ। वैभव के मद में वह इतराता है, दूसरों का अपमान करके अपनी महत्ता का प्रदर्शन करता है।

ऐसे अहंकार के नशे में मदहोश बड़े हुए लोगों को अपनी प्रोटेज, पोजीशन, मान, बढ़ाई, बड़प्पन, खातिर की बड़ी चिन्ता रहती है। इसके लिए हर काम में बहुत अधिक फिजूल खर्ची करनी पड़ती है। उस फिजूल खर्ची की सामग्री को जुटाने के लिए अनुचित साधन जुटाने पड़ते हैं, अनेकों प्रकार की बुराई ओढ़नी पड़ती है। इस प्रकार एक अहंकार के नशे की जलन, दूसरे उस नशे को लाये रहने के साधनों की चिन्ता, दोनों प्रकार की आकुलताएं मन में कुहराम मचाये रहती हैं और दुख प्रधान आवेशों से अन्तःकरण में जैसी अशान्ति रहती हैं वैसी ही सुख प्रधान आवेशों में भी उत्पन्न हो जाती है। इन दोनों से ही बचना आवश्यक है। दोनों से ही स्वास्थ्य एवं विवेक की क्षति होती है। गीता आदि शास्त्रों में इसीलिए दोनों प्रकार के आवेशों द्वन्द्वों से दूर रहने का जोरों से प्रतिपादन किया गया है।

जीवन को समुन्नत देखने की इच्छा करने वालों के लिए यह आवश्यक है कि अपने स्वभाव को गम्भीर बनावें। उथलेपन, लड़कपन, छिछोरपन की जिन्हें आदत पड़ जाती है, वे गहराई के साथ किसी विषय में विचार नहीं कर सकते। किसी समय मन को गुदगुदाने के लिए बाल क्रीड़ा की जा सकती है पर वैसा स्वभाव न बना लेना चाहिए। आवेशों से बचे रहने की आदत बनानी चाहिए जैसे समुद्र तट पर रहने वाले पर्वत, नित्य टकराते रहने वाली समुद्र की लहरों की परवाह नहीं करते। इसी प्रकार अपने को भी उद्वेगों की उपेक्षा करनी चाहिए। खिलाड़ी खेलते हैं, कई बार हारते हैं, कई बार जीतते हैं। कई बार हारते हारते जीत जाते हैं कई बार जीतते जीतते हार जाते हैं। कभी कभी बहुत देर हार जीत के झूले में यों ही झूलते रहते हैं। परन्तु कोई खिलाड़ी उसका अत्यधिक असर मन पर नहीं पड़ने देता। हारने पर कोई सिर धुनकर क्रन्दन नहीं करता और जीतने पर न कोई अपने को बादशाह मान लेता है। हारने वालों के होठों पर झेंप भरी मुस्कराहट होती है और जीतने वाले के होठों पर जो मुस्कराहट रहती है उसमें सफलता की प्रसन्नता मिली होती हैं। इस थोड़े से स्वाभाविक भेद के अतिरिक्त और कोई विशेष अन्तर जीते हुए तथा हारे हुए खिलाड़ी में नहीं दिखाई पड़ता। विश्व के रंग मञ्च पर हम सब खिलाड़ी हैं। खेलने में रस हैं, वह रस दोनों दलों को समान रूप से मिलता है। हार जीत तो उस रस की तुलना में नगण्य चीज है।


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