धन संचय की तृष्णा

May 1947

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(पं. शिवशर्मा, दरबै)

परमात्मा ने मनुष्य मात्र को एक समान सुविधाएं दी हैं। इससे प्रकट है कि परमात्मा सब को एक समान सुखी देखना चाहता है। हवा, धूप, पानी, सर्दी, गर्मी, वर्षा आदि सभी वस्तुएं समान रूप से सब को वितरण की गई हैं। धरती माता की गोद में, नीले आकाश के नीचे हम सब को स्वच्छन्दता-पूर्वक विचरने और जीवित रहने की सुविधा है। घास की हरियाली, झरने का कलगान, नदी, पर्वत और बादलों के मनोहर दृश्य हम सभी के लिए खुले हुए हैं। भूख, प्यास, नींद, शरीर रक्षा आदि की आवश्यकताओं को पूरा करने के इतने साधन इस विश्व में, विश्वपति ने पैदा कर रखे हैं कि हम सुविधापूर्वक जीवन यापन कर सकें। परमात्मा समदर्शी है वह चाहता है कि हम सब सुखी रहे सुखपूर्वक जियें।

परन्तु हम देखते हैं कि आज मनुष्य ने परमात्मा की उस पुनीत इच्छा के विरुद्ध बगावत खड़ी कर रखी है। जिसमें चतुरता एवं शक्ति की तनिक भी अधिकता है वह कोशिश करता है कि मैं संसार की अधिक से अधिक सुख सामग्री अपने कब्जे में कर लूँ अपनी इस हवस को पूरा करने के लिए वह अपने पड़ौसियों के अधिकारों के ऊपर हमला करता है और उनके हाथ की रोटी, मुख के ग्रास छीनकर खुद मालदार बनता है।

एक आदमी के मालदार बनने का अर्थ है अनेकों का क्रन्दन, अनेकों का शोषण, अनेकों का अपहरण। एक ऊँचा मकान बनाया जाय तो उसके लिए बहुत सी मिट्टी जमा करनी पड़ेगी और जहाँ जहाँ से वह मिट्टी उठाई जायगी वहाँ वहाँ गड्ढा पड़ना निश्चित है। इस संसार में जितने प्राणी हैं उसी हिसाब से वस्तुएं भी परमात्मा उत्पन्न करता है। यदि एक आदमी अपनी जरूरत से अधिक वस्तुएं जमा करता है तो इसका अर्थ-दूसरों की जरूरी चीजों का अपहरण ही हुआ। गत द्वितीय महायुद्ध में सरकारों ने तथा पूँजीपतियों ने अन्न का अत्यधिक स्टॉक जमा कर लिया, फलस्वरूप दूसरी जगह अन्न की कमी पड़ गई और बंगाल जैसे प्रदेशों में लाखों आदमी भूखे मर गये गत शताब्दी में ब्रिटेन की धन सम्पन्नता भारत जैसे पराधीन देशों के दोहन से हुई थी। जिन देशों का शोषण हुआ था वे बेचारे दीन दशा में गरीबी, बेकारी, भुखमरी और बीमारी से तबाह हो रहे थे।

वस्तुएं संसार में उतनी ही हैं, जिससे सब लोग समान रूप से सुखपूर्वक रह सकें। एक व्यक्ति मालदार बनता है तो यह हो नहीं सकता कि उसके कारण अनेकों को गरीब न बनना पड़े। यह महान् सत्य हमारे पूजनीय पूर्वजों को भली-भाँति विदित था, इस लिए उन्होंने मानव धर्म में अपरिग्रह को महत्वपूर्ण स्थान दिया था। वस्तुओं का कम से कम संग्रह करना यह भारतीय सभ्यता का आदर्श सिद्धान्त था। ऋषिगण कम से कम वस्तुएं जमा करते थे। वे कोपीन लगाकर फंस के झोपड़ों में रहकर गुजारा करते थे। जनक जैसे राजा अपने हाथों खेती करके अपने पारिवारिक निर्वाह के लायक अन्न कमाते थे। प्रजा का सामूहिक पैसा-राज्य कोष-केवल प्रजा के कामों में खर्च होता है। व्यापारी लोग अपने को जनता के धन का ट्रस्टी समझते थे और जब आवश्यकता पड़ती थी उस धन को बिना हिचकिचाहट के जनता को सौंप देते थे। भीम शाह ने राणा प्रताप को प्रचुर संपदा अर्पण की थी। जनता की थाती को, जनता की आवश्यकता के लिए बिना हिचकिचाहट सौंप देने के असंख्यों उदाहरण भारतीय इतिहास के पन्ने-पन्ने पर अंकित हैं।

आज का दृष्टिकोण दूसरा है। लोग मालदार बनने की धुन में अंधे हो रहे हैं। नीति-अनीति का, उचित-अनुचित का, धर्म-अधर्म का प्रश्न उठाकर ताक में रख दिया गया है और यह कोशिशें हो रही हैं कि किस प्रकार जल्द से जल्द धनपति बन जायं! धन!! अधिक धन!!! जल्दी धन! धन!! धन!!! इस रट को लगाता हुआ, मनुष्य होश हवास भूल गया है। पागल स्यार की तरह धन की खोज में उन्मत्त सा होकर चारों ओर दौड़ रहा है।

इस पागलपन ने संसार को अशाँति एवं विक्षुब्ध बना दिया है। इस सत्यानाशी तृष्णा ने जीवन को बड़ा विषम, जटिल, कर्कश एवं निम्न कोटि का बना दिया है। जैसे बने वैसे जल्दी से जल्दी धनी बनने की धुन ने चारों ओर अनैतिकता फैलादी है। बाजार में जाइए-दूध में पानी, घी में वेजीटेबल मिलेगा। झाँकी जिले के एक कस्बे में अभ्रम कह-2 बेचने के लिए चक्कियों से गेरू पिसता है। शहद के नाम से चासनी मिल सकती है। बाजार के खाद्य पदार्थों की शुद्धता प्रायः अविश्वसनीय हो गई है। वकीलों को झूँठे मुकदमें की वकालत करते हुए हम देखते हैं। मामूली बुखार को तपैदिक बताकर रोगी को भयभीत करके उसके थाली बर्तन बिकवा लेना आज के डॉक्टरों का बाएं हाथ का खेल है, चार पैसे की झूँठी, घड़ी को ‘एक सा टाइम देने वाली असली घड़ी” बताकर मनमाने दाम वसूल करने वाले विज्ञापन जज अखबारों में विज्ञापन छपाते हैं और हजारों भोले आदमियों को लूटते हैं। ठगी, धोखा, कपट, मायाचार, असत्य, आज चातुर्य में गिना जाने लगा है। चोरी, डाका, लूट, ठगी, उठाईगीरी, शोषण, अपहरण के ऐसे ऐसे नित नये विचित्र तरीके निकलते आते हैं जिन्हें देखकर बुद्धि हैरान हो जाती है। इन हथकंडों के कारण मानव जाति का शारीरिक, मानसिक और नैतिक स्वास्थ्य जीर्ण-शीर्ण हो चला है। विवाह, शादी जैसे पुनीत धार्मिक कृत्य में दहेज की दुकानदारी होती है। ईश्वर तक को रिश्वत देकर मन मर्जी की सुविधा लेने का लोग दम भरते हैं। धर्मोपदेश एक पेशा बन गया है, यह सब हमारे आध्यात्मिक स्वास्थ्य के पतन का प्रमाण है।

पाप एक छूत की बीमारी है जो एक से दूसरे को लगती और फैलती है। एक को धनी बनने के लिए यह अन्धा धुन्धी मचाते हुए देखकर और अनेकों की वैसी इच्छा होती है। अनुचित रीति से धन जमा करने वाले लुटेरों की संख्या बढ़ती है- फिर लुटने वाले और लूटने वालों में संघर्ष होता है। उधर लूटने वालों में प्रतिद्वंद्विता संघर्ष होता है। इस प्रकार तीन मोर्चों पर लड़ाई ठन जाती है। गत तीस वर्षों में इसी लड़ाई में संसार दो बार रक्त स्नान कर चुका है। करोड़ों मनुष्यों के रक्त से धरती लाल हो चुकी है। महायुद्ध बन्द हो गये हैं पर उसका छोटा रूप हर जगह देखने को मिल सकता है। घर घर में, गाँव-गाँव में, जाति में वर्ग-वर्ग में तनातनी हो रही है। जैसे बने वैसे जल्दी से जल्दी धनी बनने, व्यक्तिगत सम्पन्नता को प्रधानता देने, का एक ही निश्चित परिणाम है- कलह। जिसे हम अपने चारों ओर ताण्डव नृत्य करता हुआ देख रहे हैं।

इस गतिविधि-को जब तक मनुष्य जाति न बदलेगी तब तक उसकी कठिनाइयों का अन्त न होगा। एक गुत्थी सुलझने न पावेगी तब तक नई गुत्थी पैदा हो जायगी। एक संघर्ष शान्त न होने पावेगा तब तक नया संघर्ष आरम्भ हो जावेगा। न लूटने वाला सुख की नींद सो सकेगा न लुटने वाला चैन से बैठेगा। एक का धनी बनना अनेकों को मन में ईर्ष्या की, डाह की, जलन की आग लगाना है। यह सत्य सूर्य सा प्रकाशवान् है कि एक का धनी होना अनेकों को गरीब रखना है। इस बुराई को रोकने के लिए हमारे पूर्वजों ने अपरिग्रह का स्वेच्छा स्वीकृत शासन स्थापित किया था। आज की दुनिया राज सत्ता द्वारा समाजवादी प्रणाली की स्थापना करने जा रही है।

वस्तुतः जीवन यापन के लिए एक नियत मात्रा में धन की आवश्यकता है। यदि लूट खसोट बन्द हो जाय तो बहुत थोड़े प्रयत्न से मनुष्य अपनी आवश्यक वस्तुएं कमा सकता है। शेष समय में विविध प्रकार की उन्नतियों की साधना की जा सकती है। आत्मा मानव शरीर को धारण करने के लिए जिस लोभ से तैयार होती है, प्रयत्न करती है, उस रस को अनुभव करना उसी दशा में सम्भव है जब धन संचय का बुखार उतर जाय और उस बुखार के साथ साथ जो अन्य अनेकों उपद्रव उठते हैं उनका अन्त हो जाय।

परमात्मा समदर्शी है। वह सब को समान सुविधा देता है। हमें चाहिए कि भौतिक पदार्थों का उतना ही संचय करें जितना उचित रीति से कमाया जा सके और वास्तविक आवश्यकताओं के लिए काफी हो। इससे अधिक सामग्री के संचय की तृष्णा न करें क्योंकि यह तृष्णा ईश्वरीय इच्छा के विपरीत तथा कलह उत्पन्न करने वाली है। आप शायद विश्वास न करें पर सत्य यही है कि परिग्रही से अपरिग्रही अधिक सुखी रहता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118