मनुष्य संसार का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है, इसलिए उसका उत्तरदायित्व भी अन्य प्राणियों की अपेक्षा महान है। अन्य प्राणी आहार, निद्रा, आत्म रक्षा और सन्तानोत्पादन, इन चार कामों में अपने जीवन को व्यतीत कर देते हैं, इसके अतिरिक्त न कोई उनकी इच्छा होती है और न अभिरुचि। पर मनुष्य की स्थिति इससे सर्वथा भिन्न है। वह उपरोक्त चार बातों तक अपने जीवन को सीमित रखकर संतुष्ट नहीं रह सकता। उसकी आत्मा सदा यह पुकारती है कि मानव शरीर परमात्मा का बहुत बड़ा उपहार है और यह उपहार खाने सोने और मर जाने के लिए नहीं मिला है। इसका उपयोग किसी महान्-महत्वपूर्ण-कार्य के लिए होना चाहिए। आत्मा की यह पुकार मनुष्य को बेचैन किये रहती है और उसे इस बात के लिए प्रेरित करती है कि जीवन धन को किसी महान् कार्य में खर्च करें। जब तक आत्मा की इस प्रकार के अनुसार कार्य नहीं करता मनुष्य को आत्म शान्ति उपलब्ध नहीं होती।
आमतौर से महत्वपूर्ण एवं महान कार्य वे कहे जाते हैं जो असाधारण हों, जिनके करने से चारों ओर यश फैल जाय, जैसे काम करना सर्वसाधारण के बस की बात न हो। पर यह विचार ठीक नहीं। ऐसे कार्यों को आश्चर्यजनक, अद्भुत, असाधारण कहा जा सकता है पर महान् कार्यों के लिए यह आवश्यक नहीं कि वे अद्भुत अचम्भे में डालने वाले या असाधारण ही हों। ऐसे अवसर हर आदमी को इच्छा होने पर भी मिल नहीं सकते। यदि सब लोग आश्चर्य जनक, यश, फैलाने वाले कार्यों के इच्छुक हो जावें और वैसे ही काम करने लगें तो एक तो “अतिवाद” बढ़ने से अशान्ति फैलेगी दूसरे जब सभी लोग वैसे काम करने लगेंगे तो उनमें कुछ आश्चर्य भी न रहेगा।
महान कार्य वे हैं जिनमें परमार्थ, लोक कल्याण, जन सेवा प्रधान है। इस प्रकार के कार्यों में ही जीवन का उपयोग होना चाहिए। दूसरों के कष्टों को, दुखों को दूर करने के प्रयत्न में हमें सच्ची शान्ति के दर्शन होते हैं। इस प्रकार के आन्तरिक, शान्ति प्रदान करने वाले कार्यों में जीवन का सद्व्यय हो तो समझना चाहिए कि जन्म सफल हुआ।
संसार में चार प्रकार के दुख हैं 1.-अज्ञान जन्य 2.-नीति जन्य 3.-अभाव जन्य 4.-अशक्ति अन्य। इन चारों में से कम करने की जितनी क्षमता रखता हो, वह उसके लिए प्रयत्न करें। यह प्रयत्न ही महान कार्य है, यही जीवन का सद्व्यय है। हिन्दू धर्म शास्त्रों ने हर व्यक्ति को आदेश किया है कि वह अपनी रुचि और योग्यता के अनुसार इन चारों में से एक दुख को संसार में से कम करने का अपना लक्ष चुनले। क्यों कि एक सिपाही चार मोर्चों पर एक साथ नहीं लड़ सकता। एक मोर्चे पर जमकर ही वह अपनी कुशलता दिखा सकता है इसलिए चारों से एक साथ जूझने की अपेक्षा किसी एक को अपना लक्ष चुन लेने का आदेश किया है।
यह चार लक्ष, चार वर्णों के नाम से प्रसिद्ध हैं। अज्ञान जन्य दुखों से संसार बचाने का प्रयत्न करने वाला ब्राह्मण, अनीति जन्य कष्टों मिटाने के लिए संघर्ष करने वाला क्षत्रिय, अभाव के दुख को दूर करने वाला वैश्य, और अशक्ति की असुविधा को हटाने वाला शूद्र कहलाता है। चारों का काम एक समान महत्व का है। चार मोर्चों पर लड़ने वाले सिपाहियों के कार्यक्रम भिन्न भिन्न होते हैं, योजनाएं अलग अलग होती हैं, हथियार भी आवश्यकतानुसार भिन्न प्रकार के प्रयोग किये जाते हैं। इस प्रकार की भिन्नताएं होते हुए भी वस्तुतः सभी सिपाही एक समान स्थिति रखते हैं। फौज का कप्तान कार्य की पृथकता के कारण उनकी स्थिति में कोई अन्तर नहीं करता। चारों वर्णों का विभाजन कार्य की सुविधा के लिए है। ऊँच नीच का भेद उत्पन्न करना वर्ण व्यवस्था का मन्तव्य नहीं है।
ब्राह्मण अपना जीवन-लक्ष नियत करता है कि मैं अज्ञान के अन्धकार को लोगों के हृदयों में से हटाने में अपना जीवन उत्सर्ग करूंगा। संसार में सबसे अधिक कष्ट अज्ञान के कारण होता है। शोक, चिन्ता, वियोग, हानि, भय, ईर्ष्या, द्वेष, डाह, काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर सरीखे मानसिक विकारों के कारण कलह, क्लेश, बेचैनी, पीड़ा की उत्पत्ति होती है। इन विकारों से ग्रसित व्यक्ति का निजी और सामूहिक जीवन सदैव संत्रस्त बना रहता है। इसी प्रकार दृष्टिकोण का दूषण, भ्रम, अन्धविश्वास, अशिक्षा, अविद्या, आदि के कारण पग-2 पर ठोकर खानी पड़ती है। यदि इन अज्ञानों का निवारण हो जाय और अन्तस्तल में निर्मल ज्ञान का प्रकाश हो, तो साधारण परिस्थितियों में रहने वाला भी स्वर्गीय सुख लूटता हुआ जीवन बिता सकता है। इसके विपरीत असीम सम्पदा होते हुए भी अज्ञानी को चैन नहीं मिलता। ब्राह्मण इस विषम स्थिति को दूर करने के लिए आत्मोत्सर्ग करता है। अपना परम पुनीत धर्म कर्त्तव्य समझकर अहिर्निशि अपने तथा दूसरों के अज्ञान का निवारण करने के लिए प्रयत्न करता रहता है।
क्षत्रिय अपने जीवन को अनीति के कारण उत्पन्न होने वाले कष्टों से संसार को बचाने के लिए प्रतिज्ञा करता है। चोर, ठग, डाकू, लुटेरे, आततायी, जुआरी, व्यसनी, व्यभिचारी, शोषक, हिंसक, अन्यायी, अत्याचारी प्रकृति के लोग अपने स्वार्थ साधन के लिए दूसरों के स्वत्वों का अपहरण करते हैं, उन्हें दबाते, सताते एवं चूसते हैं। अनेकों निर्दोषों को कष्ट सहना पड़ता है। क्षत्रिय इस अवाँछनीय स्थिति का सामना करता है। न्याय की रक्षा के लिए वह हर संभव उपाय काम में लाता है और इस कार्य में यदि प्राण भी जाता हो तो सोचता है-”हतोवा प्राप्यसि स्वर्गं।” आत्म दान की यह भावना क्षत्रिय अपनी आत्म पुकार के अनुसार अपनाता है और प्राण रहते उस पर दृढ़ रहता है।
वैश्य जनता के अभाव जन्य दुखों को मिटाने का प्रण करता है। बीमार आदमी औषधियाँ ढूँढ़ने जंगलों में, पर्वतों में, कैसे जाय? इस असुविधा को पंसारी की दुकान खोलकर वह दूर करता है। चन्द पैसों में दुर्लभ जड़ी बूटियाँ रोगी को मिल जाती हैं। यदि पंसारी की दुकान न होती तो या तो रोगी को प्राणों से हाथ धोना पड़ता या सैकड़ों हजारों रुपये खर्च करके अपने आदमी भेज कर दूर देशों से वे औषधियाँ मंगानी पड़ती, इतने पर भी न जाने कितने दिन लग जाते। इस प्रकार की असुविधाएं, जीवन के हर क्षेत्र में होती हैं। अन्न, दूध, दही, मिठाई, मेवा, फल, कपड़ा, बर्तन, पुस्तक, कागज, घी, तेल नमक आदि दैनिक आवश्यकता की अत्यन्त उपयोगी वस्तुएं थोड़े पैसे देते ही तुरँत मिल जाती हैं। यदि वैश्य न हो तो इन चीजों को जुटाने में समय और शक्ति का इतना खर्च हो कि इस कार्य के अतिरिक्त और कुछ कार्य करना लोगों के लिए कठिन हो जाय। उस कठिनाई में कितना कष्ट उठा ना पड़ेगा इसकी कल्पना से दिल काँप जाता है। ऐसी दशा में संसार की समस्त सभ्यता नष्ट हो जायगी और जंगली पशुओं की तरह रहने के लिए मनुष्य जाति को विवश होना पड़ेगा। वैश्य इस कठिनाई से संसार को उबारता है।
शुद्र शारीरिक श्रम की आवश्यकता को पूरा करता है। शिल्प का समस्त कार्य शारीरिक श्रम की आवश्यकता रखता है। मकान, जेवर, फर्नीचर औजार, बर्तन, जूते, कपड़े आदि का निर्माण करने वाले शिल्पी न हों तो उन महत्व पूर्ण वस्तुओं से जनता को वंचित रहना चाहिए। क्षौर कर्म, वस्त्र धोना, झाडू लगाना, बोझा ढोना तथा अन्य अनेकानेक घरेलू सामाजिक तथा कारखानों का काम पूरा करने वाले कारीगर अपनी शारीरिक श्रम शक्ति से कितना उपकार करते हैं। यदि वे अपने उपकारों से हाथ खींच ले तो मनुष्य जाति को भारी संकट का सामना करना पड़े। इस संकट से जन समाज को शूद्र उबारता है। वह दूसरों की सुख शान्ति के लिए अविरल परिश्रम करता रहता है।
उपरोक्त चारों की काम यज्ञ रूप हैं। जिस भावना से वर्ण व्यवस्था का निर्माण हुआ है उन्हीं भावनाओं को हर वर्ण अपनाये रहे तो वह नियत कार्य क्रम ही आत्मा की पुकार को तृप्त करने वाला महान्-महत्वपूर्ण कार्य बन जाता है और उस कार्य द्वारा अपना निर्वाह तथा दूसरों की सेवा करता हुआ मनुष्य जीवनोद्देश्य को प्राप्त कर सकता है। परमपद तक पहुँच सकता है, सम्भावना युक्त जनता जनार्दन की सेवा का यह वर्ण धर्म महान् योग साधनाओं से किसी प्रकार कम नहीं है।
आज वर्ण धर्म बिगड़कर वर्ण शंकर हो गया है। ‘सेवा का दृष्टिकोण प्रधान और निर्वाह की उजरत गौण’ इस धर्म कर्त्तव्य को छोड़कर हर वर्ण के लोग अपने स्वार्थ को प्रधानता दे रहे हैं और परमार्थ को या तो बिलकुल छोड़ रहे हैं या बहुत ही कम कर रहे हैं। यही वर्ण शंकर है। हम देखते हैं कि आज ब्राह्मण दक्षिणा एवं निमन्त्रण के लोभ में अज्ञान फैलाने, ठगने और दीनतापूर्वक याचना में लगे हैं। क्षत्रिय मद्य,माँस व्यभिचार अहंकर और अत्याचार में डूबे रहे हैं। वैश्य नकली, मिलावटी, खराबी, हानिकारक चीजें, अनुचित मुनाफे के साथ भेड़कर ग्राहकों की जेब काट रहे हैं। शूद्र खराब, अधूरा, कम श्रम करके अपनी प्रतिष्ठा को बट्टा लगा रहे हैं। इस प्रकार वर्ण धर्म सन्निहित परम पुनीत परमार्थ का स्थान घोर स्वार्थपरता ने ग्रहण कर लिया है। आज वर्ण शँकरत्व को अपनाकर हम अधः पतन की ओर दौड़े जा रहें हैं।
सच्चे वर्ण धर्म की स्थापना से ही समाज में चतुर्मुखी शान्ति रह सकती है। सद् प्रवृत्ति के साथ किया हुआ नियत कर्म पेशा-ही मोक्ष दायक बन सकता है। आइए, सच्चे वर्ण धर्म की पुनः स्थापना के लिए हम और आप मिलकर कुछ प्रयत्न करें। शुभ प्रयत्न का परिणाम भी शुभ ही होता है।