विचार स्वातंत्र्य का उत्तरदायित्व

May 1947

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(श्री डी. आर. कटारहा बी. ए. दमोह)

यद्यपि यह सच है कि स्वयं विचार करने की योग्यता हमें सत्य तत्व के दर्शन कराने में समर्थ है किन्तु शोक की बात है कि आज का मानव संकीर्ण हृदय शासकों और नेताओं के पक्षों में फँसकर अपने इस जन्मसिद्ध अधिकार का उपभोग नहीं कर पाता। एक सहस्र वर्ष पहिले पाश्चात्य देशों में तो मनुष्यों को बँधी हुई विचार प्रणालियों पर ही चलना पड़ता था। पृथ्वी को गोल कहने के अपराध में गैलीलियो को जेल में सड़ना पड़ा और “फ्राँस देश फ्राँस देश वासियों के लिये” का नारा लगाने पर जोन आफ आर्क जीते जी अग्नि में जला दी गई। यूरोप ने इस तरह सहस्रों वर्ष रोमन पादरियों के चंगुल में फँसकर, अंध विश्वास रूपी अँधेरी रात्रि में बिताए। किन्तु साधारण जन समुदाय ने तब स्वतन्त्रता की साँस ली जब मार्टिन लूथर ने रोम के पोपों को चुनौती दी, प्रोटेस्टेंट मत बड़े धूमधाम से निकाला। समाज की स्वतन्त्र विचारधारा अनेक धाराओं में से होकर तर निकली और यूरोप में ज्ञान विज्ञान तथा साहित्य आदि की खूब वृद्धि हुई। आज वही यूरोप भौतिक विद्याओं के उच्चतम शिखर पर चढ़ा हुआ नजर आ रहा है। किन्तु फिर भी हम देखते हैं कि यूरोप में शान्ति नहीं है। धार्मिक संकीर्णता के स्थान पर आज वहाँ राजनीतिक संकीर्णता विद्यमान है। भारतवर्ष में भी काँग्रेस और कम्यूनिस्टों में नहीं पटती और न लीग और काँग्रेस ही आपस में आसानी से समझौता करती दीखती हैं। इसके सम्बन्ध में यही कहना उचित जान पड़ता है कि परस्पर मतभेद होते हुए भी उदार भाव विरोधी दल की विचार प्रणालियों के प्रति सहिष्णु बनने तथा सम्मान करने में ही सब दलों की शोभा है। यदि हमारे अथवा किसी राष्ट्र के लोग अपने देशवासियों की विभिन्न धार्मिक अथवा राजनीतिक विचार-धाराओं को सहन कर उनसे सहानुभूति नहीं रख सकते तो उस राष्ट्र के लोगों में नाजियों और फसिस्टों जैसी क्रूरता और कट्टरता आ जावेगी। वह राष्ट्र विभिन्न तथा परस्पर विपरीत विचार-धाराओं को न पनपने देगा और इस तरह ऐसे राष्ट्र का शासन-वर्ग अपनी भूलों को सुझाने वाला कोई प्रतिद्वन्द्वी न पाकर निरंकुश हो जावेगा। ऐसी दशा में पता चलेगा कि उस राष्ट्र की नीति में जर्मन राष्ट्र के ही समान घोर पतन के अंकुर विद्यमान हैं। इस तरह हम देखते हैं कि यदि कोई राष्ट्र एक ही विचार-प्रणाली को लेकर बढ़ना चाहता है अथवा साम्प्रदायिकता के नाम पर खड़ा होना चाहता है तो वह प्रगतिशील नहीं कहा जा सकता। असहिष्णु, अनुदार और अत्याचारी शासन होगा वह एक निरंकुश शासक की तरह एक ही विचार धारा सब पर लादना चाहेगा। उसमें भिन्न विचार प्रणाली वालों के लिए कोई स्थान ही न होगा, यहाँ तक कि वह अपने ही अनुयायियों की थोड़ी सी भी मत भिन्नता सहन नहीं कर सकेगा। ऐसा राष्ट्र संकीर्णता को लेकर खड़ा होता है, वह एक ही विचार-प्रणाली पर लोगों को चलने के लिये बाध्य करता है और तब भिन्न विचार वाले व्यक्तियों की वही गति होने की संभावना है जो कि मंसूरी की हुई थी।

हम देख चुके हैं कि जहाँ विचार-स्वातन्त्र्य हमारी जन्म सिद्धि स्वतन्त्रता का एक आवश्यक अवयव है वहाँ वह नाना प्रकार की विचार प्रणालियों को जन्म देखकर संघर्ष का भी कारण है। एक सहस्र वर्ष पूर्व का यूरोप, भले ही अँधविश्वास में पड़कर अपने दिन काट रहा था किन्तु उस समय उसके जीवन में इतना विचार-संघर्ष न था जितना कि आज। उस समय एक ही पोप के धर्म-शासन में सारा यूरोप बजू करता था, उसकी व्यवस्था सब जगह मानी जाती थी और कोई विशेष सैद्धान्तिक गड़बड़ी न थी किन्तु जिस दिन से पोप की सत्ता सर्वमान्य न रही उस दिन से लोग अपने अपने मन के होने लगे और अपने अपने सिद्धान्त कायम करने लगे। इसका यह अर्थ नहीं कि पोप का वह धर्म शासन अच्छा था किन्तु इतना लिखने का प्रयोजन यही है कि उसके एकान्त शासन के कारण सिद्धान्तों में एकता थी और व्यवस्था में विशेष कोई गड़बड़ी न थी। अतएव हम देखते हैं कि जहाँ हमें विचार-स्वातन्त्र्य की आवश्यकता है वहाँ हमें सैद्धाँतिक एकता की भी है, और तभी हम अपने मन में संतुलन प्राप्त कर सुख और शाँति-पूर्वक रह सकेंगे। किन्तु हम पहले ही देख चुके हैं कि हम सभी प्रश्नों पर तथा विश्वासों के सम्बन्ध में एक मत नहीं हो सकते। हम सामाजिक प्राणी हैं अतएव हमें सभी बातों के सम्बन्ध में एक मत होने की उतनी अधिक आवश्यकता नहीं जितनी कि उन प्रश्नों पर जिनका कि हमारे सामूहिक जीवन से अत्यन्त निकटस्थ सम्बन्ध है। हम भजन के लिए अकेले एक आसन पर और भोजन के लिए सब को साथ लेकर बैठना पसन्द करते हैं। भजन के लिए अकेले एक आसन पर बैठने की इच्छा जहाँ हमें आध्यात्मिक मामलों के सोच विचार में स्वतंत्रता प्रदान करती है वहां भोजन के लिए एक साथ बैठने की इच्छा हमारे लिए यह आवश्यकता प्रकट करती है कि हम उन सब मामलों में एकमत होकर रहें जिनका कि हमारे सामाजिक जीवन से संबंध है। इसका यह अर्थ है हमारी संस्कृति हमें यह आदेश देती है कि हम सामाजिक तथा राजनीतिक आदि मामलों में एक सूत्र में बँधकर कार्य करें। “मुँडे मुँडे मतिर्मना होने के कारण हमारा समाजिक या राष्ट्रीय जीवन पंगु व विच्छृंखल न होने पावे अन्यथा हम संगठित रूप में कोई कार्य न कर सकेंगे। हमें स्मरण रखना चाहिये कि यदि हम विचार स्वातंत्र्य के अधिकार का उपभोग करना चाहते हैं तो हमें साथ साथ अपना यह कर्त्तव्य भी स्वीकार करना होगा कि हम संगठित जीवन व्यतीत करें और एकता के सूत्र में बँधकर रहें। यह सच है कि विचारों की भिन्नता हमें भिन्न-भिन्न मार्गों पर चलाने का प्रयत्न करती है किन्तु हमें प्रयत्न करके अपनी परस्पर विरोधी विचारधाराओं के भीतर एक चिरन्तन सत्य की खोज करनी होगी जहाँ समस्त विभिन्नताएं समन्वित होकर विलीन हो जाती हैं। सत्य एक है और वही समस्त विरोधाभासों का अनन्य समन्वय कहा जाता है। इसी अनेकता में एकता और विभक्तों में अविभक्त (अविभक्त विभक्तेषु) को ढूंढ़ना ही हमारा परम कर्त्तव्य होगा अन्यथा हमारा यह अधिकार हमें उसी तरह नष्ट कर देगा जैसा कि अबोध बच्चे के हाथ में तलवार। अतएव हम जितनी अधिक स्वतंत्रता भोगना चाहते हैं उतना ही अधिक कर्त्तव्य हमारा इस एकता को प्राप्त करने के लिये हो जाता है। हिन्दू जाति ने इस स्वातन्त्र्य के उपभोग के साथ साथ अपना भी कुछ उत्तरदायित्व है यह न समझा। जिस तरह कि आज अँग्रेज जैसी राष्ट्र भक्त जाति इँग्लैंड के नाम पर सहर्ष आत्मोत्सर्ग करने के लिये तैयार हो जाती है वैसे ही इसने किसी एक नाम या काम पर एक झंडे के नीचे एकत्रित होना न सीखा। इस भूल का परिणाम यह हुआ कि उसमें फूट हो गई और इसका मूल्य हमें स्वतन्त्रता रूपी रत्न को खोकर चुकाना पड़ा। आज हम प्रत्यक्ष ही देख रहे हैं कि हिन्दू जाति विच्छृंखल है और पराधीनता की बेड़ियों में जकड़ी हुई सांसें भर रही है। वह न तो राम के नाम पर संगठित होकर खड़ी हो सकती है और न कृष्ण के नाम पर। वह तो एक ऐसे जहाज के समान है जो कि एक भयंकर समुद्री तूफान से आक्राँत है और जिसके अनेकों बालक उसे भिन्न-2 दिशाओं में खेकर ले जाने का प्रयत्न कर रहे हैं। इस स्थिति से बचना है तो हमें नये सिरे से अपनी हर समस्या पर विचार करना सीखना होगा।


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