मनोविकारों में “दुराव” अपने ढंग का अनोखा है। इसकी भयंकरता बड़ी विकट है। काम, क्रोध, लोभ, शोक, चिन्ता, भय आदि विकार तो तूफान, बाढ़, बवंडर की तरह आते हैं और कुछ देर बाद शान्त होने पर उनका कोई चिन्ह बाकी नहीं रहता। उनका दौरा कभी कभी होता है सो भी थोड़े समय के लिए, उतने ही समय में उनसे जो कुछ हानि होनी होती है वह हो जाती है। पर ‘दुराव’ एक ऐसा विकार है जो हर घड़ी, रात दिन, सोते जागते साथ रहता है और हर घड़ी हानि पहुँचाता रहता है।
डॉक्टर फ्रायड, ब्रेवोर्न, राइली, प्रभृति मनोविज्ञान शास्त्र के आचार्य अपनी चिरकालीन शोधों के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि अधिकाँश मानसिक रोग दुराव की महाव्याधि के कारण होते हैं। मनुष्य कोई इच्छा या अभिलाषा करता है, भविष्य की कोई सुन्दर कल्पना करता है, पर संकोच के कारण उसे मन में ही रखता है किसी पर प्रकट नहीं करता, उसे भय होता है कि जिस पर अपनी कल्पना प्रकट करूंगा वे मेरा मजाक बनावेंगे, तिरस्कार करेंगे, दूसरों के सामने चर्चा करके मूर्ख ठहरावेंगे। इसी प्रकार मन में कभी-कभी जो आशंकाएं, चिन्ताएं, वेदनाएं, पीड़ाएं उठा करती हैं उन्हें भी मनुष्य दूसरों से नहीं कहता। वह सोचता है अपने मनोभाव जिस पर प्रकट करूंगा वह मुझे डरपोक, कायर, कमजोर, दुखी समझेगा। इसमें मेरी हेठी होगी। यह सोचकर वह इन भावनाओं को मन में छिपाये रहता है किसी पर प्रकट नहीं करता। काम वासना का विषय अश्लील और गोपनीय समझा जाता है, सामाजिक और धार्मिक प्रतिबन्ध भी इस दिशा में बहुत हैं। किसी अवैध दिशा में यदि मन चलता है तो उसे छिपाये रहने में ही भलाई समझी जाती है। किसी पर उन भावों के प्रकट करते ही प्रतिष्ठा नष्ट होती है। इसलिए उन इच्छाओं को मन में दबाकर रखना ही ठीक मालूम होता है। यदि किसी ने कोई पाप किया है, चोरी, लूट, हत्या, डकैती, विश्वासघात, ठगी, व्यभिचार सरीखा कोई दुष्ट कर्म किया है, तब तो उसका प्रकट करना भारी जोखिम का काम है। जिससे कहा जाय वह अपने को सन्देह की दृष्टि से देखेगा अविश्वास करेगा, और यदि भेद खुल गया तो राजदंड का भागी होना पड़ेगा तथा जिसे हानि पहुँचाई थी उसकी प्रत्यक्ष शत्रुता का, प्रतिहिंसा का मुकाबला करना पड़ेगा। इतने खतरे उठाने की अपेक्षा यही ठीक समझा जाता है कि उन बातों को किसी पर भी प्रकट न किया जाय, मन में ही छिपाकर रखा जाय। ईर्ष्या, द्वेष, शत्रुता, प्रतिहिंसा के भावों को भी मनुष्य मन में छिपाये रहता है, किसी को ठगना हो, नीचा दिखाना हो, आक्रमण करना हो तो उन भावी योजनाओं को छिपाकर रखा जाता है। “मन में कुछ मुख में कुछ” की कहावत को चरितार्थ करते हुए कितने ही व्यक्ति देखे जाते हैं। वे वास्तव में जैसे हैं, वास्तव में जैसे विचार रखते हैं, उससे भिन्न अपना रूप दूसरों के सामने प्रकट करना चाहते हैं इसलिए अपनी वास्तविकता के प्रतिकूल बातें कहते और वेश बनाते हैं।
इस प्रकार के दुराव के कारण उनके अंतःकरण में दो व्यक्तित्व निवास करने लगते हैं अर्थात् एक मनुष्य के अन्दर दो मनुष्य धँस जाते हैं। एक वह जो वास्तविक, दोषयुक्त, पापी, अपराधी या मूर्ख ठहराये जाने के भय से भीतर छिपा बैठा है। दूसरा वह जो मायाचार से अपनी बाह्य प्रतिष्ठा बनाए बैठा है। दोनों एक दूसरे से प्रतिकूल होते हैं। फिर भी एक ही घर में रहते हैं। जैसे एक म्यान में दो तलवारें ठीक तरह नहीं ठुसती उसी प्रकार यह दो व्यक्तित्व भी आपस में सहयोग पूर्वक नहीं रह पाते। भीतर ही भीतर दोनों में संघर्ष होता रहता है। जिससे आत्मा में एक अशान्ति बनी रहती है, बेचैनी उठती रहती है।
मनुष्य को ठीक ठीक पता नहीं चलता कि इस बेचैनी का कारण क्या है, तो भी वह यह देखता है कि उसे चैन नहीं, भीतरी संघर्ष कभी कभी तो इतने प्रबल हो जाते हैं कि रात को अच्छी तरह नींद भी नहीं आ पाती।
स्वप्नों की दुनिया का निर्माण इन दो व्यक्तित्वों के द्वन्द्व के कारण होता है, जिस व्यक्तित्व को जागृत अवस्था में दबा दबा कर रखा गया था, वह नींद आ जाने पर उठता है और मस्तिष्क में कुलांचे भरता है। मस्तिष्क के भीतरी मंत्रों के ऊपर वह चूहे की तरह उछलता कूदता फिरता है, उन्हें काटता कुतरता है फलस्वरूप विविध प्रकार आघात लगने से विचित्र विचित्र अनियंत्रित तरंगें मनःलोक में उठती हैं, यही तरंगें बेसिर पैर के विविध स्वप्नों के रूप में सामने आती हैं। अधिक स्वप्न उन्हें ही आते हैं जिनके अन्दर दो व्यक्तित्व निवास करते हैं।
कहते हैं कि जिसकी देह में भूत पिशाच घुस जाता है उसे एक प्रकार का आवेश चढ़ आता है। साँप का विष या पागल कुत्ते का विष शरीर में घुस जाय तो भी कुछ विचित्र दशा हो जाती है, दो व्यक्तित्वों का एक देह में रहना मनुष्य की शारीरिक और मानसिक स्वस्थता को भीतर ही भीतर चौपट करता रहता है।
मनोविज्ञान शास्त्र भी इसी निष्कर्ष पर पहुँचा है। उसका कथन है कि दुराव के कारण ही अधिकाँश शारीरिक तथा मानसिक रोग उत्पन्न होते हैं। नासूर, भगंदर, दमा, बवासीर, संग्रहणी सरीखे चिरस्थायी रोग गोपनीय मनोवृत्ति के कारण होते हैं। खुजली का प्रधान कारण ‘दुराव’ है। उसी के कारण रक्त में चिड़चिड़ाने वाले क्षार बढ़ते हैं। स्त्रियों को हिस्टेरिया के, मृगी के दौरे संतान सम्बन्धी अतृप्त इच्छा के कारण आते हैं। प्रायः सभी किस्म के पागलपन का प्रधान हेतु ‘दुराव’ है। कब्ज, मूत्राशय की शिथिलता और यकृत की शुष्कता भी इसी कारण होती है। इस प्रकार के लोगों को नींद कम आती है और थकान बनी रहती है। दबी हुई, कुचली, हुई अतृप्त कामेच्छा तथा अन्य भावनाएं एक प्रकार की ग्रन्थियों के रूप में परिणित होकर अंतर्मन में धंस जाती हैं। जैसे माँस के भीतर एक लोहे की पिन धंस जाय तो वह जब तक निकल नहीं जाती, घाव बना रहता है और दर्द होता रहता है वैसे दी दुराव की ग्रन्थियाँ मनःक्षेत्र में धँसी रहती है। और वहाँ से विष भरी फुसकारें छोड़ छोड़कर शरीर तथा मन को विषैला, रोगी, जीर्ण शीर्ण करती रहती हैं।
यह ग्रन्थियाँ जिस कारण को लेकर उत्पन्न होती हैं इससे मिलते जुलते रोगों की सृष्टि करती हैं। धनवान् मनुष्य अपने धन की तादाद, उसके रखने का स्थान आदि छिपाये रहते हैं, इस निरन्तर दुराव की ग्रन्थियाँ वीर्य कोण को निःशक्त कर देती हैं। फल स्वरूप उन्हें संतान नहीं होती। जहाँ फूँस के झोंपड़ों में सोने वाले मजूर दर्जनों बच्चे जनते जाते हैं वह अमीर लोग संतान के लिए तरसते हैं। ऐसे असंख्यों शारीरिक और मानसिक रोग हैं जिनका निदान, और निवारण करने में बड़े से बड़े डॉक्टर हतबुद्धि हो जाते हैं। शरीर के सब कलपुर्जे ठीक काम कर रहे हैं पर रोगी के प्राणों पर बीतती है। डॉक्टर लोग हैरत में रह जाते हैं कि यह सब क्या है? उसका उपचार क्या है करें? ऐसे लोगों को कई बार भूत व्याधा, कर्म रोग कहकर छोड़ दिया जाता है।
मनःशास्त्र के तत्वज्ञों ने एक नई चिकित्सा विधि निकाली है। वे रोगी को एकान्त में ले जाते हैं और उससे भूतकाल की स्मृतियों को सविस्तार कहने का अनुरोध करते हैं। जो भूलें या गलतियां उससे हुई हैं, जो इच्छाएं, अभिलाषाएं, कल्पनाएं, आयोजनाएं उसने कभी बनाई हैं जो अपमान, तिरस्कार, असफलता, निराशा, विछोह, विश्वासघात आदि के आघात लगे हों तथा भविष्य के लिए वह जो जो बातें सोचा करता हो उन सब बातों को बिना राई रत्ती छिपाये कहदे, इस बात पर वे डॉक्टर उस रोगी से विशेष आग्रह करते हैं। उसकी निरर्थक बातों को भी बड़े ध्यान से सुनते हैं और रोगी जो कुछ कहने में भूल रहा हो उसे प्रश्न पूछ पूछ कर उखड़वाते हैं। डॉक्टर उस रोगी को पूरा विश्वास दिला देते हैं कि उसकी एक भी गुप्त बात किसी दूसरे पर प्रकट न करेंगे। रोगी से लगातार कई कई घन्टे, कई दिन तक उसका पूर्व वृत्तान्त पूछा जाता है और उसकी मनोभूमि को जोत जोतकर वे सब बातें उगलवा ली जाती हैं जो बहुत समय से छिपी पड़ी थीं। रोगी को स्वयं भी यही पता नहीं होता कि कब किस बात के कारण कौन ग्रन्थि उसके मन में बन गई थी, और उसके कारण क्या-2 अनिष्ट हुए। डॉक्टर भी इसका ठीक-ठीक विश्लेषण कम ही कर पाते हैं। इतना होते हुए भी उस-”गोच्य प्रकाशन-वार्तालाप” द्वारा वे ग्रन्थियाँ खुल जाती हैं। रोगी का मन हलका हो जाता है। साथ ही वे मानसिक द्वन्द्व भी मिट जाते हैं जिनके कारण रोगी बाहर से ठीक दीखते हुए भी भीतर ही भीतर खोखला हुआ जा रहा था और चुपके चुपके मृत्यु के मुख की ओर बड़ी तेजी से सरक रहा था। इस चिकित्सा विधि का पाश्चात्य देशों में आश्चर्यजनक परिणाम निकल रहा है। सहस्रों कष्टसाध्य और असाध्य-शारीरिक एवं मानसिक रोगियों की व्यथाओं का सफलता पूर्वक निर्मूल किया जा रहा है।
यह नवीन शोधें भारतीय योगियों के अकाट्य आध्यात्मिक विषयों का समर्थन करती हैं। योग शास्त्र मन की निष्कपटता पर अत्यधिक जोर देता है और उसे आत्मोन्नति का प्रथम साधन बताता है। महात्मा ईसा मसीह कहा करते थे-”जिन का हृदय बालकों की तरह पवित्र है वे ही ईश्वरीय राज्य में प्रवेश करेंगे।” दुराव से जितना ही बचा जायगा उतना ही मनःक्षेत्र शुद्ध रहेगा। पाप के संस्कार भी दुराव के कारण ही बनते हैं। जो चोरी सबके सामने प्रकट रूप से की जाय वह चोरी नहीं होती। अपनी स्त्री के हाथ काम सम्बन्ध होना सर्वविदित है इसलिए वह व्यभिचारिन् नहीं कहा जाता। इशियल जाति में यह मान्यता है कि पुरुष अपनी स्त्री की सहमति से किसी दूसरी स्त्री से व्यभिचार करे तो पाप नहीं इसी प्रकार स्त्री अपने पति की सहमति से किसी दूसरे पुरुष से समागम करें तो उसमें दोष नहीं। इस मत की पुष्टि में इशियल धर्मशास्त्र की दलील यह है कि जहाँ दुराव नहीं, वहाँ पाप नहीं। भारतीय धर्म शास्त्रों में सत्य को सब पापों का नाश करने वाला कहा है।
आन्तरिक स्वस्थता के लिए, आत्मिक स्वच्छता के लिए, यह आवश्यकता है कि हम दुराव से बचकर निष्कपटता की नीति को अपनावें। स्वच्छ हृदय में परमात्मा का साक्षात निवास होता है। इस महा साधना का आरम्भ किन्हीं पूर्ण विश्वासी, परखे हुए, उच्च चरित्र वाले, उदारमना मित्रों से आरम्भ किया जा सकता है। कुछ ऐसे सच्चे मित्र चुनने चाहिएं जिनके सामने अपने पेट की बातें उसी रूप में कही जा सकें जिस रूप में कि अपने मन में आती हैं। इस प्रकार “गोय्य प्रकाशन वार्तालाप” द्वारा मन हलका होता रहता है, दुराव-ग्रन्थियों की गाँठ खुलती रहती है और मनोविज्ञान के डॉक्टरों को भारी फीस देने पर जो लाभ मिलते हैं वह अपने आप मिलने लगते हैं। यहाँ एक बात ध्यान रखने की आवश्यकता है कि यह सच्चे मित्र उदार अवश्य हों कि थोड़ा विरोध होने पर उन बातों को अधिकारियों में फैलाकर कोई संकट उपस्थित न करा दें।
कहते हैं कि “पाप को प्रकट कर देने पर उसका भार उतर जाता है।” जैसे गौ हत्या करने का प्रायश्चित यह बताया गया है कि अपने पाप की घोषणा करता हुआ मनुष्य एक सौ ग्रामों में फिरे और फिर गंगा स्नान करें। मन की भेद ग्रन्थि खोल देने से एक प्रकार का मानसिक जुलाब खोल देने से एक प्रकार का मानसिक जुलाब हो जाता है, जिससे मनःक्षेत्र में जमे हुए पुराने विष धुल जाते हैं।
इस मार्ग पर धीरे धीरे आत्मविकास के क्रमानुसार कदम बढ़ाना चाहिए । साधारण स्थिति वाले लोग यदि एकदम अपना नग्न स्वरूप सर्वसाधारण पर प्रकट करते हैं तो उन्हें अपनी सामाजिक स्थिति बिगड़ जाने का भय रहता है। इस लिए आरम्भ थोड़े से करना चाहिए। दृढ़ चरित्र वाले विश्वासी मित्रों पर, अपने सभी भले बुरे मनोभाव प्रकट करने आरम्भ करने चाहिए। उन मित्र का कर्तव्य है कि मित्र की कमजोरी समझकर सहन करें। दुर्भाव मन में न लावें, और मृदुल, सहानुभूति सृजक भावनाओं के साथ मित्र की भूलों को सुधारने का प्रयत्न करते हुए उसे आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करे। यह व्यवस्था बन जाने पर हर व्यक्ति अपनी आध्यात्मिक शान्ति एवं उन्नति का पथ प्रशस्त कर सकता है।
हमें हर्ष है कि “अखण्ड-ज्योति” परिवार के कितने ही सदस्यों ने “अखण्ड-ज्योति” सम्पादक को ऐसा विष नियुक्त किया हुआ है। इस नियुक्ति से उन्हें थोड़े ही दिनों में जो लाभ हुए हैं, उसका वर्णन करना न तो उचित ही है न आवश्यक ही। पर उससे “गोच्य प्रकाशन” के महान लाभों का आश्चर्यजनक प्रमाण अवश्य प्राप्त होता है और यह विश्वास हो जाता है कि इस छोटी, सरल एवं सीधी साधना द्वारा जो लाभ होते हैं उन्हें अपने ढंग का अद्भुत ही कहा जा सकता है।