पतिव्रत या गुलामी?

May 1947

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(श्रीमती रत्नेशकुमारीजी नीराँजना, मैनपुरी स्टेट)

पतिव्रत के सम्बन्ध में भारतीय नारी-समाज के दो मत हैं-एक मत वालीं तो आर्य-संस्कृति को मानने वाली हैं; श्रद्धा तथा अटल विश्वास के साथ इसे अपना अनिवार्य कर्त्तव्य मानती हैं और ऋषियों के प्रति कृतज्ञता हृदय में रखतीं तथा अवसर होने पर प्रकट भी करती हैं कि उनकी आत्मिक उन्नति के हेतु इतना सुगम साधन बता गये। दूसरे मत वाली वे है जो इसे गुलामी मानती हैं, उनका विश्वास है कि पुरुष-जाति ने अपने स्वार्थ-साधन हित ही इस धर्म का सृजन किया है, मनमाना दुर्व्यवहार तथा निर्विरोध शासन करने के हेतु।

मैं दोनों दल वालियों के कथन में थोड़ी-बहुत सचाई की झलक पाती हूँ। दोनों के ही तर्कों तथा तथ्यों को किसी न किसी अंश में वास्तविक मानती हूँ। मेरे विचार से पतिव्रत धर्म में और गुलामी में उतना ही अन्तर है जितना दासत्व तथा स्वेच्छा सहित की हुई सेवा में रहता है। इस अन्तर को बहुत अधिक भी कह सकते हैं और बहुत कम भी। आप स्वयं विचार देखें।

किन्तु मैं इनकी दो ही श्रेणियाँ नहीं रखती हूँ एक और भी जोड़ देती हूँ। प्रथम स्वयंसेवक, द्वितीय नौकर और तृतीय गुलाम। इनकी परिभाषायें मेरे मतानुसार इस प्रकार हैं-जो सेवा करने के विवश हैं मन के विद्रोही होने पर भी जिसे किसी कारणवश सेवा करनी ही पड़ती है। वह दास है। जो जहाँ पर अधिक सुख सुविधा, आराम अरायश मिले वहीं सेवा करने को सारे हृदय से प्रस्तुत है वह नौकर है, और जो सेवा को अपना अनिवार्य कर्त्तव्य अर्थात् धर्म मानकर निष्काम भाव से, फलेच्छा त्याग कर करता है। वह स्वयंसेवक है, उसी की सेवा आदर्श और वही सच्चा सेवक श्रद्धेय है। उसकी प्रशंसा के लिये जो कुछ कहा जाये, उसके सम्मान हेतु जो कुछ किया जाये, वह सब थोड़ा ही है। ये परिभाषा स्त्रियों के लिये भी मैं मानती हूँ।

स्त्रियों को गुलाम इसी कारण कहा जा सकता है कि बहुत ही कम ऐसी स्त्रियाँ भारतवर्ष में होंगी जो पुरुषों की सहायता के बिना ही अपनी रक्षा तथा जीविका उपार्जन कर सकें। जो कि अपने पैरों आप खड़ी न हो सकें, जो दूसरों से अपने जीवन-निर्वाह तथा अपनी रक्षा के हेतु सहायता माँगने के विवश हैं, इसी कारण जिनको भर्त्सना, लाँछना और भाँति-भाँति के कटु व्यवहार आदि मन मारकर सहन करने ही पड़ते हैं, उनको दासी कहना ही पड़ता है। ऐसी नारियों को दुर्भाग्यवश यदि अपना सर्वश्रेष्ठ आश्रय पति को खोना पड़ा तो उनका जीवन बहुत ही असह्य और दयनीय हो जाता है। कभी-2 आत्महत्या तक बेचारी कर लेती हैं।

दूसरी श्रेणी में वे हैं जिन्हें दुर्भाग्यवश धनवान पति नहीं मिलता है, जो उनकी फरमाइश को मुँह से निकलते ही पूरा कर सके तो वे अपना जीवन नीरस मानती हैं और अपने भाग्य को धिक्कारा करती हैं, दूसरों की शृंगार सामग्री देख-2 कर कुढ़ा करती हैं, पति को उल्टा सीधा कहा करती हैं। रोती हैं, सुकुमार शिशुओं को मारती-पीटती, झटकती-पटकती हैं। कहती हैं-हाय मेरे भाग्य में यही घर बदा था, एक दिन के लिए भी चैन नहीं। अमुक स्त्री के पास कितना गहना-कपड़ा है, वही भाग्यवान् है। मुँह से निकालने भर की देर रहती है, बस फौरन वही चीज हाजिर। एक मैं हूँ दिन रात काम में ही लगी रहती हूँ, पर कभी भी दो-चार बार कहने पर भी एक चीज मुश्किल से मिलती है। बस ऐसी ही स्त्रियों को ‘नौकरानी’ कहने के लिए विवश हूँ।

जो महिलाएं अपना कर्त्तव्य मानकर पति सेवा करती हैं, प्रतिदान की कामना नहीं रखतीं, फिर भी पति स्वेच्छापूर्वक जो कुछ भी देता है, उसको प्रसन्नता पूर्वक लेती हैं न तो उलाहना ही देती हैं और न पति की निन्दा ही करती हैं सेवा में ही जिनको आनन्द मिलता है, वे ही पतिव्रता हैं। वे ही गृह को शोभायुक्त बनाने वाली, पृथ्वी पर ही स्वर्ग बनाने वाली गृह लक्ष्मी हैं।


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