सच्चा धर्म क्या है?

May 1947

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(ले.-कुमारी प्रेमलता जैन, मुजफ्फर नगर)

उन उलझे हुये प्रश्नों में से जो मानव को आज चारों ओर से घेरे हैं, एक प्रश्न यह भी है कि संसार में सच्चे धर्म की परिभाषा क्या है? अथवा यों कहिए कि कौन सा धर्म सच्चा है?

मेरे विचार में धर्म की सचाई की खोज करना अज्ञानता का द्योतक है। “धर्म तो स्वयं एक सत्य है।” जहाँ सत्य है वहीं धर्म है। इस दृष्टिकोण से विश्व के समस्त धर्म सच्चे और पूज्यनीय हैं। चाहे वह क्रिश्चियन मत हो, चाहे हिन्दू, चाहे इस्लाम, चाहे बौद्ध अथवा जैन, समस्त धर्मों का आधार एक है, समस्त धर्मों का ध्येय अथवा उद्देश्य एक है, अन्तर है केवल साधन में तथा मार्ग में। इस दृष्टिकोण से विरुद्ध धर्मावलम्बी जातियों का परस्पर लड़ना आदि देखकर अत्यधिक श्रद्धा होती है। पाश्चात्य सभ्यता के विस्तार ने मानव की बुद्धि शक्तियों का भी हरण कर लिया है तभी हम धर्मों की सचाई के निर्माण में भूल करते हैं।

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अंग्रेजों में यदि वह न्यूनता है, कि वे भौतिक उन्नति के पीछे हाथ धोकर पड़े हैं, तो वह उनके व्यक्तिगत लाभ का कारण है, न कि उनके ईसा उन्हें ऐसा करने का उपदेश दे गये थे, मुसलमानों की कठोरता एवं निर्दयता उनके खान पान का प्रभाव है न कि इसलिये कि मुहम्मद साहब उन्हें निर्दय होना धर्म का पालन स्वरूप बना गये थे और इसी प्रकार हिंदुओं के ढोंग उनकी संकीर्णता एवं अज्ञानता का फल है न कि कृष्ण अथवा राम अथवा बुद्ध अथवा महावीर स्वामी उन्हें इस प्रकार का उपदेश दे गये थे। सभी धर्म प्रचारकों का एक मत है-”अहिंसा, सत्य, परोपकार, शील एवं मृदुवाणी यह धर्म के पाँच मूल मंत्र हैं।”

इस प्रकार हम देखते हैं कि समस्त धर्मों का आधार एक है, केवल उनके बाह्य स्वरूप में थोड़ा अन्तर है। परन्तु केवल बाह्य अन्तर पर ही दृष्टिपात करते हुए हमें धर्मों की उपेक्षा न करनी चाहिये। मन्दिर के सम्मुख जाते जिस प्रकार हम नतमस्तक हो जाते हैं, उसी प्रकार मस्जिद अथवा गिरजाघर के सामने भी हमें श्रद्धा से मस्तक झुका देना चाहिए। क्या मन्दिरों के ईंट पत्थर गिरजाघर और मस्जिद के कंकड़ पत्थर से भिन्न हैं? अथवा क्या उन सभी पावन स्थानों के कण कण में उन महान् आत्माओं की मधुर वाणी एक स्वर से नहीं गूँज रही है? क्या वे महान् आत्मायें धर्म के अन्तर के कारण मानव में भी अन्तर करते थे।

वे तो थे मानव धर्म के अनुयायी। जिसे हम अपनी अज्ञानता के कारण श्रृँखलाओं में विभक्त कर लेते हैं और फिर उनकी भी उप-शृंखलायें कर लेते हैं। यह तो मानव का कर्त्तव्य नहीं है और मनुष्य के अपरिमित ज्ञान की यही चरम सीमा है, कि वह धर्म के सत्य स्वरूप को हृदय प्रदेश में न खोजकर विश्व प्रदेश में पाने की चेष्टा करता है?

श्री रामकृष्ण परमहँस ने एक स्थान पर कहा हैं :- “जो मनुष्य की विकार रहित आत्माओं को ईश्वरत्व में परिणित कर देता है, जीव के चिरानन्द में विलीन हो जाने का मार्ग बताता है- वही है सच्चा धर्म और वही है सत्य का नग्न स्वरूप-इसके आगे कहीं कुछ नहीं है।”

इस प्रकार यदि हम अपने हृदय की पवित्रतम भावनाओं को एकाग्र कर उसे परम प्रभु का ध्यान करें-तो वही कभी कृष्ण के रूप में, कभी मर्यादा पुरुषोत्तम राम के रूप में, कभी बुद्ध, कभी ईसा, कभी मुहम्मद और कभी महावीर के रूप में दृष्टिगोचर होता है। इस प्रकार हम इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि धर्मों का सच्चा स्वरूप सत्य है। सत्य की स्थापना के लिए ही धर्म का विस्तार हुआ है।


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