अमृतकण

May 1947

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(श्री पक्षिक जी)

1. यदि आप ऊंची कक्षाओं की डिग्री पाये हुए शिक्षित विद्वान् हैं तो आपसे यह प्रश्न करना ही पड़ता है कि आप की विद्या किस लिये? इसका उत्तर वहीं होगा जो आप व्यवहार में बुद्धि द्वारा, नीति, धर्म बरत रहे होंगे।

2. कुछ भी हो सन्तोष की बात यही होगी कि आप की विद्या केवल रोटी के लिए न होनी चाहिये। आप की विद्या छल, कपट, चालाकी से धनोपार्जन के लिये न होनी चाहिये बल्कि आपकी विद्या हर एक दिशा में, न्येक स्थल में, परहित के लिये दूसरे की सेवा के लिए होनी चाहिये।

3. आप की बुद्धिमत्ता तभी सराहनीय है कि हर एक क्षेत्र में, परिवार में, जाति में, समाज में, सभी आप से सुखी सन्तुष्ट रहें। आपकी विद्या दूसरों को धोखा देने के लिये अपना काम चालाकी से बना लेने के लिये, झूठ को सत्य दिखाने के लिये न होनी चाहिये, क्योंकि यह बुद्धिमत्ता नहीं वरन् निरी नीचता हैं, स्वार्थांध भ्रष्ट-बुद्धि की यह क्रूर कृपणता है।

4. देखो! सावधान होकर समझ लो तीन प्रकार के स्वभाव वाले मनुष्य होते हैं। दैवी स्वभाव, मानवी स्वभाव और आसुरी स्वभाव।

5. अन्याय का बदला लेना तो मनुष्य का स्वभाव ही है लेकिन जो बुद्धिमान् दैवी स्वभाव को धारण करते हैं, वे तो क्षमा, ही करते हैं, और जो लोग दूसरों को व्यर्थ हानि पहुँचाते हैं, दुख देते हैं, वह तो निरे आसुरी स्वभाव के मनुष्य हैं।

6. यदि आप बुद्धिमान् हैं तो दूसरों से कदाचित धोखे से धोखा खा जाओ लेकिन आप स्वयं दूसरों को धोखा न दो।

7. आप क्षणिक सुख-भोगों की मादकता में न भूल कर सत्य शाश्वत सुख को जानो, सत्य धर्म को जानो और धर्मात्मा बनो, धीर, वीर, गम्भीर, ज्ञानी बनो और सद्व्यवहार परोपकार भावना को क्रिया रूप में चरितार्थ करो।

8. ध्यान रहे! बुद्धिमत्ता के गर्व में किसी को मूर्ख समझकर अपमानित न करो। सभी मनुष्य अपूर्ण हैं और सभी से भूल होनी संभव है। भूले हुए को प्रेम पूर्वक समझाना उचित है न कि अपमानित करना।

9. आप दूसरों के दोषों को जितनी गहरी दृष्टि से देखते हो, छान बीन करते हो, उसी प्रकार अपने दोषों को कड़ी दृष्टि से देखो। अपने मन को इस विषय में प्यार दुलार करने की जगह हमेशा ताड़ना देनी होगी।

10. प्रायः अनेकों प्रसंगों में बिना सोचे समझे ही अपने प्रिय सम्बन्धियों एवं मित्रों को, भ्रमवश, अभिमान वश, आवेश (जोश) में आकर न कहने योग्य बर्ताव कर बैठते हो। इस प्रकार के आवेश पर काबू प्राप्त करना चाहिए।

11. ध्यान रहे जो मनुष्य, चरित्रहीन, स्वार्थी अभिमानी एवं विवेक रहित होता है, वही हर एक अवसर पर प्रायः कर्तव्य और धर्म से विचलित होता है और इसी प्रकार के व्यक्ति मानव-समाज में ईर्ष्या, द्वेष, कलह आदि दुर्भावों को फैलाते रहते हैं।

12. आप अपने भीतर देखते रहिये, जहाँ कहीं उद्दंडता, अभिमान-वश आसुरी प्रकृति के लक्षण व्यवहार में आ जायें, वहीं अपनी विद्या एवं बुद्धिमत्ता को धिक्कारिये।

13. आप विचार करके देखिये कितनी ही बड़ी-बड़ी डिग्रियां आपको मिल जावें और कितने ही वैभव ऐश्वर्य के बीच क्यों न रहें, सैंकड़ों मनुष्य आपके इशारे पर क्यों न नाचते रहें, फिर भी आपकी बुद्धिमत्ता और महानता का सच्चा पता आपके दैनिक व्यवहारों से ही मिलेगा।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118