गीता में योग की परिभाषा “योग, कर्मसु कौशल” (2-50) की गई है। दूसरी परिभाषा “समत्वं योग उच्चते” (2-48) है। कर्म की कुशलता और समता को इन परिभाषाओं में योग बताया गया है। पातिंज्जल योग दर्शन में ‘योगाश्चित्त वृत्ति निरोधः” (1-1) चित्त की वृत्तियों के निरोध को योग कहा गया है। इन परिभाषाओं पर विचार करने से योग कोई ऐसी रहस्यमय या अतिवादी वस्तु नहीं रह जाती कि जिसका उपयोग सर्वसाधारण द्वारा न हो सके। दो वस्तुओं के मिलने को योग कहते है। पृथकता वियोग है और सम्मिलन योग है। आत्मा का से जोड़ना योग होती है।
शरीर विज्ञान की जानकारी और प्रयोग के आधार पर हम स्वस्थता, बलिष्ठता, सौंदर्य, दीर्घ जीवन प्राप्त करते हैं और उनके आधार पर विभिन्न प्रकार की सम्पदाओं को प्राप्त करने तथा भोगने का आनन्द उठाते हैं। इसी प्रकार मनोविज्ञान, मनःशास्त्र, योग की जानकारी और साधना द्वारा मन पुष्ट, बलवान्, सुसंस्कृत कुशल, सूक्ष्मदर्शी, सावधान, निभ्रान्त बनाया जा सकता है और उसके आधार पर उन सब वैभवों को प्राप्त किया जा सकता है जो मनःशक्ति द्वारा प्राप्त होते हैं। तलवार पास में होना एक चीज है और तलवार को पास रखना और साथ ही चलाना जानना भी दूसरी चीज है मन तो सभी के पास है पर उसका लाभदायक प्रयोग करना, योग के आधार पर ही जाना जा सकता है। यह जानकारी सर्वसाधारण के लिए आवश्यक है इसलिए योग की शिक्षा भी हर व्यक्ति के लिए जरूरी है, वह किसी भी स्थिति में क्यों न हो।
योग हमारी दैनिक आवश्यकता है। आरोग्य शास्त्र, आहार शास्त्र, चिकित्सा शास्त्र, रति शास्त्र आदि को जानकर और उनके अनुसार बरतना जिस प्रकार व्यक्ति के लिए जरूरी है, इसी प्रकार मानसिक स्वस्थता। एवं आत्मिक स्वस्थता के लिए योग का जानना और उसका साधन करना आवश्यक है।