देवियो! अपना देवत्व-प्रकट करो।

December 1945

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(ले.- राजकुमारी रत्नेश कुमारी ‘नीराँजना’)

जो अधिक से अधिक देते और कम से कम लेते हैं उनको देवता कहते हैं, जो लेना-देना बराबर रखते हैं उनको मनुष्य और जो केवल सबसे लेना ही लेना जानते हैं उनको दानव अथवा राक्षस मानना चाहिये। आर्य संस्कृति अपने अनुयायियों को देव अथवा देवी के ही रूप में देखना चाहती है। वह ऐसे स्वर्ण युग का आदर्श चित्र सम्मुख रखती है जब कि अधिकाँश परिवारों के सभी व्यक्ति अपने देवत्व से उसे भू स्वर्ग बना रहे हैं।

वह गृह लक्ष्मियों को देवी रूप में देखने को और भी अधिक उत्सुक रहती है। कारण भावी नागरिकों पर उनके देवत्व का गहरा प्रभाव पड़ेगा। जिनकी धमनियों में उन्हीं का दूध-खून बन कर लहरा रहा है जो उनकी गोदी में पलकर सर्व प्रथम शिक्षा ग्रहण करते हैं वह शिक्षा अच्छी ही अथवा बुरी उनके हृदय के अंतर्गत में प्रवेश कर जाती है।

विचार पूर्वक देखिए, जिस व्यक्ति में जितना ही अधिक देवत्व होगा संसार उसका उतना ही अधिक स्वागत करेगा। मँगतों का स्वागत तो, केवल देव प्रकृति वाले व्यक्ति ही कर सकते हैं। जीवन में प्रत्येक नारी का एक बार जब प्रथम बार ससुराल को जाती है तो यह अनुभव करने का सुअवसर मिलता है कि उस पर प्रेम और आदर की सब ओर से वर्षा हो रही है। घर का प्रत्येक व्यक्ति आनन्द विभोर बना फिरता है नव वधू को प्रसन्न करने के लिए सभी नई-नई युक्तियाँ सोचते हैं आखिरकार इतना सब क्यों होता है? और फिर ये आनन्दोत्सव फीका पड़ते-पड़ते एक दिन लाइन मिस।

क्यों हो जाता है? वह प्रेम वह आदर वह उमंग कहाँ खो जाती है?

क्या कभी आपने इस पर विचार किया है? क्या यह परिणाम अवश्यम्भावी है? सुनिये! उन्होंने आशा की थी कि आप देवी हैं उनकी अभिलाषाओं को पूर्ति का वरदान देंगी। उनके घर में निरन्तर सुख-शान्ति और प्रेम की वर्षा करेंगी। यदि वे कभी क्षणिक उत्तेजना वश अनर्गल बातें भी कह कर वातावरण को कभी तिक्त बना देंगे तो आप अपने मधुर भाषण से उसमें फिर नवीन माधुर्य की सृष्टि कर देंगी। यदि उनकी भूल भी होगी तो आपको सबके सन्मुख अपमानित नहीं करेंगी कटु व्यंगों से दिल नहीं दुखाएंगी किसी से उनकी निन्दा नहीं करेंगी परन्तु एकान्त में मधुर शब्दों में उनको समझा देंगी। देवियों में भी दुर्गा अथवा सरस्वती की उपमा कोई नहीं देता, वधू को उपमा हमेशा दी जाती है- लक्ष्मी की। इससे यह स्पष्ट प्रगट होता है कि वे आपसे यही आशा रखते हैं कि आप अपनी गृह कुशलता तथा दिव्य स्वभाव से उनके गृह रूपी संसार को श्रीयुक्त (शोभायुक्त) बनावें।

यदि आप उनकी इस कामना की पूर्ति का वरदान दे देवेंगी तो वे आप पर सदैव प्रेम रखेंगे, आदर करेंगे, मुक्त कण्ठ से आपकी सराहना करेंगे, फूले नहीं समायेंगे। वह प्रथम दर्शन का स्वागत आपका पुराना नहीं होने पायेगा। सब उसी प्रकार आप पर स्नेह, आदर, आत्मीयता, कृतज्ञता तथा आनन्द की वर्षा सर्वदा करते रहेंगे। आपका गृह संसार सदैव स्वर्ग बना रहेगा और आप उस स्वर्ग की लक्ष्मी। यदि आप इसके विपरीत आचरण करेंगी तो दिन-दिन यह आनन्दोत्सव, यह शानदार घर की रानी जैसी स्वागत, फीका पड़ता जायेगा। प्रेम तथा सम्मान में न्यूनता आती जायेगी, और सभी आपकी तरफ से उदासीन होते जायेंगे।

यदि आपने मानवी स्वभाव रक्खा (जितना लेना उतना देना) तब तो वे आपको किसी प्रकार निभा भी लेंगे पर यदि आपने दानवी प्रकृति को अपनाया (देने के नाम कुछ भी नहीं, केवल लेना ही लेना) तो सभी आपसे असन्तुष्ट हो जायेंगे, आपसे दूर-दूर रहेंगे और आपकी निन्दा करेंगे, आपसे कटु शब्द कहेंगे, अपमान करेंगे और आपकी तनिक भी परवाह नहीं करेंगे। इस भाँति आपका गृह आपके ही आचरणों के कारण नरक बन जायेगा। आप भी ऊब उठेंगी ऐसे कडुए जीवन से।

अतएव आपके सामने तीन रास्ते खुले हैं। 1-देवी बनना। 2- मानवी बनना। 3- दानवी बनना। चुन लीजिये आपको कौन सा चुनना है? आर्य संस्कृति निरन्तर कह रही है-

तुम देवी हो? इसलिए अपना देवत्व प्रकट करो।

=कोटेशन============================


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118