चिन्तन के रज कण

December 1945

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(ले.- ठा. गुणवंत सिंह, गूदर खेड़ा)

-दम्भी लोग दूसरे लोगों के लिए ‘बावले जान’ हो जाते हैं, दम्भी अपना तो गुण गान करता है और दूसरों के दोषों का वर्णन करता है। उसे अपने से छोटों के सम्मुख आनन्द आता है, जो उसके गुणों और कार्यों की प्रशंसा करते नहीं थकते। अन्त में दम्भी उन आदमियों का शिकार हो जाता है जो उसकी प्रशंसा करते हैं क्योंकि दम्भी की अपेक्षा और कोई खुशामद से प्रसन्न कहीं होता।

-स्पिलोजा।

-कंजूस अंधा होता है क्योंकि वह सिवा सोने के और किसी सम्पत्ति को नहीं देखता। फिजूल खर्च व्यक्ति अंधा होता है। क्योंकि व प्रारम्भ को ही देखता है अंत को नहीं। रिझाने वाली स्त्री अंधी होती है क्योंकि वह अपनी झुर्रियाँ नहीं देखती। विद्वान अंधा होता है क्योंकि वह अपना अज्ञान नहीं देखता। ईमानदार चोर अंधा होता है क्योंकि वह परमात्मा को नहीं देखता

-विक्टर ह्यूगो।

-मनुष्य अपना सच्चा मूल्य नहीं कूत सकता क्योंकि उसे दैविक ज्ञान नहीं रहा है, इसलिए वह अपने विषय में औरों से पूछता फिरता है। यद्यपि वह अधिक विश्वस्त अपनी आत्मा से अपने विषय में दृढ़ता पूर्वक जानकारी कर सकता है। देवता तो साँसारिक दृश्य पर मोहित नहीं होता। वह निरन्तर अंतर दृष्टि रखता है और उसकी आनन्दमयी मुस्कान का रहस्य आत्म प्रतीति है।

-महर्षि रमण।

-मैं तुम लोगों को घोर नास्तिक देखना पसन्द करूंगा। लेकिन कुसंस्कारों से भरे मूर्ख देखना न चाहूँगा। नास्तिकों में कुछ न कुछ जीवन तो होता है। उनके सुधार की तो कुछ आशा है ‘वे मुर्दे तो नहीं हैं। लेकिन कुसंस्कार मस्तिष्क में यदि घुस जाते हैं तो वह बिल्कुल बेकार हो जाता है। दिमाग बिल्कुल फिर जाता है। मृत्यु के कीड़े उसके शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। तुम्हें इन दोनों को छोड़ना होगा। मैं साहसी ‘निर्भीक’ नौजवानों को चाहता हूँ तुम लोगों में ताजा खून हो ‘स्नायुओं’ में तेजी हो ‘पेशियाँ’ लोहे की तरह सख्त हों। मस्तिष्क को बेकार और कमजोर बनाने वाले भावों की आवश्यकता नहीं, इन्हें छोड़ दो।

-स्वामी विवेकानन्द।

-सूअर के सौ पुत्र किस काम के कि भूखों मरें। पर धन्य है कि सिंहनी का पूत, जिसके बल पर वह भाड़ी में निर्द्वन्द्व होकर सोवे। मनुष्य संख्या बढ़ने से लाभ नहीं बल्कि आवश्यकता है ‘पूर्ण मनुष्य की’।

-चाणक्य।

-उत्तम उत्तम संस्थाओं की इतनी आवश्यकता नहीं, विस्तृत धन और स्वर्ण राशियों की भी आवश्यकता नहीं, असीम पौरुष और बलवान लेखनी की आवश्यकता नहीं, बल्कि आवश्यकता है एक मनुष्यता से परिपूर्ण मनुष्य की।

-जस्टिस महादेव गोविन्द रानाडे।

-आपके स्थापित किये हुए श्वेत मन्दिर तथा पत्थर के स्थापित विष्णु आपके हृदय के पाप शाँत न करेंगे। पूजो देश के भूखे इन नारायणों को। इन परिश्रम करने वाले विष्णुओं को पूजो।

-स्वामी रामतीर्थ।

-किसी देश का बल छोटे विचार के बड़े आदमियों से नहीं किन्तु बड़े विचार के छोटे आदमियों से बढ़ता है। सत्य धर्म का मतलब ईश्वर शब्द पर विश्वास की अपेक्षा भलाई पर विश्वास करना है।

-स्वामी रामतीर्थ।


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