साधना का मार्ग

December 1945

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(ले.- श्री डॉ. चतुर्भुज सहाय जी, एटा)

1- प्रत्येक अभ्यासी के लिए यह बहुत लाजमी है कि वह साधना पर पूर्ण श्रद्धा और विश्वास रखें। अभ्यास को बिना नागा, नित्य प्रति ठीक समय पर करते जाना चाहिए। एक दिन के लिए भी छूटने पर अभ्यासी कुछ न कुछ अपने स्थान से (जहाँ तक चढ़ाई कर ले गया था) नीचे खिसक आता है और लगातार कुछ दिवस न करने पर तो कोरा रह जाता है।

2- पूजा या अध्यात्मिक किसी कर्म के लिए पवित्रताई और शुद्धताई की भी बहुत जरूरत है। वस्त्र, स्थान, शरीर, मन सभी पवित्र होने चाहिए। पूजा का स्थान शुद्ध और शान्तिमय हो और उसको किसी दूसरे काम में नहीं लाना चाहिए। अभ्यास या तो निर्जन जंगल में जाके करे या घर में एक कोठरी इसी काम के लिए रख छोड़े, उसमें अधिक सजावट भी न करे।

3- पूजा अकेले भी की जा सकती है पर सामूहिक रूप में करने से उसका फल शीघ्र ही प्राप्त होता है। ऐसे स्थानों पर देवगण आ जाते हैं और सबको सहायता पहुँचाते हैं। कुछ लोगों का तो यहाँ तक ख्याल है कि मनुष्य की भक्ति की खबर यही देवगण ईश्वर तक पहुँचाते हैं और ईश्वर का आशीर्वाद इस भूलोक में लाकर देते हैं। पुराणों में लिखी गई नारदादि ऋषियों की गाथाएँ इसी बात की सूचक हैं। कुरान में लिखा है कि जहाँ सब लोग मिल के इबादत (भजन) करते हैं फरिश्ते (देवता) वहाँ अपनी रहमत बरसाते हैं और खुदा से जाके अर्ज करते हैं कि फलाँ गिरोह (समूह) मुहब्बत (प्रेम) के साथ आपको याद कर रहा है।

4- इस सामूहिक पूजा का नाम ही ‘सत्संग’ है। सत्संग की महिमा सबने गाई है उसका कारण उपरोक्त कारण ही है।

5- आज कल कुछ दिनों से लोगों के अन्दर यह ख्याल बहुत मजबूत हो गया है कि संध्या पूजन भजन इत्यादि व्यक्तिगत अर्थात् अलग-अलग एकान्त ही में करना चाहिए परन्तु अनुभव ने यह बताया है कि जितने अधिक मनुष्य सामूहिक रूप से किसी साधन या भजन को करें तो उसका फल एक व्यक्ति की क्रिया से दुगना चौगुना नहीं बल्कि बहुत अधिक होगा। कई लोगों के एक साथ बैठने से एक की त्रुटि दूसरे से पूरी होती रही है और यह पूजकों का समूह ईश्वरीय आशीर्वाद उतारने के लिये संगठित बलवान यंत्र बन जाता है।

6-पूजा या भजन के समय श्रद्धा उच्च भावना और दृढ़ निश्चय होना चाहिए बहुत लाजिमी है। भाव से ही फल मिलता है। जहाँ भाव नहीं वहाँ भावना नहीं।

7- सत्संग के समय नग्न खुले उघारे नहीं बैठना चाहिए पाँव पसार के या टेढ़े-मेढ़े भी नहीं बैठना चाहिए। जहाँ तक हो सरकिल बना के बैठना उचित पड़ता है, ताकि प्रवाहित विद्युतधारा का असर सब पर एक समान पहुँचे और सब मिलके अनेक से एक बन जायं।

8- कई लोग आशा और मनोरथ लेके भजन में बैठते हैं इससे पूजा या भजन की शक्ति उसी ओर चली जाती है और साधक मुख्य वस्तु को नहीं प्राप्त हो सकता।

9- जिस समय मनुष्य विधि सहित साधन में जो पूर्ण और अनुभवी गुरु द्वारा उसे मालूम हुआ हो लगता है तो एक दम उसका सम्बन्ध उस आदि सूर्य जगदीश्वर से हो जाता है और उसकी ओर से तुरन्त ही बहुत मोटी किरण प्रकाश की आन कर भजन करने वाले के ऊपर गिरने लगती है और उसका प्रकाश उसके हृदय मस्तिष्क आदि रोम-रोम में फैल जाता है।

10- अनुभवी पुरुषों ने ऐसी स्थूल किरण का प्रकाश स्वेत सुनहरी वर्ण लिए हुए बताया है पर किसी किसी अभ्यासी को दूसरे रंगों में भासती दिखाई देती है यह किरण चाहे दिन हो चाहे रात्रि हो हर समय मिल सकती है और अगर हम किवाड़ बंद करके अंदर बैठे तो वहाँ भी दीवार में घुस के वहाँ पहुँच जाती है।

11- लोगों को तरह-तरह के रंग-बिरंगे प्रकाश क्यों दिखाई देते हैं। इसका कारण है प्रथम यह श्वेत किरण अन्तरात्मा में प्रवेश करती है फिर वहाँ टकरा के बाहर आती है और हमारे अंतःकरण से पास होती है। बस उसी समय उसमें अनेक रंग भासने लगते हैं। हमारे अंदर जिस तत्व के परमाणु अधिक होंगे वही रंग स्पष्ट होगा। जैसे त्रिकोण शीशे के टुकड़े में सूर्य की किरण अनेक रंगों वाली हो जाती है।

12- साइंस यह बतलाती है कि जब प्रकाश किसी बिन्दु से निकल के आगे बढ़ता है तो वह गोल होता जाता है और अर्ध गोलाकार शकल में वह ठहर जाता है। परंतु यहाँ उसका उल्टा होता है। जो लोग साधन या भजन करते हैं उनमें से तेज पुँज जिसको अंग्रेजी में औरा (aura) कहते हैं- निकल कर बिन्दु की शकल अख़्तियार कर लेता है और यह बिन्दु चाहे किसी रंगत के हों साधक के आगे ही चला करते हैं पीछे की ओर नहीं जाते। आगे बढ़ के यह सब बिन्दु आपस में मिलते जाते है और ठोस किरण के आकार में आते जाते हैं। फिर उन सबका अति तेजोमयी ‘प्रकाश बिन्दु’ बन जाता है।

13- यह बिन्दु बिलकुल जड़ ही नहीं होते उनमें चेतनता होती है। इसका सबूत यह है कि यदि कोई चैतन्य शरीर मनुष्य या दूसरी योनि का उनके रास्ते के समीप होता है तो यह अपना स्थान त्याग के उसकी ओर मुड़ पड़ते हैं और उसके हृदय और मस्तिष्क को स्पर्श करने लगते हैं और अपने प्रभाव से थोड़ी देर के लिए उसको भी प्रज्वलित कर देते हैं फिर बाहर आके अपने काम में लग जाते हैं इस प्रकार एक साधक अनेकों मनुष्यों को अपनी किरण द्वारा प्रकाश देने ओर अपने प्रभाव में लाने का अनायास ही उद्योग करता रहता है और यह एक बड़ा उपकार है।

14- पश्चिमी साइंसदानों ने इस तेजपुँज (aura) के लिए जो लिखा है वह यह है कि यह साधारण मनुष्य में 18 इंच चारों ओर रहता है यानी केवल डेढ़ फुट। और विकसित अर्थात् जिसने आत्म उन्नति कर ली हो ऐसे मनुष्य में 50 गज अर्थात् 150 फिट तक वह फैला रहता है और उसमें बहुत शक्ति होती है। तात्पर्य यह है कि आध्यात्मिक विकास के साथ यह तेज पुँज (aura) भी बढ़ता रहता है और यही कारण है कि संत-महात्माओं के स्थानों में पहुँच के मनुष्य अपने को बदला हुआ पाता है उनके तेज पुँज के प्रभाव में आकर अपनी तपन थोड़ी देर को त्याग देता है और शाँति की गोद में खेलने लगता है।

15- साधारण मनुष्य अपने तेज पुँज से कोई काम नहीं ले सकता मगर विकसित मनुष्य उस पर अधिकार रखता है। उसे वह अपनी संकल्प शक्ति (will) के साथ सैकड़ों मील दूर भेज सकता है और अपना प्रभाव फैला सकता है। साधारण पुरुष का प्रयोग 30 या 40 गज से अधिक नहीं चलता मगर साधक उसे दूर देशों में भी ले जा सकते हैं।

जब बहुत से मनुष्य मिल कर पूर्ण भाव के साथ एक स्वर होकर उसको पुकारते हैं, उसका गुणगान करते हैं या उसका चिन्तन (ध्यान) करते हैं तो एक बहुत मोटी किरण ऊपर से उतरती है अकेले मनुष्य पर उतरने वाली किरन का व्यास इतना नहीं होता। एक साथ मिल के साधन करने में आकर्षण बढ़ जाता है और सबके तेजबिन्दु (aura) मिल के वहाँ छा जाते हैं और अपने भंडार से प्रकाश खींचने लगते हैं। इसलिये सत्संग की विशेषता है।

16- चूँकि यहाँ (aura) या तेज पुँज का वर्णन हम कर रहे हैं इसलिए एक बात हम और बतलाते हैं इस बात को शायद अभी तक तुमने न समझा हो। संसार में जितने मत हैं उन सब के पूजा गृह या मंदिर भिन्न-भिन्न प्रकार के पाये जाते हैं। शैवों के मन्दिर दूसरी तरह के, वैष्णवों के दूसरी तरह के, जैनी, बौद्ध, ईसाई, पारसी, मुसलमान, यहूदी सबके मन्दिरों की बनावट में फर्क होता है। यह बात यों ही नहीं हैं इन मजहबों के प्रचारकों का अनुभव इसमें शामिल है और उसी की आकृति बाहर स्थूल में उन लोगों ने बनवाई थी कि जो रस्म के तोर पर अब तक चली आती है।

मनुष्य जब पूजा या आराधना करने बैठता है तो उसके चारों ओर अन्तरिक्ष ( eather) में एक सूक्ष्म इमारत बन जाती है वह किसी साधन में गुम्बददार होती है किसी साधन में दूसरे प्रकार की। प्रत्येक मत के कर्म में भेद रहता है रस्म रिवाज भी दूसरी रहती है, इसलिए उनके यह ( Astrel building) आस्ट्रल बिल्डिंग सूक्ष्मगृह में भी फर्क हो जाता है और उसी के फोटो पर बाहर यह सब बनाये गये हैं।

17- ऊपर से जब प्रकाश की धार गिरती है तो अभ्यासी को कभी-कभी ब्रह्म रन्ध्र से शरीर में उतरते हुए अनुभव होती है, कभी हृदय के स्थान पर से घुसती मालूम देती है, कभी लगातार मूसलाधार आती है, कभी आती है फिर बंद हो जाती है, फिर आने लगती है यानी रुक-रुक कर आती है। धारा प्रवाह उसका नहीं रहता और कभी इतनी सूक्ष्म आती है कि उसको हम महसूस ही नहीं कर पाते पर फायदा देखते हैं।

18- संतों ने व अनुभवी पुरुषों ने पहली तरह के प्रकाश को निकृष्ट, दूसरी प्रकार के प्रकाश को मध्यम और तीसरे सबसे सूक्ष्म को उत्तम श्रेणी का माना है। इसका लाभ ठहराऊ होता है और शरीर व अंतःकरण के परमाणु सब उससे भर जाते हैं और दूसरे व पहले में यह बात नहीं होती। वह वर्षा के जल की तरह बह कर चला जाता है।

19- इस बात की बहुत जरूरत है कि भजन या पूजा के समय हमारी वृत्ति अन्तरमुखी रहे। इष्ट का ध्यान अंतर में ही हो। बाहरी ध्यान से वृत्ति बहिर्मुखी रहती है, उससे काम पूरा नहीं बन पाता। न तो पूर्ण शक्ति आती है और न आत्म-साक्षात्कार होता है।


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