संसार मिथ्या नहीं है।

December 1945

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(ले.- श्री स्वामी सत्यदेव जी परिव्राजक)

जिस समय एक मनुष्य यह सोचने लगता है कि- “यह संसार मिथ्या है, कोई वस्तु स्थायी नहीं, मुझे मर जाना है, जीवन एक स्वप्न मात्र है” उस समय उसको अपने जीवन में कोई दिलचस्पी नहीं रहती। वह उदासीन हो जाता है। संसार की जिम्मेदारियाँ उसको बोझ सम मालूम होती हैं न उसका घरवालों से प्रेम, न उसको जाति का कुछ ख्याल। उसका देश चाहे रसातल में चला जाय, वह कुछ परवाह नहीं करता। उसे चाहे कोई गालियाँ दे, चाहे मारे, पीटे उसके लिए सब बराबर है। अपने देश बंधुओं का दुख उसके लिए कल्पना मात्र है। देश हितैषिता क्या वस्तु है? यह बात उसके दिमाग में भी नहीं घुस सकती। उसकी जन्म भूमि का धन चाहे कहीं का कहीं चला जाय, उसके करोड़ों भाई चाहे भूखे मर जायं, उसको इसका कुछ दुख नहीं होता।

स्मरण रखिये यह वह विष है जिसके खाने से मनुष्य का मनुष्यत्व जाता रहता है। धैर्य, क्षमा, वीरता, साहस, सत्य आदि दैविक गुण कभी भी विकास को प्राप्ति नहीं हो सकते, जब तक कि मनुष्य इस विष को अपने शरीर से न निकाल दे। उस व्यक्ति के सिर पर कोई जिम्मेदारी नहीं रहती जो बोझ उठाने से घबड़ाता है। उसके अंग-प्रत्यंग कैसे बढ़ सकते हैं? वह अवश्य ही भीरु हो जाएगा, विरोधों का सामना करने की शक्ति जाती रहेगी। वह मिलकर काम नहीं कर सकेगा। संघ से उसे घृणा होगी। ऐसी दशा में ये दैविक गुण भी उसके लिए निकम्मे हो जाते हैं और वह मनुष्य शरीर रखता हुआ भी पशुवत् हो जाता है।


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