पाप छिपता नहीं

December 1945

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(ले.- सुश्री कैलाश वर्मा बी. ए. तृतीय वर्ष)

चाहे आप किसी अत्यन्त एकाँत गुफा में कोई पाप कर्म, असुन्दर कृत्य, घृणास्पद कर्म कर लो, रात्रि के अंधकार में उसे छिपाने का प्रयत्न करो। किन्तु विश्वास रक्खो पाप स्वयं पुकार-पुकार कर अपना ढोल पीटता है। आप बिना किसी विलम्ब के यह देखकर चकित होंगे कि आपके पैरों के नीचे की घास खड़ी होकर आपके विरुद्ध साक्षी देती है। आपके इर्द-गिर्द खड़े हुए वृक्षों की भी जुबान खुल जाती है। उनके पत्ते-पत्ते उद्बोधन कर उठते हैं- “आप प्रकृति को, इस कुदरत को धोखा नहीं दे सकते।”

प्रकृति के, परमेश्वर के उस आदि नियन्ता के पाप कर्म देखकर सजा देने के लिए सहस्रों नेत्र हैं, सहस्रों कान हैं और अनगिनत हाथ हैं। वह दिन-रात चौबीसों घन्टे आपकी विभिन्न लीलाएँ मुद्राएँ निहारा करता है। प्रत्येक पाप कर्म का किसी न किसी रूप में किसी न किसी समय अवश्य प्रतिकार मिलता है। इसमें किसी भी रुठिरिआयत नहीं होती। यह एक दैवी विधान है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here: