आदेश बनाम विवेक

December 1945

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सिद्धान्तों का परीक्षण करना आवश्यक है। क्योंकि परस्पर विरोधी सिद्धाँतों का सर्वत्र आस्तित्व प्राप्त होता है। एक ओर जहाँ हिंसा को, बलिदान या कुर्बानी को, धर्मों में समर्थन प्राप्त है वहाँ ऐसे भी धर्म हैं जो जीवों की हत्या तो दूर, उन्हें कष्ट पहुँचाना भी पाप समझते हैं। इसी प्रकार ईश्वर, परलोक पुनर्जन्म, अहिंसा, पवित्र पुस्तक, अवतार पूजा विधि, कर्मकाण्ड, देवता आदि विषयों के मतभेदों से धार्मिक क्षेत्र भरे पड़े हैं। सामाजिक क्षेत्रों में वर्णभेद, स्त्री अधिकार, शिक्षा, रोटी, बेटी, आदि प्रश्नों के सम्बन्ध में परस्पर विरोधी विचारों की प्रबलता है। राजनीति में प्रजातंत्र साम्राज्यवाद, पूँजीवाद, अधिनायकवाद, समाजवाद आदि अनेकों प्रकार की परस्पर विरोधी विचार धाराएं काम कर रही हैं। उपरोक्त सभी प्रकार की विचार धाराएं आपस में खूब टकराती भी हैं। उनके समर्थक और विरोधी व्यक्तियों की संख्या भी कम नहीं है।

जब कि सिद्धाँतों में इस प्रकार के घोर मत भेद विद्यमान हैं तो एक निष्पक्ष जिज्ञासु के लिए, सत्य शोधक के लिए, उनका परीक्षण आवश्यक है। जब तक यह परख न लिया जाय कि किस पक्ष की बात सही है किसकी गलत? किसका कथन उचित है किसका अनुचित? तब तक सत्य के समीप तक नहीं पहुँचा जा सकता। यदि परीक्षा और समीक्षा को आधार न बनाया जाय तो किसी प्रकार उपयोगी और अनुपयोगी की परख नहीं हो सकती।

‘महाजनो ये न गतो स पन्था’ के अनुसार महाजनों का- बड़े आदमियों का- अनुसरण करने की प्रणाली प्रचलित है। साधारणतः लोग सैद्धाँतिक बातों के सम्बन्ध में अधिक माथा पच्ची करना पसंद नहीं करते। दूसरों की नकल करना सुगम पड़ता है, निकटवर्ती बड़े आदमी जो कह दें उसे मान लेने में दिमाग पर जोर नहीं डालना पड़ता अधिकाँश जनता की मनोवृत्ति ऐसी ही होती है। परन्तु इस प्रणाली से सत्य असत्य की समस्या सुलझती नहीं। क्योंकि जिन्हें हम महापुरुष-महाजन समझते हैं संभव है वे भ्रान्त रहे हों। और दूसरे लोग जिन्हें महापुरुष समझते हैं संभव है उन्हीं की बात ठीक है। जब कि अनेक व्यक्ति एक प्रकार के विचार वाले महाजन की बात ठीक मानते हैं और उसी प्रकार अनेक व्यक्ति दूसरे महाजन की, दूसरे प्रकार के विचारों को मान्यता देते हैं। तब यह निर्णय कठिन हो जाता है कि इन दोनों कथनों में किसका कथन उचित है किसका अनुचित?

महापुरुष दो प्रकार से अपने विचारों को व्यक्त करते हैं। (1) लेखनी द्वारा। (2) वाणी द्वारा। वाणी द्वारा प्रकट किये हुए विचार क्षणस्थायी होते हैं इसलिए उन्हें चिरस्थायी करने के लिए लेख बद्ध किया जाता है। विचारों के व्यवस्थित को लेखन- यही ग्रन्थ या पुस्तक कहते हैं। जिन ग्रन्थों में धार्मिक या आध्यात्मिक विचार लिपि बद्ध होते हैं उन्हें शास्त्र कहते हैं। शास्त्रों को लोग एक स्वतंत्र सत्ता का स्थान देने लगे हैं। जैसे देवता की अपनी एक स्वतंत्र सत्ता समझी जाती है वैसी ही शास्त्र भी स्वतंत्र सत्ता बनने लगे हैं। परन्तु बात ऐसी नहीं है। वे महाजनों के विचार ही तो हैं। जैसे महाजन भ्रान्त हो सकते हैं-होते हैं वैसे ही शास्त्र के अभिमत का खण्डन करना यही प्रकट करता है कि एक समान श्रेणी के महाजनों में प्राचीन काल में भी इसी प्रकार मत भेद रहता था जैसा कि आजकल अनेक समस्याओं के संबंध में हमारे नेता आपसी मतभेद रखते हैं।

आज नेताओं के मत भेद में से छान कर हम वही बात ग्रहण करते हैं जो हमारी बुद्धि को अधिक उचित और आवश्यक जँचती है। किसी नेता के मत से सहमति न रखते हुए भी उसके प्रति आदर भाव रहता है इसी प्रकार स्वर्गीय महाजनों, महापुरुषों की लेखबद्ध विचार प्रणाली के सम्बन्ध में भी होना चाहिए। शास्त्र का अन्धानुकरण नहीं होना चाहिए वरन् उनके प्रकाश में सत्य को ढूँढ़ना चाहिए। अन्धानुकरण कोई किया भी नहीं जा सकता। क्योंकि कभी-कभी एक ही शास्त्र में दो विरोधी आदर्श मिलते हैं। हमारे शास्त्रों में जीवित प्राणियों को मारकर अग्नि में होम देने का भी विधान है और जीवमात्र पर दया करने का भी। दोनों ही आदेश पवित्र धर्म ग्रन्थों में मौजूद हैं। वे शास्त्र हमारे परम आदरणीय और मान्य हैं तो भी इनके आदेशों में से हम वही बात आचरण में लाते हैं जो बुद्धि संगत, उचित और आवश्यक दिखाई पड़ती है।

हिन्दू धर्म किसी व्यक्ति या उसके लेख बद्ध विचारों को अत्यधिक महत्व नहीं देता। चाहे वह व्यक्ति कितना ही बड़ा महापुरुष ऋषि महात्मा या ईश्वर ही क्यों न रहा है। हिन्दू धर्म में सिद्धाँतों की समीक्षा और उसके बुद्धि संगत अंश को ही ग्रहण करने की ही परिपाटी का समर्थन किया गया है। किसी बड़े से बड़े व्यक्ति या ग्रन्थ से मतभेद रखने और उसके मन्तव्यों को स्वीकार करने न करने की उसमें पूर्ण सुविधा है। हाँ, किसी की महानता को कम करने की आज्ञा नहीं है। महापुरुषों और पवित्र ग्रन्थों का समुचित आदर करते हुए भी उनकी सम्पत्ति में से बुद्धि संगत अंश को ही ग्रहण करने का आदेश है। इसी आदेश के आधार पर प्राचीन समय में सच्चे जिज्ञासुओं ने सत्य की शोध की है और अब भी वही मार्ग अपनाना होता है।

हिन्दू धर्म में भगवान बुद्ध को ईश्वर का अवतार माना गया है। दश अवतारों में उनकी गणना है। इससे अधिक ऊँचा आदर, श्रद्धा, महत्व और क्या हो सकता है? भगवान बुद्ध भी हिन्दुओं लिए वैसे ही पूज्य हैं जैसे अन्य अवतार। उनके महान् व्यक्तित्व, त्याग, तप, संयम, ज्ञान, साधन के आगे सहज ही हर व्यक्ति का मस्तक नीचे हो जाता है। उनके चरणों पर हृदय के अस्तर से निकली हुई गहरी श्रद्धा के फूल चढ़ा कर लोग अपने को धन्य मानते हैं। इतने पर भी भगवान बुद्ध के विचारों का हिन्दू धर्म में प्रबल विश्वास है। श्री शंकराचार्य ने उनके मत का खण्डन करने का प्राण प्रण प्रयत्न किया है। बौद्ध विचारों उनके सम्प्रदाय को स्वीकार करने के लिए हिन्दू तैयार नहीं है, तो भी उनके व्यक्तित्व भगवान का दर्शन करता है।

बात यह है कि व्यक्तित्व और सिद्धान्त भिन्न-2 वस्तुएं हैं। कोई सिद्धान्त इसलिए नहीं हो सकता कि उसे अमुक महापुरुष ने अमुक ग्रन्थ ने प्रकाशित किया है। इसी प्रकार घृणित व्यक्ति द्वारा कहे जाने या प्रतिपादन जाने से कोई सिद्धान्त अमान्य नहीं ठहरता। कोई चोर यह कहे कि “सत्य बोलना उचित है” तो उसे इसलिए अस्वीकार नहीं किया जा सकता है कि यह बात चोर ने कही है। चोर का व्यक्तित्व भिन्न बात है और ‘सत्य बोलने’ सिद्धाँत अलग चीज है। दोनों को मिला देने पर तो बड़ा अनर्थ हो जायेगा। चूँकि चोर ने बोलने के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है वह सिद्धाँत अमान्य नहीं ठहराया जा सकता। इसी प्रकार कोई बड़ा महात्मा किसी अनुपयोगी बात का उपदेश करे तो उसे मान्य नहीं ठहराया जा सकता। कई अघोरी साधु अभक्ष भक्षण करते हैं, यद्यपि उनकी तपश्चर्या ऊँची होती है तो उनके आचरण का कोई अनुकरण नहीं करते, निश्चय ही व्यक्तित्व अलग चीज है और सिद्धान्त अलग चीज है। महात्मा कार्लमार्क्स, एजिं लेनिन आदि का चरित्र बढ़ा ही ऊँचा था वे विषय के उत्कट विद्वान भी हैं। उनके उज्ज्वल व्यक्तित्व के लिए दुनिया शिर नवाती है पर उनका अनीश्वरवादी मत मान्य नहीं किया जाता।

प्राचीन समय में भी आज की भाँति ही परस्पर विरोधी मत प्रचलित थे। जैसे आज अनेकानेक विचार धाराओं के मतभेद पर बारीक दृष्टि डालकर उसमें से उपयोगी तत्व ग्रहण करने को विवश होना पड़ता है वही बात प्राचीन समय के सम्बन्ध में लागू होती है। आधुनिक महापुरुषों के विचारों से जीवन निर्माण कार्य में हमें मदद मिलती है, उसी प्रकार प्राचीन काल के स्वर्गीय महापुरुषों के लेखबद्ध विचारों से-धर्मग्रन्थों से-लाभ उठाना चाहिए। परन्तु अंध भक्त किसी का नहीं होना चाहिए। यह हो सकता है कि प्राचीन काल की ओर आज की स्थिति में अन्तर पड़ गया है। जिससे तब के विचार आज के लिए उपयोगी न रहे हों, यह भी हो सकता है कि उनने किसी बात को अन्य दृष्टिकोण से देखा हो। और आज उसे किसी अन्य दृष्टि से देखा जा रहा हो। एक समय समझा जाता था कि चातक स्वाति नक्षत्र का ही पानी, पीता है, पर अब प्राणिशास्त्र के अन्वेषकों ने देखा है कि चातक रोज पानी पीता है। हंसों का मोती चुगना, या दूध पानी का अलग कर देना भी अब अविश्वस्त ठहरा दिया गया है। इसी प्रकार अन्य अनेक बातों में भी प्राचीन काल के सिद्धाँतों में और आज की शोधों में अन्तर आ गया है। इन अंतरों के सम्बन्ध में हमें परीक्षक बुद्धि से कोई बात निर्धारित करनी पड़ती है। आधुनिक या प्राचीन होने में ही कोई सिद्धाँत मान्य या अमान्य नहीं ठहरता। शास्त्रकारों का भी यही मत है कि- “बालक के भी युक्ति युक्त वचनों को मान लें परन्तु यदि युक्ति विरुद्ध हो तो ब्रह्मा की भी बात को तृण के समान त्याग दे।”


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