ईश्वर हमारे अन्दर है।

December 1945

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(योगिराज, श्री. शिवकुमार जी शास्त्री)

हमने ईश्वर का दर्शन किया है। पर, इन आँखों से नहीं, ज्ञान से। बाहर नहीं, भीतर। अलग नहीं, अपने में, वह दूसरा नहीं है, हमारी आत्मा है। इसे समझो, और इसके गूढ़ अर्थ पर विचार करो। सच्ची शान्ति और सच्चा आनन्द इसी ज्ञान के भीतर वर्तमान है।

तुम सुख व शान्ति के लिए वृत्त या परिधि की ओर दौड़ते हो- तुम केन्द्र को छोड़ कर संसार में भटकते हो-पर क्या वह शान्ति मिल सकती है? कदापि नहीं।

यदि तुम शान्ति और आनन्द के भूखे हो तो वृत्त, परिधि या संसार को छोड़कर केन्द्र में भीतर-अपने आपमें-मन से सिमट कर स्थित हो जाओ। यहीं शान्ति, आनन्द और सुख का भण्डार है, यहीं सच्चिदानन्द का निवास है।

संसार में केवल दो पदार्थ हैं। एक जड़ दूसरा चेतन। एक अनात्मा दूसरा आत्मा। अनात्मा स्थूल संसार है और आत्मा ईश्वर है। हम और तुम दोनों आत्मा हैं इसलिए हम और तुम दोनों ईश्वर हैं। हम और तुम दोनों आनन्द और शाँति के अगाध समुद्र हैं।

ईश्वर को हम, न आँखों से देख सकते, न कान से सुनते हैं, न नाक से सूँघ सकते, न जिह्वा से स्वाद ले सकते हैं, न हाथ से छू सकते हैं। स्थूल मन भी वहाँ तक नहीं पहुँच सकता। केवल अपने भीतरी ज्ञान और विचार से वहाँ तक नहीं पहुँच सकते हैं। अतः जब उसे विचार करके ध्यान से देखा तो वह हमारी आत्मा के अन्दर था जहाँ शान्ति और आनन्द की लहर सर्वदा उठा करती है।

जो जैसा होता है उसी को अपनी ओर खींचता है। जलराशि समुद्र, भूमण्डल की सब नदियों को अपनी ओर खींच लेता है। लड़कों के पास लड़के, वृद्धों के पास वृद्ध और लुटेरों के पास लुटेरे इकट्ठे हो जाते हैं। अतः सर्वदा प्रसन्न रहो हँसते रहो और आनन्दमय रहो। इसका फल यह होगा कि चारों ओर से संसार का सारा आनन्द और सुख तुम्हारी ओर झुक पड़ेगा, खिंचा हुआ और बहता हुआ चला आवेगा।

जैसे को तैसा खींचता है। समान के पास समान जाता है। गँजेड़ी के पास गँजेड़ी, भँगेड़ी के पास भँगेड़ी और शराबी के पास गाँव भर के शराबी एकत्र हो जाते हैं। मनुष्य के चरित्र का उसकी मित्रमंडली से बहुत कुछ लग सकता है। अतएव यदि हमें सच्चिदानन्द को पास और अपने हृदय में बुलाना है तो हमें स्वयं सच्चिदानन्द बन जाना चाहिये।

समान को अपने समान वाली वस्तुओं के खींचने की अद्भुत शक्ति होती है। पक्षियों के पास, पक्षी, भेड़ियों के पास भेड़िये और हिरनों के पास हिरन आपसे आप जुट जाते हैं। अतः यदि ईश्वर को अपने हृदय में बुलाना है तो पहले हृदय में उन्हीं शुभ गुणों को धारण करो जो ईश्वर में वर्तमान हैं। ईश्वर को खींचने के लिए तुम्हें स्वयं ईश्वर बन जाना चाहिये।

मुक्ति का अर्थ यह नहीं है कि जीव ईश्वर से मिल जाता है या मनुष्यात्मा ईश्वरत्व के समुद्र में डूब मरता है। ऐसा हो तो कोई विचारवान् इस मुक्ति को न चाहेगा। मुक्ति की अवस्था में ज्ञान द्वारा ईश्वर ही जीव में मिल जाता है। जीव ईश्वर में नहीं। जिसको साधारण मनुष्य बिन्दु कहते हैं, वही ज्ञान होने पर समुद्रसावित होता है। इस ज्ञान को समझो बस सुख की सामग्री और आनन्द का समुद्र तुम्हारे भीतर मौजूद है। और तुम सम्राट के भी सम्राट हो।


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