जिस तरह आम को बिना खाये, रखे रहने से, उसका स्वाद नहीं मालूम होता, उसी तरह शिक्षा और ज्ञान का व्यवहार हुये बिना कुछ उपयोग नहीं है।
पठन-पाठन और वाचन का ज्ञान चाहे वह कितना भी अधिक क्यों न हो, अन्त में पुस्तक में ही रह जायगा। जो ज्ञान हमें जीवन की प्रत्यक्ष बातों से अनुभव द्वारा मिलता है, वही सच्चा ज्ञान है। छटाँक भर ऐसा ज्ञान सेर भर पण्डिताई से बहुत अच्छा समझा जाता है।
संसार में जो बड़े-बड़े विख्यात पुरुष हो गये हैं वे अधिक पढ़े लिखे नहीं थे। पहले जमाने में इतनी किताबें ही नहीं थी। आजकल की लाखों करोड़ों पुस्तकों की जगह उस जमाने में एकाध पुस्तक मुश्किल से मिलती थी। परन्तु किताबें पढ़े बिना ही पूर्व युग के मनुष्य एक से एक पढ़ कर गुणवान और कार्यशील हो गये हैं।
आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि जिस मनुष्य ने अपनी बुद्धि के छोटे से नमूने के स्वरूप में संसार को रेलगाड़ी बनाना सिखलाया है वह पढ़ा लिखा नहीं था।
तात्पर्य यह है कि संस्कृत, अरबी, फारसी, अथवा, ग्रीक, लेटिन और अँग्रेजी या अन्य भाषाओं के व्याकरण में वाक्यों का जन्म भर विन्यास करते रहने से ही कुछ साहस और कार्य-शीलता की वृद्धि नहीं हो जाती। इसी तरह मौलिकता तथा नूतनता तर्क शास्त्र के हजारों पृष्ठों को भी पढ़ने से नहीं आतीं। ये सब बातें प्रत्यक्ष व्यवहार से प्राप्त हुआ करती हैं।