(श्री स्वामी विवेकानन्द जी)
बड़े-बड़े धर्म वक्ता आपने देखे होंगे और उनके व्याख्यान सुने होंगे। सोचना चाहिए कि उनके शब्दों का अनुवाद उनका हृदय कहाँ तक करता है? वे अपने अंतःकरण के भावों को यदि स्पष्टता प्रगट करने लगें तो आप निश्चय समझिये कि उनमें से अधिकाँश लोगों को ‘नास्तिक’ कहना पड़ेगा, वे अपनी बुद्धि को चाहे जितनी भगतन बनावें, वह उनसे यही कहेगी कि “किसी पुस्तक में लिखा है या किसी महापुरुष ने कहा है इसलिए मैं उस पर बिना विचार किये विश्वास क्यों कर करूं? दूसरे भले ही अंध श्रद्धा के अधीन हो जायं मैं कभी फँसने वाली नहीं” इधर जाते हैं तो खाई और उधर जाते है तो अथाह समुद्र। यदि धर्मोंपदेशक या धर्मग्रन्थों का कहना मानो तो विवेचक बुद्धि बाधा डालती है और न मानो तो लोग उपहास करते हैं। ऐसी अवस्था में लोग उदासीनता की शरण लेते हैं जिन्हें आप धार्मिक कहते हैं। उनमें से अधिकाँश लोग उदासीन अथवा तटस्थ हैं और इसका कारण धर्म पर यथार्थ विचार न करना ही है, धर्म की उदासीनता यदि ऐसी ही बढ़ती जायेगी और लोग धर्माचरण के लाभों से अनभिज्ञ ही बने रहेंगे तो धर्म की पुरानी इमारत भौतिक शास्त्रों के एक ही अघात से हवाई किले की तरह नष्ट भ्रष्ट हो जायेगी।
भौतिक शास्त्र जिस प्रकार विवेचक बुद्धि को भट्टी से निकाल कर अपनी सत्यता सिद्ध करते हैं उसी प्रकार धर्मशास्त्र को भी अपने सिद्धान्तों की सत्यता संसार के आगे सप्रमाण सिद्ध कर देना चाहिए। ऐसा करने पर बुद्धि के तीव्र ताप ये यदि धर्मत्व गल, पच भी जायेंगे तो भी हमारी कोई हानि नहीं है। जिसे आज तक हम रत्न समझे हुए थे, वह पत्थर निकला। उसके नष्ट होने का हमें दुःख क्या? अंध परम्परा से उसे सिर पर लादे रहना ही मूर्खता है। मेरी समझ में ऐसे संदिग्ध पत्थर को जहाँ तक शीघ्र ही परीक्षा कर व्यवस्था से लगा देना ही अच्छा है। यदि धर्मतत्व सत्य होंगे तो वे भट्टी में कभी न जलेंगे, उलटे वे ही असत्य पदार्थ भस्म हो जायेंगे, जिनके मिश्रण से सत्य धर्म में संदेह होने लगा है। आग में तपाने से सोना मलीन नहीं किन्तु अधिक उज्ज्वल हो जाता है। विवेचक बुद्धि की भट्टी में सत्य धर्म को डालने से उसके नष्ट होने का कोई भय नहीं है किन्तु ऐसा करने से उसकी योग्यता और भी बढ़ जायेगी तथा उसका उच्च स्थान सर्वदा बना रहेगा। पदार्थ विज्ञान और रसायन शास्त्रों की तरह धर्म शास्त्र भी प्रत्यक्ष प्रमाणों में सिद्ध करना चाहिए। यदि कर्मेन्द्रियों की अपेक्षा ज्ञानेन्द्रियों की योग्यता अधिक है तो जड़ भौतिक शास्त्रों पर ज्ञान प्रधान धर्मशास्त्र की विजय क्यों कर न होगी?