दान ही बुद्धिमानी है।

December 1945

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इस विश्व की समस्त गति विधि- ‘दान’ के सतोगुणी नियम के आधार पर चल रही है। जो कोई भी तत्व अपनी- देने की प्रक्रिया को बंद कर देता है वही नष्ट हो जाता है, विकृत और कुरूप बन जाता है। यदि कुएँ पानी देना बंद कर दें, खेत अन्न देना बंद कर दें, पेड़ फल देना बंद कर दें, हवा अपने अविश्रान्त सेवा कार्य को बंद कर दे तो सृष्टि का संचालन ही बंद समझिये। माता-पिता बालक के लिए आत्म दान करना बंद कर दें तो चेतन जीवों का बीज ही मिट जायेगा।

भगवान हमें खुले हाथों सब कुछ बिना मूल्य मुक्त दान स्वरूप दे रहे हैं। जैसा शरीर हमें मिला हुआ है वैसा यंत्र कोई वैज्ञानिक 100 खरब रुपये को भी बनाकर नहीं दे सकता। जितनी आनन्दमयी परिस्थितियाँ परमात्मा ने हमारे चारों ओर जुटा दी हैं- उपहार स्वरूप भेज दी हैं, क्या हम उसकी कीमत चुका सकते हैं? दानी परमात्मा हर घड़ी हमें कुछ न कुछ देता रहता है, उसकी रचना में दान तत्व मुख्य है।

मनुष्य जीवन में सार्थकता, शोभा ओर प्रसन्नता उसकी दान शीलता के ऊपर निर्भर है। जो जितना ही अधिक देता है वह उतना ही अधिक धनी बनता है। कोई भी विद्यादान करने वाला अध्यापक ऐसा नहीं है जिसकी विद्या दूसरों के देने के कारण घट गई हो। कोई भी धनवान ऐसा नहीं है जिसका दानी होने के कारण दिवाला निकला हो, स्त्री अपने पति को सर्वस्व देती है इस दान के कारण उसका घटता कुछ नहीं उलटे बहुत कुछ मिल जाता है। भगवान को आत्म-समर्पण करने वाला भक्त अपने आत्म दान द्वारा भगवान को खरीद लेता है।

दान क्या है? कल के लिए ईश्वर के बैंक में जमा की हुई पूँजी ही दान है, जो चक्रवृद्धि ब्याज से बढ़ती रहती है और आड़े वक्त में काम आती है। दान करते समय हमारे मन में यश प्राप्ति की इच्छा फलाशा या अहंकार की भावना न होनी चाहिए। बालक खिलौनों से खेलते हैं। क्या इसके बदले में वे कुछ चाहते हैं? नहीं! खेल का आनन्द स्वतः ही एक पुरस्कार है और बालक उसी से पूर्णतया संतुष्ट हो जाते हैं। दान करना स्वयं एक आनंद है देते समय जो संतोष की उच्च सात्विक तृप्ति अन्तः करण में उठती है वह इतनी महान है कि कोई भी भौतिक सुख उसकी तुलना नहीं कर सकता।

कृपण और कंगाल में कोई भेद नहीं। कंजूस आदमी जिसका दान के अवसर पर प्राण सूखता है सचमुच इस सृष्टि का बड़ा अभागा प्राणी है। पूर्व संचित पुण्य पूँजी के समाप्त होते ही उसकी कंगाली प्रकट हो जाती है। पैसे ही सर्प की तरह चौकीदारी करने वाला मनुष्य दान के स्वर्गीय आत्म-सुख का रसास्वादन करने से वंचित रहता है। इसके विपरीत जो देता है वह सच्चा अमीर है पैसा न होने पर भी वह सुसम्पन्न व्यक्तियों को मिलने वाले सभी वैभवों का सुख उसे अनायास ही मिल जाता है। जो देता है वह अपने आपको बचाता है किन्तु जो प्रकृति के प्रवाह को रोकता है देने से इंकार करता है, वह अपने आपको नष्ट कर लेता है।

संकीर्णता छोड़ दीजिए, आपके पिता के खजाने में बहुत भरा हुआ है। वह आपके लिए किसी वस्तु की कमी न पड़ने देगा। साँस को हम पेट से निकालते हैं, क्षण भर बाद ही नई ताजी स्वच्छ हवा साँस लेने के लिए प्राप्त हो जाती है। यदि आप दूसरों को देंगे तो परमात्मा आपको और देगा, परन्तु यदि कंजूसी करेंगे तो आपको मिलना भी बंद हो जायेगा। जो उदार है, दानी है सत्कर्मों में अपनी सामर्थ्य भर देता है वास्तव में वहीं बुद्धिमान है और बुद्धिमानों का ही भविष्य उज्ज्वल होता है।


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