आस्तिक बनो।

December 1945

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परमात्मा सर्वत्र व्यापक है, इस सत्य को जानते तो अनेक लोग हैं पर उसे मानते नहीं। व्यवहार में नहीं लाते। जो परमात्मा को सर्वव्यापी, घट-घट वासी मानेगा, उसका जीवन उसी क्षण पूर्ण पवित्र, निष्पाप और कषाय-कल्मषों से रहित हो जायेगा। गीता में भगवान ने कहा है कि जो मेरी शरण में आता है, जो मुझे अनन्य भाव से भजता है वह तुरन्त ही पापों से छूट जाता है निःसंदेह बात ऐसी ही है। भगवान की शरण में जाने वाला, उस पर सच्चा विश्वास करने वाला, उस पर पूर्ण आस्था रखने वाला, एक प्रकार से जीवन मुक्त ही हो जाता है।

ईश्वर का विश्वास और सच्चा जीवन एक ही वस्तु के दो नाम हैं। जो भगवान का भक्त है, जिसने तब छोड़ कर प्रभु के चरणों में आत्म समर्पण कर गया है। जो परमात्मा की उपासना करता है उसे जगत-पिता की सर्व व्यापकता पर आस्था जरूर होनी चाहिए। यदि वह विश्वास दृढ़ हो जाय कि भगवान जर्रे-जर्रे में समाया हुआ है, हर जगह मौजूद है तो पाप कर्म करने का साहस ही नहीं हो सकता। ऐसा कौन सा चोर है जो सावधान खड़ी हुई सशस्त्र पुलिस के सामने चोरी करने का साहस करे, चोरी, व्यभिचार, ठगी, धूर्तता, दंभ, असत्य, हिंसा आदि के लिए आड़ की, पर्दे की, दुराव की जरूरत पड़ती है। जहाँ मौका होता है इन बुरे कामों को पकड़ने वाला नहीं होता, वहीं इनका किया जाना संभव है। जहाँ धूर्तता की भली प्रकार समझने वालों देखने वाले और पकड़ने वाले लोगों की मजबूत ताकत सामने खड़ी होती है। वहाँ पाप कर्मों का हो सकना संभव नहीं। इसी प्रकार जो इस बात पर सच्चे मन से विश्वास करता है कि परमात्मा सब जगह मौजूद है वह किसी भी दुष्कर्म के करने का साहस नहीं कर सकता।

बुरा काम करने वाला पहले यह भली प्रकार देखता है कि मुझे देखने वाला या पकड़ने वाला तो कोई यहाँ नहीं है। जब वह भली-भाँति विश्वास कर लेता है कि उसका पाप कर्म किसी भी दृष्टि या पकड़ में नहीं आ रहा है तभी वह अपने काम में हाथ डालता है। इसी प्रकार जो व्यक्ति अपने का परमात्मा की दृष्टि या पकड़ से बाहर मानते हैं वे ही दुष्कर्म करने को उद्यत हो सकते हैं। पाप कर्म करने का स्पष्ट अर्थ यह है कि यह व्यक्ति ईश्वर का मानने का दंभ भले ही करता हो पर वास्तव में वह परमात्मा के आस्तित्व से इनकार करता है। उसके मन को इस बात पर भरोसा नहीं है कि परमात्मा यहाँ मौजूद है। यदि विश्वास होता तो इतने बड़े हाकिम के सामने किस प्रकार उसके कानूनों का तोड़ने का साहस करता है। जो व्यक्ति एक पुलिस के चपरासी को देखकर भय से थर-थर काँपा करते हैं वे लोग इतने दुस्साहसी नहीं हो सकते कि परमात्मा जैसे सृष्टि के सर्वोच्च अफसर की आँखों के आगे, न करने योग्य काम करें, उसके कानून को तोड़े, उसको क्रुद्ध बनावें, उसका अपमान करें। ऐसा दुस्साहस तो सिर्फ वही कर सकता है जो यह समझता हो कि ‘परमात्मा’ कहने, सुनने भर की चीज है। वह पोथी पत्रों में मन्दिर मठों में नदी, तालाबों में या कहीं स्वर्ग नरक में भले ही रहना चाहेगा, पर हर जगह वह नहीं है। मैं उसकी दृष्टि और अकड़ से बाहर हूँ।

जो लोग परमात्मा की सर्व व्यापकता पर विश्वास नहीं करते, वे ही नास्तिक है। जो प्रकट या अप्रकट रूप से दुष्कर्म करने का साहस कर सकते हैं वे ही नास्तिक हैं। इन नास्तिकों में कुछ तो भजन पूजा बिल्कुल नहीं करते, कुछ करते हैं। जो ही करते ही वे सोचते हैं व्यर्थ का झंझट मोल लेकर उसमें समय गंवाने से क्या फायदा? जो पूजन भजन करते हैं वे भीतर से तो न करने वालों के समान ही होते हैं पर व्यापार बुद्धि से रोजगार के रूप में ईश्वर की खाल ओढ़ लेते हैं। कितने ही लोग ईश्वर के नाम के बहाने ही अपने जीविका चलाते हैं हमारे देश में करीब 56 लाख आदमी ऐसे हैं जिनकी कमाई पेशा, रोजगार ईश्वर के नाम पर है। यदि वे यह प्रकट करें कि हम ईश्वर को नहीं मानते तो उसी दिन उनकी ऐश आराम देने वाली बिना परिश्रम की कमाई हाथ से चली जायेगी। इसलिए इन्हें ईश्वर को उसी प्रकार ओढ़े रहना पड़ता है। जैसे जाड़े से बचने के लिए गर्मी देने वाले कम्बल को ओढ़े रहते हैं जैसे ही वह जरूरत पूरी हुई वैसे ही कम्बल को एक कोने में पटक देते हैं। यह तिजारती लोग जनता के समझ अपनी ईश्वर भक्ति का बड़ा भारी घटाटोप बाँधते हैं क्योंकि जितना बड़ा घटाटोप बाँध सकेंगे उतनी ही अधिक कमाई होगी। तिजारती उद्देश्य पूरा होते ही वे अपने असली रूप में आ जाते हैं। पापों से खुलकर खेलते हुए एकान्त में उन्हें जरा भी झिझक नहीं होती।

एक तीसरी किस्म के नास्तिक और हैं। वे प्रत्यक्ष रूप में ईश्वर के नाम पर रोजी नहीं चलाते बल्कि उलटा उसके नाम पर कुछ खर्च करते हैं। ईश्वर का आडम्बर उनके द्वारा आये दिन रचा जाता रहता है। शरीर पर ईश्वर भक्ति के चिह्न धारण किये रहते हैं, घर में ईश्वर के प्रतीक मौजूद होते हैं, ईश्वर के निमित्त कहे जाने वाले कर्मकाण्डों का आयोजन होता रहता है। ईश्वर भक्त कहलाने वालों का स्वागत सत्कार भेंट पूजा होती रहती है। यह सब इसलिए होता है कि लोग उनके संबंध में अच्छे ख्याल रखें, उनका आदर करें, उन्हें धर्मात्मा समझें, उनके जीवन भर के कुकर्मों की कलई न खोलें और आज भी जो उनके दुष्कर्म चल रहे हैं वे छिपे रहें।

चौथे प्रकार के नास्तिक ये हैं जो पाप छिपाने या धन कमाने के लिए नहीं किन्तु अपने को पुजवाने के लिए यश और श्रद्धा प्राप्त करने के लिए ईश्वर भक्त बनते हैं, इसके लिए कुछ त्याग और कष्ट भी उठाते हैं, पर भीतर से उन्हें प्रभु की सर्व व्यापकता पर आस्था नहीं होती। कुछ लोग रिश्वत के रूप में ईश्वर भक्ति की साधते हैं अमुक भोग ऐश्वर्य की लालसा उन्हें उसी मार्ग पर ले जाती है जिस प्रकार आज कल घूस-खोर हाकिमों को एक मोटी रकम भुका कर लोग मनमाना काम करवा लेते हैं और थैली खर्च करके थैला भरने में सफल हो जाते हैं। कुछ लोग तथा कथित ऋद्धि-सिद्धियों और न जाने किन-किन अप्रत्यक्ष वैभवों के मनसूबे बाँध कर उसे प्राप्त करने की फिक्र में ईश्वर के दरवाजे खटखटाते रहते हैं।

इस प्रकार प्रत्यक्षतः ईश्वर भक्त दिखाई देने वालों में भी असंख्यों मनुष्य ऐसे हैं जिनकी भीतरी मनोभूमि परमात्मा से कोसों दूर है। उनका निजी जीवन, घरेलू आचरण, व्यक्तिगत व्यवहार ऐसा नहीं होता जिससे यह प्रतीत होता है कि यह ईश्वर को हाजिर नाजिर समझ कर अपने को बुराइयों से बचाते हैं। ऐसे लोगों को किस प्रकार आस्तिक कहा जाय? जो पापों में जितना ही अधिक लिप्त है। जिसका व्यक्तिगत जीवन जितना ही दूषित है वह उतना ही बड़ा नास्तिक है। लोगों को धोखा देकर अपना स्वार्थ साधना, छल, प्रपंच, माया, दंभ, भय, अत्याचार, कपट और धूर्तता से दूसरों के अधिकारों को अपहरण कर स्वयं सम्पन्न बनना नास्तिकता का स्पष्ट प्रमाण है। जो पाप करने का दुस्साहस करता है वह आस्तिक नहीं हो सकता, भले ही वह आस्तिकता का कितना ही बड़ा प्रदर्शन क्यों न करता हो।

ईश्वर भक्ति का जितना ही अंश जिसमें होगा वह उतने ही दृढ़ विश्वास के साथ ईश्वर की सर्व व्यापकता पर विश्वास करेगा, सबसे प्रभु को समाया हुआ देखेगा। आस्तिकता का दृष्टिकोण बनते ही मनुष्य भीतर और बाहर से निष्पाप होने लगता है। अपने प्रियतम को घट-घट में बैठा देख कर वह सबसे नम्रता का मधुरता का स्नेह का आदर का सेवा का सरलता शुद्धता और निष्कपटता से भरा हुआ व्यवहार करता है। भक्त अपने भगवान के लिए व्रत, उपवास, तप, तीर्थ यात्रा आदि द्वारा स्वयं कष्ट उठाता है और अपने प्राणबल्लभ के लिए नैवेद्य, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, भोग प्रसाद आदि कुछ न कुछ अर्पित करता ही करता है। “स्वयं कष्ट सहकर भगवान को कुछ समर्पण करना” पूजा की सम्पूर्ण विधि व्यवस्थाओं का यही तथ्य है। भगवान को घट-घट वासी मानने वाले भक्त अपनी पूजा विधि को इसी आधार पर अपने व्यवहारिक जीवन में उतारते हैं। वे अपने स्वार्थों की उतनी परवा नहीं करते, खुद कुछ कष्ट भी उठाना पड़े तो उठाते हैं पर जनता जनार्दन को, नरनारायण को अधिक सुखी बनाने में वे दत्त चित्त रहते हैं लोक सेवा का, व्रत लेकर वे घट-घटवासी परमात्मा की जीवन व्यावहारिक रूप से पूजा करते हैं। ऐसे भक्तों का जीवन-व्यवहार बड़ा निर्मल, पवित्र, मधुर और उदार होता है। आस्तिकता का यही तो प्रत्यक्ष लक्षण है।

पूजा के समस्त कर्मकाण्ड इसलिए हैं कि मनुष्य परमात्मा को स्मरण रखे, उसके अस्तित्व को अपने चारों ओर देखे और मनुष्योचित कर्म करे। पूजा, अर्चना, वन्दना, कथा, कीर्तन, व्रत, उपवास, तीर्थ आदि सबका प्रयोजन मनुष्य की इस चेतना की जाग्रत करना है कि परमात्मा की निकटता का स्मरण रहे और ईश्वर के प्रेम एवं श्रद्धा द्वारा लोक सेवा का व्रत रखे और ईश्वर के क्रोध से डर कर पापों से बचे। जिस पूजा उपासना से यह उद्देश्य सिद्ध न होता हो, वह व्यर्थ है। जिस उपाय से भी “पाप से बचने और पुण्य में प्रवृत्त होने” का भाव उठें वह उपाय ईश्वर भक्ति की साधना ही है।

पाठको! ईश्वर की खाल मत ओढ़ो? सच्चे ईश्वर भक्त बनो। भक्ति को मंदिरों को धरोहर मत बनाओ, उसे व्यवहारिक जीवन में उतार लो। वाचक ज्ञानी मत बनो, कर्मनिष्ठा सीखो। ईश्वर के थन लाठियों से मत छुओ उसे अपने में ओत-प्रोत कर लो। विडम्बना को छोड़ो, परमात्मा के चरणों से लिपट जाओ उसे अपने अंतःकरण के भीतरी कोने में बिठा लो। अपनी दृष्टि को परमात्मा मय बना लो। तुम्हारा जीवन सच्चे आस्तिक का पवित्र जीवन होना चाहिए। अपवित्र जीवन तो प्रत्यक्ष नास्तिकता है।

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