सत्य की स्वीकृति

March 1942

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अग्ने व्रत पते’ व्रतं चरिष्यामि,

तच्छ केयं तन्मे राध्यताम्।

इदमहमनृनात् सत्यमुपैमि॥

अर्थ- (वा.यजु.1-5)

“हे नियमों के पालक अग्ने! मैं नियम का पालन करूंगा। उसका पालन करने के लिये मैं समर्थ होऊँ। उसमें मुझे सिद्धि प्राप्त हो। मैं इस असत्य को छोड़कर सत्य को स्वीकार करता हूँ।”

हे अग्ने! तेजस्वरूप परमात्मन्! अब तक मैं नियमों से अपरिचित था, या परिचित होकर भी उनके पालन करने में प्रमाद करता था। मोह मदिरा में उन्मत्त होकर मैंने आपकी व्यवस्था को पहचानने की कोशिश नहीं की थी, या पहचान कर भी भुला दिया था। अब आगे से ऐसा न करूंगा। हे प्रभो! आज से मैं नियम-बद्ध होने की प्रतिज्ञा करता हूँ। आगे से आपके नियमों को पहचानूँगा और उन पर चलने का प्रयत्न करूंगा।

मैं इस असत्य को छोड़कर सत्य को स्वीकार करता हूँ। यह सत्य स्वीकार करने की भावना ही सत्य बनने की प्रथम सीढ़ी है। अब मैं अनुभव करूंगा कि आत्मा अखण्ड है। जीवन अखण्ड है, जगत अखण्ड है। नाथ! आपका ही तो वरद पुत्र हूँ, मेरा ‘अहम’ आपकी ही अखण्ड-ज्योति की एक विनम्र चिनगारी है, मैं क्षुद्र जीव नहीं हूँ, नीच या दुष्ट कर्मी कीड़ा नहीं हूँ, आपके पवित्र तेज से पोषण पाता हुआ मेरा आत्म भी पवित्र है, संसार में आप ही व्याप्त हैं। सम्पूर्ण विश्व आपकी प्रभा से आलोकित हो रहा है, सो हे उद्धारक! आपकी विश्वव्यापी विभूति को मैं प्रणाम करता हूँ।

मेरे अन्दर आपकी ही ज्योति जगमगा रही है, मैं आत्मा के अन्दर झिलमिलाते हुए आप परमात्मा का श्रद्धापूर्वक दर्शन करता हूँ। आपको, परमात्मा को, आपके तेज आत्मा को, एक ही दृष्टि से देखकर दोनों की एक समान पूजा-उपासना करूंगा। आत्मा के रूप में जब आप हर घड़ी मेरे साथ हैं, तो हे नाथ! हर घड़ी आपकी पूजा करूंगा। हर क्षण आपकी उपासना में तल्लीन रहूँगा। आपकी आज्ञा को मानूँगा। आपके नियमों को स्वीकार करूंगा। मैं जानता हूँ कि पवित्र कर्मों से ही आपकी उपासना हो सकती है। मैं जानता हूँ कि धर्म का आचरण करते देखकर ही आप प्रसन्न होते हैं। प्रभो! आपके मन्दिर को, इस शरीर को, सब प्रकार भीतर-बाहर से पवित्र रखने का मैं प्रयत्न करूंगा। कुकर्म रूपी चाण्डालों से आपके इस मन्दिर की रक्षा करूंगा। आप साक्षी रूप से देखते रहिए, मैं ऐसे काम न करूंगा जिससे मेरे अन्दर बैठे हुए, हे परमात्मन्, आपको लज्जित होना पड़े। आत्मा अखण्ड है, इसलिये मैं भी अखण्ड रहूँगा। प्रभु मैं आपका ही हूँ, आपके साथ ही चिपटा रहूँगा।

हे अग्ने! सत्य के दूसरे चरण को भी मैं स्वीकार करता हूँ। जीवन नाशवान् है, असत्य को त्याग कर अखण्ड जीवन की सत्यता पर विश्वास करने की प्रतिज्ञा करता हूँ। मैं अनादि काल से हूँ और अनादि काल तक रहूँगा। आपने मुझे यह अखण्ड जीवन प्रदान किया है। हाय! मैं कैसा अभागा हूँ, जो शरीर छूटने तक के, कपड़े बदलने तक के, थोड़े से समय को जीवन मान लेता हूँ और एक शरीर के लिये, एक कपड़े के लिये अपने वास्तविक जीवन को खतरे में डाल लेता हूँ। एक पल के सुख के लिये वर्ष भर दुःख उठाने वाले मूढ़ की तरह मैं शरीर के लिये कुकर्म करके महान जीवन को नष्ट करता हूँ। जब मैंने भ्रमवश शरीर को जीवन माना, तो माया में लिप्त होकर पतित हो गया। अपने स्वर्णिम सिंहासन को छोड़कर नाली की कीचड़ में लोटने लगा, पर हे विभु! आज उस असत्य भ्रम को त्याग कर सत्य को स्वीकार करता हूँ। जीवन को नश्वर नहीं अखण्ड मानूँगा। शरीर कपड़े हैं, इनको अब दूसरे रूप में न समझूँगा। हे व्रतपते! अब मैं व्रत का आचरण करूंगा।

हे रुद्र! जब मैं चैतन्यता के पद से पतित होकर अब पंचभूतों के रेत में गधे की तरह लोटने लगा, तो उन्हीं को अपनी समानता का समझने लगा। सिंह का बच्चा भेड़ों में पल कर अपने को भेड़ समझने लगा था। मैंने अपने को जड़ मान लिया। रुपया-पैसा, भूमि, जायदाद, वस्त्र-आभूषण, तथा प्राणियों के शरीरों को मैं स्थिर मानता हूँ और जब वे नष्ट हो जाते हैं, तो बिलख-बिलख कर रोता हूँ। मित्र परिजनों के शरीरान्त होने पर छटपटा जाता हूँ और आत्महत्या करने को तत्पर होता हूँ। हे परमात्मन्! अज्ञानवश मैं जड़-चैतन्य का भेद करना भूल गया, इसलिए मोह की रस्सियों में बँधा-बँधा बिलख रहा हूँ। जड़ पदार्थ नाशवान हैं। वे स्वभावतः एक-एक करके नष्ट होते रहते हैं। हर लहर को उठता देखकर खुशियों से उछलता हूँ, और हर बबूले को फूटता देखकर धाड़ मारकर रोता हूँ। इस हँसने-रोने की विडम्बना में मेरी आँखें सूज गई हैं और गला सूख गया है। तृष्णा के पर्वत और दुःखों के तूफान मेरे चारों ओर घूम रहे हैं। भय के मारे मेरी धमनियाँ बैठी जा रही हैं। मेरा अज्ञान प्रेत-पिशाच का विकराल रूप धारण करके मुझे ही उँगलियों पर नचा रहा है। क्षण में हँसने और क्षण में रुलाने की उसकी बाजीगरी मेरे लिये एक पहेली बन गई है। इस निविड़ बन्धन में से आप मेरा परित्राण कीजिए। जड़ को चैतन्य समझने की, नश्वर को अमर समझने की, अलग रहने वाले को साथी मानने की, मैंने भूल की है, जड़ तत्व आत्मा के साथ रहेंगे, ऐसा मैं मानता रहता हूँ। इसलिए जीवन सौंदर्य को गंवा कर सिर धुन-धुन कर रुदन करता फिरता हूँ। आज मैंने सच्चाई को समझ लिया है। जड़ जगत आत्मा का साथी नहीं हो सकता। वह जहाँ का तहाँ पड़ा रहता है और अपने अकाट्य नियमों के अनुसार बदलता रहता हैं, अब मैंने ये भली-भाँति हृदयंगम कर लिया है। इसलिए मैं असत्य को छोड़कर सत्य को स्वीकार करता हूँ और जगत अखण्ड है, इस सच्चाई को मान्य करता हूँ।

हे अग्ने! हे नियमों के पालक! एक बार फिर प्रतिज्ञा करता हूँ कि अपने नियमों का पालन करूंगा। मैं असत्य को छोड़कर सत्य को स्वीकार करता हूँ। उसका पालन करने में मैं समर्थ होऊँ। उसमें मुझे सिद्धि प्राप्त हो ताकि अपने आत्मा में आपका दर्शन करता हुआ अपने परमपद का अधिकारी होऊँ।


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