बड़ा आदमी

March 1942

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(श्री दरबारी लाल जी ‘सत्य भक्त’)

मैंने कहा- मेरे पास अटूट धन है, करोड़ों की आमदनी है, हजारों नौकर हैं, एक से एक बढ़कर महल हैं, सैकड़ों विद्वान मेरे गीत गाते हैं, मेरी तारीफ में बड़े-बड़े पत्रों में बड़े-बड़े लेख निकलते हैं, मैं बड़ा आदमी हूँ।

उसने कहा- ‘न’! तू तो लक्ष्मी का वाहन हो सकता है।

मैंने कहा- मैं विजेता हूँ, मैं पूरा सम्राट हूँ। दुनिया के बड़े-बड़े मुल्कों को मैंने जीता है, मेरे नाम से बड़े-बड़े मुल्क थर्राते हैं, बड़ों-बड़ों की जान मेरी मुट्ठी में है, मैं जिसका चाहूँ उसका सिर उड़ा दूँ, मैं बड़ा आदमी हूँ।

उसने कहा- न! तू तो कसाई हो सकता है।

मैंने कहा- मेरी घर-घर में पूजा होती है, मेरे दर्शनों के लिये लोग दौड़े आते हैं, मेरे चरणों को चूमते हैं, मेरी हर एक बात श्रद्धा से सुनते हैं, नीति की अनीति और अनीति की नीति मनवाना मेरे हाथ में है, सब मुझे जगत गुरु कहते हैं, मैं बड़ा आदमी हूँ।

उसने कहा- न! तू तो गौ मुख व्याघ्र हो सकता है।

मैंने कहा- मैं कलाकार हूँ, जहाँ पहुँच जाता हूँ, बड़ी भीड़ लग जाती है, चारों तरफ से वाह-वाह होने लगती है, राजा-महाराजा, धन, कुबेर, अधिकारी, बहादुर, सब मुझे चाहते हैं, मेरी तरफ ताकते हैं, मैं बड़ा आदमी हूँ।

उसने कहा- न! तू वह सड़ी मिठाई हो सकता है जिस पर अनेक तरह की मक्खियाँ भिनभिनाया करती हैं।

मैंने कहा- मैं किसी का कुछ नहीं बिगाड़ सकता, लोगों को अपने जाल में नहीं फँसा सकता, उन्हें लुभा नहीं सकता, मेहनत करके अपनी रोटी कमा लेता हूँ, कभी-कभी किसी की सेवा कर पाता हूँ, जो सत्य मुझे मिला है वह हजारों में एकाध है। थोड़ा बहुत समझ पाता हूँ, लोग मुझे अपनी इच्छा के अनुसार नचवाना चाहते हैं, पर मैं नहीं नाच पाता। संतोष, मेहनत और ईश्वर का भरोसा ही मेरी पूँजी है। मैं गरीब हूँ। बहुत मामूली आदमी हूँ।

उसने कहा- तू आदमी है, सच्चा आदमी है। इसीलिये बड़ा आदमी है। ।

नई दुनिया।

कथा-


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