पिछले दो अंकों में यह सविस्तार बताया जा चुका है कि अब नवीन युग की सुनहरी बेला प्रारम्भ होने वाली है। समय एक बड़ी जबरदस्त करवट ले रहा है। इस करवट के साथ ऐसे-ऐसे परिवर्तन होंगे जिसकी कि इस समय कल्पना भी नहीं की जा सकती। यह उलट-पुलट केवल राजनैतिक तक ही सीमित न समझनी चाहिए, वह तो एक बाह्य चिन्ह मात्र होगी। वास्तव में इस समय बौद्धिक क्रान्ति होनी जा रही है। सड़ी-गली विचारधाराओं से चिपकी हुई मनुष्य जाति को ईश्वरीय सत्ता की ओर से एक नवीन सन्देश प्राप्त हो रहा है। यह सन्देश भयानक घटनाएं तो घटित कर ही रहा है, साथ ही एक नवीन व्यवस्था भी कायम करने के लिये प्रयत्नशील है। यह नयी व्यवस्था मनुष्य का जीवन व्यतीत करने के सम्बन्ध में नया दृष्टिकोण उपस्थित करेगी। सदियों से हम लोग तुच्छ स्वार्थों को अपना ध्येय मानकर अनर्थ करते रहे हैं। “मैं लूँगा, दूसरे को न दूँगा” की नीति से कलह के बीज बोये और उन पर रक्तपात के फल आये। यह नीति आज इस सीमा तक बढ़ गई है- इतनी व्यापक हो गई है कि संसार चौथाई शताब्दी भी चैन से व्यतीत नहीं कर सकता। एक के बाद दूसरा महायुद्ध सिर पर आ गरजता है। बलवान व्यक्ति निर्बलों को सताता है, किन्तु उस बलवान को भी चैन नहीं क्योंकि आखिर उससे भी बलवान कोई सत्ता है, जो ठीक उसी प्रकार बलवान को दण्ड देती है, जैसा कि उसने निर्बलों को दिया था। इस छीना-झपटी की नीति के कारण छोटे से लेकर बड़े तक, निर्बल से लेकर बलवान तक किसी को चैन नहीं। कुकर्म और दण्ड, अत्याचार और दुःख, एक दूसरे से बंधे हुए हैं। इनके ताने-बाने में उलझा हुआ संसार बेचैनी और पीड़ाओं से बुरी तरह चीत्कार कर रहा है।
अन्तरिक्ष से एक सत्ता ऐसे समय में कहती है कि उलटा चलने का यही परिणाम है। मनुष्य की नीति होनी चाहिये- “मुझे नहीं चाहिए, आप लीजिए।” यही नीति है, जिसके आधार पर सुख और शान्ति का होना सम्भव है। “मैं लूँगा, आपको नहीं दूँगा।” की नीति को कैकेई ने अपना कर अयोध्या को नरक बना दिया था। सारी नगरी विलाप कर रही थी। दशरथ ने तो प्राण ही त्याग दिये। राजभवन मरघट की तरह शोकपूर्ण हो रहा था। राम जैसे निर्दोष तपस्वी को वनवास ग्रहण करना पड़ा। किन्तु जब ‘मुझे नहीं चाहिए, आप लीजिए’ की नीति व्यवहार में आई तो दूसरे ही दृश्य उपस्थित हो गये। राम ने राज्याधिकार को त्यागते हुए भरत से कहा- बन्धु, तुम्हें राज्य सुख प्राप्त हो, मुझे यह नहीं चाहिए। सीता ने कहा- नाथ, ये राज्यभवन मुझे नहीं चाहिए, मैं तो आपके साथ रहूँगी। सुमित्रा ने लक्ष्मण से कहा- “जो पै राम सीया वन जाहीं। अवध तुम्हार काम कछु नाही।” पुत्र! जहाँ राम रहें वहीं अयोध्या मानते हुए उनके साथ रहो। कैसा स्वर्गीय प्रसंग है। भरत ने तो इस नीति को और भी सुन्दर ढंग से चरितार्थ किया। उन्होंने राजपाट में लात मारी और भाई के चरणों से लिपट कर बालकों की तरह रोने लगे। भाई! मुझे नहीं चाहिए, इसे तो आप लीजिए। राम कहते है- भरत मेरे लिए तो वनवास ही अच्छा है। राज्य-सुख तुम भोगो। त्याग के इस सुनहरी प्रसंग में स्वर्ग छिपा हुआ है, एक परिवार के कुछ व्यक्तियों ने त्रेता को सतयुग में परिवर्तित कर दिया। सारा अवध राज्य सतयुगी रंग में रंग गया। वहाँ के सुख सौभाग्य का वर्णन करते-करते वाल्मिकी और तुलसीदास अघाते नहीं हैं।
अब ‘मैं लूँगा’ की नीति रूपी निशा समाप्त होकर ‘आप लीजिए’ की सुनहरी प्रभात होने वाली है। प्रभु ने मनुष्य को इसलिए इस पृथ्वी पर नहीं भेजा है कि वे एक दूसरे को लूट खाएं और आपस में रक्त की होली खेलें। बालकों को यह सत्यानाशी खेल खेलते हुए पिता अधिक देर तक नहीं देख सकता। वह अब उनका हाथ रोकेगा और बतायेगा की मूर्खों! तुम्हारा काम यह नहीं है जो कर रहे हो। अब उलटी चाल को छोड़ो और सीधी चलो। यह सीधी चाल यह है कि हर व्यक्ति “मुझे नहीं चाहिए, आप लीजिए।” की नीति ग्रहण करें। इस नीति के आधार पर विश्व की वह पेचीदा गुत्थी जिन्हें सुलझाने में आज बड़े-बड़े ऊँचे दिमाग असमर्थ है, बात की बात में सुलझ जावेंगी और शान्ति सुव्यवस्था का मार्ग, जो इस समय बहुत ही कंटकाकीर्ण प्रतीत होता है, बहुत आसानी से हो जायेगा। सतयुग हमें यही एक मंत्र देता है। इस मंत्र का अनुष्ठान करके हम सतयुग को बुला सकते हैं।
देश-देशान्तरों में फैले हुए अखण्ड-ज्योति के हजारों पाठक-पाठिकाओं से हमारा अनुरोध है कि वह सतयुग को समीप लाने के लिये तपस्या करने में जुट जावें। अपनी आवाज जहाँ तक पहुँच सकें, वहाँ तक सत्य, प्रेम और न्याय का सन्देश पहुँचावें। स्वयं सत्य के उपासक बनें और दूसरों को बनावें। अपने जीवन को उदार एवं पवित्र बनाते हुए दूसरों को सन्मार्ग पर प्रवृत्त करने का प्रयत्न करें। अपने जीवन में इस नीति को स्वीकार कर लें, कि “मुझे नहीं चाहिए, आप लीजिए।” इसी नीति की शिक्षा पड़ोसियों को दें। इस प्रकार यह भूमण्डल शीघ्र ही स्वर्ग के सतोगुणी प्रकाश से भर जायेगा। उस शुभ घड़ी को निकट लाने के लिए समस्त बन्धुगण प्रयत्न करें, ऐसा आज हमारा विनम्र अनुरोध है।