शत्रु या मित्र तुम्हीं हो

March 1942

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(ले. - स्वामी रामतीर्थ)

ये लोक देखने मात्र है। अपनी स्वप्नावस्था में तुम एक भेड़िया देखते हो और डरते हो कि भेड़िया तुम्हें खा जायेगा। तुम डर जाते हो, किन्तु जिसे तुम देखते हो, वह भेड़िया नहीं है, वह तुम खुद हो। अतः वेदान्त तुम्हें बतलाता है कि जागृत अवस्था में भी मित्र या शत्रु तुम ही हो। तुम्हीं सूर्य हो और तुम्हीं वह सरोवर हो, जिसमें सूर्य प्रतिबिम्बित होता है। तुम्हीं दीपक और पतंगा हो। तुम्हारा जो घोर से घोर शत्रु है, वह शत्रु तुम हो, दूसरा कोई नहीं। ॐ उच्चारण करते समय उस दर्जे तक तुम्हें अपने चित्त को, इस तथ्य का अनुभव कराना होगा कि सम्पूर्ण द्वेष और कुभाव चित्त से समूल उखड़ जाये, बुद्धि से निकाल दिये जाये। पृथकता के इस विचार को साफ कर दो। मित्र या शत्रु का रूप और मूर्ति कोरा स्वप्न है। तुम्हीं मित्र हो और तुम्हीं शत्रु हो। कल तुमने जो बातें की थीं, क्या आज तुम्हारे साथ हैं? क्या वे स्वप्न नहीं हैं? वे चली गईं। कल की वस्तुएं कहाँ हैं? क्या वे चली नहीं गईं? इसी अर्थ में जाग्रत अवस्था का अनुभव भी स्वप्न है, स्वप्नावस्था का अनुभव स्वप्न है। असली खरी नगदी कठोर तत्व तो वास्तविक आत्मा के पीछे आधारभूत है, यह अनुभव करो।

केवल चिकित्सा-चन्द्रोदय सात भाग से

आयुर्वेद-आचार्य परीक्षा की और स्वर्ण-पदक प्राप्त किया।

एकलव्य और गुरु द्रोणाचार्य का उदाहरण।

श्रीमन् महोदय श्री 107 पूज्य वैद्य राज जी, साष्टाँग दण्डवत्!

“मेरी हार्दिक अभिलाषा है कि मैं आपका शिष्य होऊँ तथा श्रीमान् के आयुर्वेदिक ज्ञान से अपने को कृत्कृत्य करूं। मैं हृदय से सदैव आपको ही अपना गुरु मानता हूँ कारण सन 1922 से मैं आयुर्वेदिक का अभ्यास कर रहा हूँ। और इसका श्रीगणेश श्रीमान् की लिखी पुस्तक चिकित्सा-चन्द्रोदय के द्वितीय संस्करण से आरम्भ होता है और उसी की सहायता से अखिल भारतवर्षीय विद्वत् सम्मेलन से स्वर्ण-पदक परीक्षा में बैठ कर 80 विद्यार्थियों के साथ आयुर्वेदाचार्य की उपाधि प्रथम श्रेणी में प्राप्त की है तथा पूर्ण सफलता से काम कर रहा हूँ। उपरोक्त परीक्षा में समस्त परचे चरक, सुश्रुत, बाणभट्ट, शारंगधर, माधव निदान चक्रदत्त, रस रत्न समुच्चय इत्यादि में से बनाये गये थे। प्रथम परचे जब सामने आये और उक्त पुस्तकों के नाम देखे तो हृदय सशंकित हुआ कि मैंने यह पुस्तकें देखी तो हैं नहीं, फिर किस प्रकार उत्तर दूँगा, किन्तु जब प्रश्नों को समझा तो वही विषय था, जो नित्य आपकी पुस्तकों में देख करता था। अतएव भगवान् का ध्यान करके लिखने लगा तो हरि इच्छा से 80 विद्यार्थियों में सर्वप्रथम आकर स्वर्ण-पदक ससम्मान प्राप्त किया।

इस प्रभु के चमत्कार को देखकर स्वयं परीक्षकगण कहते थे कि, आपकी तरफ से यह आशा न थी। कारण साथियों में से अधिकाँश उन्हीं संस्कृत पुस्तकों को सैकड़ों बार पढ़ कर परीक्षा में सम्मिलित हुए थे, किन्तु उन महान ग्रन्थों में जो गूढ़ विषय है, उनको न समझने के कारण उन्हें असफल होना पड़ा। स्वयं परीक्षक श्री शास्त्री विद्वासागर, काव्यतीर्थ, साहित्याचार्य महामहोपाध्याय, विश्वविद्यालय दक्षिण हैदराबाद प्रोफेसर हरिहर द्विवेदी जी ने स्वर्ण पदक प्रदान करते समय यह कहा कि, हल नहीं जानते थे कि संस्कृतज्ञों के मध्य में एक हिन्दी जानने वाला इस पदक का भागी होगा, अतः यह सब सम्मान भगवन् आप ही का है। अब अन्तिम इच्छा यही है कि जो ऊपर प्रगट कर चुका हूँ। दया कर स्वीकार कीजिये। आज्ञा पाते ही दास सेवा, को उपस्थित होगा, तथा जो आयुर्वेद के गूढ़ विषय मेरी बुद्धि से परे हैं, उनकी व्याख्या गुरु-मुख से सुन अपने को कृतार्थ करूंगा, तथा गुरु-भार से उऋण हो अपने कर्तव्य का पालन करूंगा। वह एकलव्य और द्रोणाचार्य का उदाहरण है।”

आज्ञाकारी-

हरिदास एण्ड कम्पनी आयुर्वेदाचार्य कुँ. मुहताबसिंह शास्त्रि

गलो रावलिया, मथुरा। Kr. Mahtab Singh Shastri

रियासत चंदावारा, पोस्ट जलेसर, जिला मथुरा।


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