बाहर से जो ईंधन डाला जाता है, वह भीतरी आत्मशक्ति को शनैः शनैः जगाने में समर्थ होता है। साधनावस्था में सत्संग जितना ही अधिक होता है, उतना ही मंगल होता है।
पहले आत्मा का ज्ञान प्राप्त करना चाहिये, तत्पश्चात् ऊर्ध्व प्रकृति या पराप्रकृति का रहस्य समझने में तन्मय होना चाहिए। मन रूपी क्षेत्र में शक्ति का संचार होने से ही इस परा प्रकृति के रहस्य का ज्ञान होता है।
कर्म की गति के पहले की अपेक्षा कुछ शिथिल हो जाने की भी बहुत बड़ी सम्भावना रहती है और वह शिथिल हो भी सकती है, किन्तु इससे कोई हानि नहीं हो सकती। स्थिर स्थायी कर्म से तो सत्य और महान शक्ति की उत्पत्ति होती है, हम कर्म का त्याग करने के लिये नहीं कह रहे हैं। अतः सब कर्म छोड़ देने पर भी कर्म, त्याग, पूर्ण सहनशीलता के धारण करने की शक्ति का रहना आवश्यक है।
ध्यान करते समय बैठे रहने पर चिन्ता-प्रवाह जब कम हो जायें, तब इस ओर पूरी शक्ति लगानी चाहिए। ऐसा करने से भीतर से शान्ति उत्पन्न होगी और इस शान्ति से ज्ञान के प्रकाश से मानव परिपूर्ण हो जायेगा।
पहले अपने को सारी चिन्ताओं से रहित कर दो, मन और बुद्धि को बिल्कुल खाली कर देने से एक स्तब्ध शान्त भाव आता है। उस समय ऊपर से एक आदमी बिल्कुल स्पष्ट रीति से बात कहना प्रारम्भ कर देता है। जो कुछ कहना होता है, वही वह कहता है, जो कुछ करने का काम होता है, वही वह करता है।
जो संन्यासी आचार-विचार, कर्तव्याकर्तव्य और पाप-पुण्य की अवहेलना कर मदोन्मत्त और पिशाच सदृश आचरण करता है, उसी सर्व धर्म त्यागी पुरुष को हम श्रेष्ठ कहते हैं, परमहंस कहते हैं।