बहुत से लोग योग की आध्यात्मिक साधनाओं द्वारा दिव्य शक्तियाँ प्राप्त करना चाहते हैं, पर उनमें से अधिकाँश को सफलता नहीं मिलती। कारण यह है कि वे सूक्ष्म कारण और लिंग शरीरों द्वारा उतना काम लेना चाहते हैं, जितना कि वे करने में असमर्थ होते हैं, जिस प्रकार भारी बोझा उठाने के लिये मजबूत शरीर चाहिए, उसी प्रकार गहन आत्मिक क्रियाओं को करने के लिये स्वस्थ शरीर की आवश्यकता है।
यह बात धर्म शास्त्रों द्वारा ही नहीं, विज्ञान द्वारा भी सिद्ध हो चुकी है कि स्थूल शरीर की भाँति मनुष्य के सूक्ष्म शरीर भी होते हैं और वे उसी तरह निर्बल, बलवान, स्वस्थ, रोगी, पूर्ण, अपूर्ण भी होते हैं, जैसे कि हमारा प्रत्यक्ष शरीर होगा। कई बार कोई बीमारी इन सूक्ष्म शरीरों तक पहुँच जाती है, तब उसका इलाज बहुत कठिन हो जाता है, क्योंकि दवा-दारु बाह्य शरीर तक ही अपना प्रभाव पहुँचाती है।
जिनका स्थूल शरीर निर्बल या रोगी है, उनके सूक्ष्म शरीर भी वैसे ही अपूर्ण बन जाते हैं। यदि मानसिक दुर्गुणों की भरमार हो तो देह के स्वस्थ होते हुए भी अन्तः शरीर विकार ग्रस्त हो जाते हैं। आध्यात्मिक साधनाओं में स्थूल शरीर को उतना परिश्रम नहीं करना पड़ता, जितना कि भीतरी शरीरों को। जब वे निर्बल-दुर्बल या जीर्ण-शीर्ण होते हैं तो अपने दैनिक कर्तव्यों को भी ठीक तरह पालन नहीं कर पाते, फिर योग साधना जैसे कठिन व्यायामों का करना तो उनके लिये दुरूह होता है। अभ्यासी प्रयत्न तो करता है, लेकिन जैसे एक छोटा बालक भारी पत्थर को नहीं उठा पाता, उसी प्रकार वह भी उस साधना को पूरा नहीं कर पाता और अपने मान सम्मान एवं निर्दोष बनने के लिये अभ्यास प्रणाली अथवा उस महा विज्ञान में दोष लगाता है।
इस प्रकार अधूरे विधान से काम न चलेगा। योग साधना जैसे महत्वपूर्ण विधान में पारंगत होने से पहले हमें उसके मूल आधार को सुदृढ़ करना होगा। महर्षि पतंजलि ने आरम्भ में यम नियमों का विधान किया है, जिसका तात्पर्य है, सबसे पहले शरीर और मन को स्वस्थ बनाना चाहिए, तदुपरान्त आसन प्राणायाम आदि के लिए आगे बढ़ना चाहिए।
देखने में आता है कि निर्बल और रोगग्रस्त लोग भी चुटकी बजाने जितनी देर में अपने को योगी बना लेना चाहते हैं, जब कृतकार्य नहीं होते तो अविश्वास करने लगते हैं, या दंभ पर उतारू हो जाते हैं, इन दोनों का ही परिणाम घातक होता है। इसलिये आवश्यक है कि हम सबसे पहले प्राकृतिक नियमों का पालन करके शरीर को स्वस्थ बनावें। आहार-विहार ठीक रखें, स्वस्थ वायु में भ्रमण करें और नियमपूर्वक व्यायाम करें। व्यायाम करने से न केवल हमारी माँसपेशियाँ मजबूत होती हैं, वरन् सूक्ष्म शरीरों में भी बल आता है। जब बाह्य शरीर बलवान होता है, तो आन्तरिक सत्ताएं भी निर्बल नहीं रहतीं। उसी दशा में योग साधना का सफल होना भी सम्भव है।
जो आत्मा की उत्पत्ति चाहते हैं वे पहले शरीर को उन्नत बनावें। जो स्वर्ग में धर्म की सम्पत्ति जमा करना चाहते हैं, वे शरीर में ब्रह्मचर्य की पूँजी जमा करें। जिन्हें सुख और शान्ति प्राप्त करने की इच्छा है, वे मन में से कुविचारों के पिशाचों को निकाल बाहर करें। इस प्रकार जब शरीर और मन स्वस्थ और बलवान बनने लगेगा, तो सूक्ष्म शरीरों की शक्ति प्रस्फुटित होगी और योग साधना में सफल होना कठिन न रहेगा।
हमें छलाँग मार कर नहीं सीढ़ी-सीढ़ी ऊपर चढ़ना चाहिए। योग की आध्यात्मिक साधना से पहले आवश्यक है कि अपने शरीर को स्वस्थ और बलवान बनावें।