(संत कबीर)
झूठे सुख को सुख कहैं, मानव हैं मन मोद।
खलक चबेना काल का कछु मुख में कछु गोद॥
मालिन आवत देखिकर कलियाँ करि पुकार।
फूले-फूले चुन लिये, कालि हमारी बार॥
पानी केरा बुदबुदा यही हमारी जान।
एक दिना छिप जायेंगे, तारे ज्यों परभात॥
कबीर यह जग कुछ नहीं, क्षण खाग क्षण मीठ।
कालि जु बैठी माडिया, आज मसाँणाँ दीठ॥
मरता-मरता जग मुआ, औसर मुआ न कोइ।
कबीर ऐसे मरि मुआ, जो बहुरि न मरना होइ॥
वैद मुआ, रोगी मुआ, मुआ संकल संसार।
एक कबीरा ना मुआ, जिनका राम आधार॥
हम घर जारा आपना, लिया मुराड़ा हाथ।
अब घर जारो तास का जो चले हमारे साथ॥
कालि करन्ता अबहि करि, अब करता सो हाल।
पाछे कछु न होइगो, जौ सिर आवे काल॥
कीचड़ भाटा गिर पस्या कछू न आयो हाथ।
पीसत-पीसत चाबिया सोई बिवह्या साथ॥
कबीर जन्त्र न बाजई, टूटी गये सब तार।
जन्त्र विचारा क्या करें, चले बजावन हार॥
यहु जीव आया दूर से, भजौं सी जासी दूर।
बीच मार्ग में रमि रहा, काक रहा सिर पूर॥
काची काया मन अथिर थिर थिर काम करंत।
क्यों क्यों नर निधड़क फिरै, त्यों त्यों काल हसंन॥
बेटा जाया तो का भया, कहा बजावै थाल।
आना-जाना है रहा, ज्यों कीड़ी का नाल॥
कौड़ी- कौड़ी जोरि कै जोरे लाख करोर।
चलती बार न कछु, मिल्यो लई लँगोटी तोर॥
परभात तारे खिसै, त्यों यह खिसै शरीर।
पैं दुइ अक्षर नहिं, खसहि सौ गति रह्यौ कबीर॥
हाड़ जलै ज्यों लाकड़ी, बाल जलैं ज्यो घास।
सब जग जलता देखके, भयो कबीर उदास॥