प्रेम का भगवान

March 1942

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(श्री स्वामी विवेकानन्द जी)

एक राजा जंगल में शिकार खेलने गया, वहाँ उसे एक साधु मिले। कुछ समय तक साधु का संग करने पर राजा को बड़ी प्रसन्नता हुई और उसने साधु को कुछ देना चाहा। साधु ने कहा- मैं अपनी स्थिति से पूर्ण रूप से सन्तुष्ट हूँ, खाने के लिये ये वृक्ष मुझे यथेष्ट फल देते हैं, ये रमणीय पवित्र सलिला नदियाँ मुझे आवश्यकतानुसार जल प्रदान करती हैं, और सोने के लिये तो पहाड़ों की गुफाएं बनी ही हैं। तुम राजा हो या सम्राट मुझे तुमसे कुछ भी लेना नहीं है। सम्राट ने कहा- भगवन्! मुझे पवित्र करने और मेरा जीवन सफल करने के लिये कुछ लीजिए और कृपा पूर्वक एक बार मेरी राजधानी में पदार्पण कीजिए।

बहुत कहने-सुनने पर साधु ने सम्राट के साथ उसके नगर में जाना स्वीकार कर लिया। साधु बादशाह के महल में पहुँचे। वहाँ चारों ओर हीरे, पन्ने, मोती, माणिक आदि जवाहरात और सोने, चाँदी के पदार्थ पड़े थे, और भी बहुत सी अद्भुत बहुमूल्य वस्तुएं थीं, सभी और ऐश्वर्य और वैभव के चिन्ह दिखाई देते थे। वहाँ पहुँचने पर सम्राट ने साधु से कहा- “महाराज’ आप तनिक विश्राम कीजिए, इतने मैं प्रार्थना कर लेता हूँ,’ यह कहकर राजा एक कोने में जाकर प्रार्थना करने लगा- “प्रभो मुझे और भी अधिक ऐश्वर्य, और भी अधिक सन्तान तथा और भी अधिक राज्य प्रदान कीजिए।’ इतना सुनते ही साधु उठ कर जाने लगे। राजा ने पीछे से दौड़कर पूछा- महाराज! कहाँ जा रहे हैं, मेरी सेवा स्वीकार किए बिना कैसे लौट रहे हैं? साधु ने राजा की ओर से मुख फिरा कर कहा- “भिखारी! मैं तुझ भिखारी से भीख नहीं माँगता, तू मुझे क्या दे सकता है, तू तो स्वयं ही भीख माँगता है।”

वास्तव में राजा की प्रार्थना प्रेम की भाषा में नहीं थी। यदि भगवान से ऐसी प्रार्थना की जा सकती हो तो फिर प्रेम और दुकानदारी में भेद ही क्या रह गया? अतएव प्रेम का सर्वप्रथम यही लक्षण है कि उसमें क्रय-विक्रय नहीं है, प्रेम तो सदा दिया ही करता है, वह कभी लेता नहीं, प्रेम दाता है, ग्रहीता नहीं है। भगवान का भक्त कहता है कि - भगवान चाहे तो मैं अपना सर्वस्व उनके अर्पण कर सकता हूँ, परन्तु उनसे मैं कुछ भी लेना नहीं चाहता। इस जगत की कोई भी वस्तु मुझे नहीं चाहिए, मुझसे प्रेम किए बिना रहा नहीं जाता, इसीलिए प्रेम करता हूँ, इस प्रेम के परिवर्तन में उनसे किसी प्रकार की कृपा, भिक्षा नहीं चाहता। ईश्वर सर्वशक्तिमान है या नहीं, यह जानने की मुझे कोई आवश्यकता नहीं, क्योंकि मैं न तो उससे कोई शक्ति चाहता हूँ और न उसकी किसी शक्ति का विकास ही देखना चाहता हूँ, वह मेरे प्रेम का भगवान है। बस, इतना जान लेना मेरे लिये बहुत है। इसके अतिरिक्त मैं और कुछ भी जानना नहीं चाहता।


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