तृष्णाएँ छोड़ो!

March 1942

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(ले. ऋषि तिरुवल्लुवर)

ऐसा मत सोचिये कि इस संसार में दुख ही दुख हैं, तुम यहाँ भी स्थायी सुख प्राप्त कर सकते हो, यदि अपनी अतृप्त तृष्णाओं का परित्याग कर दो। यथार्थ में सबसे बड़ी आपत्ति तृष्णा है, वह न तो कभी शाँत होती है और न शिथिल पड़ती है। कामनाएँ पूर्ण होने पर भी सन्तोष नहीं होता, वरन् पहले से भी और अधिक प्यास बढ़ती है। कहते हैं कि मनुष्य अपूर्ण है किन्तु यदि वह अपनी वासनाएँ छोड़ दे तो इसी जीवन में पूर्ण हो सकता है।

तृष्णा एक बन्धन है जो आत्मा को जन्म-मरण के जाल में जकड़े हुए है, जिसे साँसारिक वस्तुओं की तृष्णा हरदम सताती रहती है, भला वह भव-बन्धनों से किस प्रकार पार हो सकेगा? प्रपंच का फेरा तभी तक है जब तक कि विभिन्न प्रकार की इच्छाओं ने प्राणी को बाँध रखा है। जिन्हें मुक्ति की आकाँक्षा है, जिन्हें पूर्ण सत्य की खोज करनी है, उनके लिये सर्वोत्तम साधन यह है कि अपनी इच्छा को वश में करें। इस संसार में सन्तोष से बढ़कर और कोई धन नहीं है, स्वर्ग में भी कोई संपदा इसकी समता नहीं कर सकती। कोई मनुष्य देखने में कितना ही स्वाधीन क्यों न प्रतीत हो पर वह बेचारा वास्तव में एक कैदी के समान है, चाहे वह कितना ही बड़ा धनी क्यों न हो, भिखारी से ही उसकी तुलना की जा सकती है।

यदि तुम संसार में कुछ श्रेष्ठ कर्म करना चाहते हो तो आवश्यक है कि तृष्णा और वासनाओं का परित्याग कर दो। कर्म करो, अपने कर्तव्य में त्रुटि मत रखो, परन्तु फल के लिये प्यासे मत फिरो। जो करेगा उसे मिलेगा। किन्तु जो पाने के लिये व्याकुल फिरेगा उसे आपत्तियों के पहाड़ सिर पर उठाने पड़ेंगे। जो चाहता है कि स्वर्ग का राज मेरे पाँवों तले पड़ा रहे उसे चाहिये कि अपनी तृष्णा का परित्याग कर दे।

कथा-


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118