स्वर्ग और नरक

March 1942

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(पी. जगन्नाथ राव नायडू, नागपुर)

एक बार नरक लोक के अधिपति से स्वर्ग लोक के अधिपति की भेंट हुई, दोनों में बहुत देर तक विभिन्न विषयों पर वार्तालाप होता रहा। अन्त में नरक अधिपति ने अपने कष्ट का रोना रोते हुये कहा- भगवन्! क्या कहूँ, मेरे नरक में तो रोज भीड़ की भीड़ आती है, बड़े-बड़े पातकी आते हैं, इन्हें ऐसे-ऐसे निर्दयतापूर्ण कठोर दण्ड देने पड़ते हैं कि मेरा भी कलेजा काँपने लगता है। वे पापी लोग भूलोक की तरह यहाँ नरक में आकर भी उपद्रव करते हैं और उनकी व्यवस्था करने में मुझे बड़ी माथा-पच्ची करनी पड़ती है। इसी रगड़े-झगड़े में क्षण भर की फुरसत नहीं मिलती। हर घड़ी जी जला करता है।

स्वर्ग के अधिपति ने सहानुभूति प्रदर्शित की और अपना अनुभव बताया कि भाई, हमारे यहाँ तो ऐसा बखेड़ा नहीं है। एक तो वैसे ही थोड़े मनुष्य आते हैं, जो आते हैं, वे ऐसे सभ्य और सद्गुणी होते हैं कि सब व्यवस्था अपने आप चलती रहती है। हमें कुछ खटपट नहीं करनी पड़ती। आनन्द से दिन व्यतीत करते हैं।

वार्तालाप के पश्चात् दोनों अपने-अपने स्थानों को चले गये। नरक के अधिपति के मन में यह बात तीर की तरह चुभी कि मैं इतना परिश्रम करता हूँ और स्वर्गपति आराम से दिन बिताता है। इसके लिये कोई उपाय ढूँढ़ना चाहिए कि मैं भी इसी प्रकार सुखपूर्वक दिन व्यतीत करूं, इस ढूँढ़-खोज में बहुत दिन व्यतीत हो गये। एक दिन नारद जी उधर आ निकले, उन्होंने नरकाधिपति को चिन्ताग्रस्त देखकर इसका कारण पूछा। उन्होंने अपने मन की सारी बात कह दी कि महाराज! नरक की भीड़ कम हो तो मुझे चैन मिले।

नारद जी को उनके दुख पर दया आई, और कहा- इतनी सी बात के लिये दुखी होने की क्या आवश्यकता है। मैं एक बहुत ही सरल उपाय बताता हूँ जिससे बात की बात में आपका कष्ट मिट जायेगा। नरक के सब निवासियों से कहिए कि वे ऊँचे स्वर से हरि-कीर्तन करें। बस, वे सब जरा सी देर में स्वर्ग चले जायेंगे और आपका नरक खाली हो जायेगा। धर्मराज ने नारद को यह उपाय बताने के लिये बहुत धन्यवाद दिया और उसी दिन सारे नरकवासियों को वह मन्त्र बता दिया। अब तो उच्च स्वर से हरि-कीर्तन होने लगा और स्वर्ग से विमान आ-आकर उन्हें वैकुण्ठ लोक को ले जाने लगे। संध्या होते होते सारा नरक खाली हो गया। केवल एक व्यक्ति रह गया, जो इस कीर्तन में शामिल नहीं हुआ था। यमराज की मनोवाँछा पूरी हुई और वे उस एक बन्दी को अपने पास ही रखकर आनन्द करने लगे।

जब नरक के सारे बन्दी स्वर्ग में पहुँचे तो वहाँ भारी भीड़ लग गई। नारकीय व्यक्ति अपने दुर्गुणों के कारण नन्दन वन को भी नरक बनाने लगे। चारों ओर कलह, क्लेश, उत्पात, अनाचार के दृश्य दिखाई देने लगे। सुरपुर में कोलाहल मच गया। इस उपद्रवी भीड़ को सँभालने के लिये देवता गण बड़ा प्रयत्न कर रहे थे, फिर भी उन्हें सफलता प्राप्त नहीं होती थी। एक को समझाते थे, तो दूसरा उत्पात मचाता था। जिस प्रकार पहले यमराज दुखी थे, उसी प्रकार अब धर्मराज की बेचैनी बढ़ गई। स्वर्ग नरक के रूप में परिणत हो गया, क्योंकि सुन्दर स्थान को नहीं, वरन् संस्कृत व्यक्तियों की निवास-भूमि को स्वर्ग कहा जाता है। आखिर वह अव्यवस्था कब तक चलती। उसका उपाय करना ही पड़ा। जैसे जापान के सम्राट ने अब सिंगापुर का नाम अपने अधिकार बल से ‘सोलन’ रख दिया है, वैसे ही हिज एक्सीलेन्सी इन्द्र महाराज ने एक आर्डीनेन्स निकाल कर घोषित कर दिया कि आज से यह स्वर्ग नरक कहलावेगा और नरक का नाम स्वर्ग होगा। वर्तमान स्वर्ग के मूल निवासियों को यहाँ से स्थानान्तरित किया जाता है। इस प्रकार नारकीय व्यक्ति नरक में ही रहे और स्वर्गीय आत्माएं स्वर्ग में पहुँचाई गईं।

कथा का इतना भाग सुन चुकने पर पाठकों को एक जिज्ञासा अभी बनी रही होगी कि वह एक व्यक्ति तो हरिकीर्तन में शामिल नहीं हुआ था? और लौट-फेर की व्यवस्था में उसे अनायास ही स्वर्ग क्यों प्राप्त हो गया?

सुनिए, वह व्यक्ति जानता था कि ईश्वर न तो तमाशबीन है, जिसे नाच कूद कर खुश किया जा सके और न दरबारी सरदार है, जिसको तारीफों के पुल बाँध कर इनाम हासिल किया जा सके। ईश्वर किसी के साथ पक्षपात नहीं करता, वह हर एक के आचरण की परीक्षा करता है और उसी के अनुसार फल देता है। चूँकि मैंने नरक में रहने योग्य काम किये है, इसलिये मुझे अपने कर्मों का फल भोगना ही पड़ेगा। टके सेर मुक्ति खरीदने वालों की ओर उसने ध्यान नहीं दिया और एक निष्ठा से सत्य पर आरुढ़ रहा। वीरतापूर्वक उसने अपने को अपराधी स्वीकार किया और दण्ड भोगने से कायरों की भाँति डरा नहीं। यही सद्गुण थे, जो उसके नरक काल में भी स्वर्गीय ही बनाये हुये थे और जब नाम पलट कर नरक का स्वर्ग हुआ तब भी वह स्वर्गीय ही बना रहा। दुख-सुख यथा नियम सबको सहन करने पड़ते है। पर जो उच्च आचरण वाला है, उसके लिये नरक भी स्वर्ग है और जो पतित स्वभाव के हैं, वे स्वर्ग को भी नरक बना लेते हैं।


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