(ले. श्री त्रिलोकीनाथ मित्तल, मथुरा)
मानव, मानवता के प्रथम प्रहर से जीवन की अन्तिम घड़ियों तक एक बन्धन में उलझा हुआ है। वह उस उलझन में उलझा हुआ है, जिसमें इस नश्वर संसार के प्रत्येक जीवात्मा को उलझना होगा। यह उलझन केवल जीवात्मा तक ही परिमित नहीं, वरन् इसमें समस्त ब्रह्माण्ड भी स्वयं उलझा हुआ है। यह उलझन संयम ही है।
मानव जीवन में संयम पद-पद पर प्रतिध्वनित होता है, जीवन के प्रत्येक पहलू में संयम ही का महान् साम्राज्य है, वास्तविक जीवन स्वयं संयम से ओत-प्रोत है। जीवन के वास्तविक रूप में संयम की उपेक्षा न की जा सकेगी, इसे तो अपने जीवन का साथी बनाना ही पड़ेगा। नेत्रों के तारे के समान इसकी रक्षा करनी ही होगी।
जब हम जीवन की विवेचना करने बैठते हैं, तो आभास होता है कि वास्तविक जीवन स्वयं ही संयम के अंतर्गत है। ‘शोहदों’ का जीवन वास्तविक जीवन न कहा जा सकेगा। उनमें अभिलाषा का आश्वासन, संज्ञा-विहीन की चेतना, म्लान मानस का सम्मोहन मंत्र एवं संजीवनी सुधा का वरदान नहीं, उनमें जीवन का अलौकिक आदर्श नहीं, जीवन के जलनिधि में उन्होंने कितने ही चंचल चित्र बनाये और बिगाड़े होंगे। जीवन एक गम्भीर रहस्य है। वह सुललित, मृदुस्पर्शी, उत्फुल्लपाटल प्रसूनशैया नहीं, वह कम्पित मलयसागर की क्षणिक लहरें नहीं, सुतराम जीवन मनुष्यत्व एवं आदर्श की प्रदर्शिनी है।
इस नश्वर संसार का अणु-अणु द्विगुणित ध्वनि प्रतिध्वनित करता है कि इस संसार की प्रत्येक वस्तु संयमांतर्गत है। संयम की किंचित भी उपेक्षा कर किसी वस्तु की यथास्थान सहायता न की जा सकेगी। स्वयं पृथ्वी अपनी सत्य रेखाओं पर - जो संयम ही का रूप है, अवलम्बित है। अपने नियत स्थान से हट पृथ्वी संसार के ह्रास का कारण होगी, संसार की प्रत्येक वस्तु से उसका सम्बन्ध सदैव के लिये हट जाएगा। इसी प्रकार मानव जीवन में संयम की किंचित भी उपेक्षा कर मानव अपने जीवन के ह्रास का करण स्वयं ही बनेगा। दूसरे शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि संयम ही जीवन का आधार है। संयम के पालन हेतु हमें धर्म का आश्रय लेना होगा, जीवन को सुखी बनाने के लिये हमें धर्मबद्ध होना ही पड़ेगा, जीवन को सुख-शान्ति का गृह बनाने के लिये धर्म के स्तम्भों को पकड़-पकड़ कर चलना होगा। वे स्तम्भ हैं- धैर्य, सत्य, विद्या, अक्रोध, दम, अस्तेय, शौच, इंद्रिय-निग्रह, धृति एवं क्षमा। ये सभी धर्म अथवा संयम के प्रधान लक्षण हैं, पुनरपि इनमें से मुख्य दम, अस्तेय, इंद्रिय-निग्रह संयम के प्रधान कारण हैं। इनका त्याग संयम का त्याग होगा तथा इनका पालन ही संयम का पालन होगा। ये सब ही संयम के प्राण हैं तथा इनका ही पालनकर्ता वास्तविक संयमी कहलायेगा।