अपरिग्रह

June 1940

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(महात्मा गाँधी)

अपरिग्रह का सम्बन्ध अस्तेय से है। जो चीज मूल में चोरी की नहीं है, पर अनावश्यक है, उसका संग्रह करने से वह चोरी की चीज के समान हो जाती है। परिग्रह मतलब संचय या इकठ्ठा करना है। सत्य-शोधक अहिंसक परिग्रह नहीं कर सकता। परमात्मा परिग्रह नहीं करता, वह अपने लिए ‘आवश्यक’ वस्तु रोज-रोज पैदा करता है। इसलिए यदि हम उस पर विश्वास रक्खें तो जानेंगे कि वह हमें हमारी जरूरत की चीजें रोज-रोज देता है और देगा। औलिया भक्तों का यही अनुभव है। प्रति दिन की आवश्यकता के अनुसार ही प्रति दिन पैदा करने के ईश्वरीय नियम को हम जानते नहीं, अथवा जानते हुए भी पालते नहीं, इससे जगत् में विषमता और तज्जन्य दुःखों का अनुभव करते हैं। धनवान् के घर, उसके लिए अनावश्यक अनेक चीजें भरी रहती हैं, मारी-मारी फिरती हैं, बिगड़ जाती हैं। जब कि उन्हीं चीजों के अभाव में करोड़ों दर-दर भटकते हैं, भूखों मरते हैं और जाड़े से ठिठुरते हैं। यदि सब अपनी आवश्यकतानुसार ही संग्रह करें तो किसी को तंगी न हो, और सब सन्तोष से रहें। आज तो दोनों तंगी का अनुभव करते है। करोड़पति अरबपति होने की कोशिश करता है, तो भी उसे सन्तोष नहीं रहता। कंगाल करोड़पति बनना चाहता है। कंगाल को पेटभर मिल जाने से ही सन्तोष होता नहीं पाया जाता। परन्तु कंगाल को पेटभर पाने का हक है और समाज का धर्म है कि वह उसे उतना प्राप्त करा दे। अतः उसके और अपने सन्तोष के खातिर पहले धनाढ्य को पहल करनी चाहिए। वह अपना अत्यन्त परिग्रह छोड़े तो कंगाल को पेट भर सहज ही मिलने लगे, और दोनों पक्ष सन्तोष का सबक सीखें । आदर्श आत्यन्तिक अपरिग्रह तो उसी का होता है, जो मन ओर कर्म से दिगम्बर हो। अर्थात् वह पक्षी की तरह ग्रहहीन अन्नहीन और वस्त्रहीन रहकर विचरण करे। अन्न को उसे रोज आवश्यकता होगी, और भगवान् रोज उसे देंगे। पर इस अवधूत स्थिति को तो विरले ही पा सकते हैं। हम तो समाज कोटि के सत्याग्रही ठहरे, जिज्ञासु ठहरे। हम आदर्श को ध्यान में रखकर नित्य अपने परिग्रह की जाँच करते रहें और जैसे बने वैसे उसे घटाते रहें। सच्ची संस्कृति—सुधार और सभ्यता का लक्षण परिग्रह की वृद्धि नहीं, बल्कि विचार और इच्छापूर्वक उसकी कमी है। जैसे-जैसे परिग्रह कम करते हैं, वैसे-वैसे सच्चा सुख और सच्चा सन्तोष बढ़ता है। सेवा-क्षमता बढ़ती है। इस दृष्टि से विचार करते और तदनुसार बर्तते हुए हम देखेंगे कि हम आश्रम में बहुतेरा ऐसा संग्रह करते हैं, जिसकी आवश्यकता सिद्ध नहीं कर सकते। फलतः ऐसे अनावश्यक परिग्रह से हम पड़ौसी को चोरी करने के लिए ललचाते हैं। पर अभ्यास द्वारा आदमी अपनी आवश्यकताओं को कम कर सकता है। और जैसे-जैसे कम करता जाता है वैसे-वैसे वह सुखी और सब तरह आरोग्यवान् बनता है। केवल सत्य की—आत्मा की दृष्टि से विचारें तो शरीर भी परिग्रह है। भोगेच्छा के कारण हमने शरीर का आवरण खड़ा किया है, और उसे टिकाए रखते हैं। भोगेच्छा यदि अत्यंत क्षीण हो जाय तो शरीर की आवश्यकता दूर हो, अर्थात् मनुष्य को नया शरीर धारण करने की जरूरत न रहे। आत्मा सर्वव्यापक है; वह शरीर रूपी पिंजड़े में क्यों बन्द रहे? इस पिंजड़े को कायम रखने के लिए अनर्थ क्यों करे। दूसरों की हत्या क्यों करे? इस विचार श्रेणी द्वारा हम आत्यन्तिक त्याग को पहुँचते हैं। और जब तक शरीर है, तब तक उसका उपयोग सेवा के लिए करना सीखते हैं। और सो भी इस हद तक कि फिर सेवा ही उसकी सच्ची खुराक बन जाती है। तब मनुष्य खाना, पीना, सोना, बैठना, जागना, सब कुछ सेवा के लिए ही करता है। इससे पैदा होने वाला सुख सच्चा सुख है और इस तरह आवरण करने वाला मनुष्य अन्त में सत्य के दर्शन करता है। इस दृष्टि से हम सब, अपने परिग्रह का विचार कर लें। यहाँ यह याद रहे कि वस्तु की भाँति ही विचार का भी परिग्रह न होना चाहिए। जो मनुष्य अपने दिमाग में निरर्थक ज्ञान ठूँसे रखता है, वह परिग्रही है। ‘जो विचार हमें ईश्वर से विमुख रखते हैं, या ईश्वर को ओर नहीं ले जाते, वे सब परिग्रह में शुमार होते हैं और इसलिये त्याज्य हैं। तेरहवें अध्याय में भगवान् ने ज्ञान की ऐसी ही व्याख्या की है; इस सिलसिले में उसका विचार कर लेना चाहिए। अमानिज आदि को गिनाकर भगवान् ने कहा है कि इनके अतिरिक्त जो कुछ है, वह सब अज्ञान है। यदि यह बदन सच्चा हो, और यह सच तो है ही, तो आज जो बहुतेरा ज्ञान के नाम से संग्रह करते हैं, वह अज्ञान ही है, और इसलिये उससे लाभ के बदले हानि होती है। दिमाग फिर जाता है और अन्त में खाली हो जाता है। असन्तोष बढ़ता है और अनर्थों की वृद्धि होती है। इस पर से कोई उद्यमहीनता को फलित न करे। हमारा प्रत्येक क्षण प्रवृतिमय होना चाहिए। परन्तु वह प्रवृत्ति सात्विक हो, सत्य की ओर ले जाने वाली हो। जिसने सेवा धर्म को स्वीकार किया है, वह एक क्षण भी कर्महीन नहीं रह सकता। यहाँ तो सारासार का विवेक सीखना है। सेवा परायण को यह विवेक सहज प्राप्त है।


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