साधक का वेथ क्या हो?

June 1940

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(श्री.—भुक्तभोगी)

तृणादपि सुनीचेन तरोरिव सहिष्णुना।

अमानिनो मानदेन कीर्तनीयो सदाहरिः॥

तृण से भी अपने को तुच्छ मानकर, वृक्ष की भाँति सहनशील होकर, सम्मान की इच्छा को त्यागकर और दूसरों को सम्मान देते हुये सर्वदा श्रीहरि का कीर्तन करना चाहिये। श्री गौराँग महाप्रभु के इस वाक्य को केवल कीर्तन मात्र के लिये नहीं, प्रत्येक आध्यात्मिक पथ के पथिक के लिये समझना चाहिये। अन्तर्मुख कोई हो नहीं सकता, जब तक कि वह उपरोक्त गुणों से युक्त होकर द्वन्द्व और यशेच्छा पर विजय न प्राप्त करले। साधक को अपना व्यवहार और वेश सब इस बात को दृष्टि में रखते हुए चुनना चाहिये।

मैं किसी वेश की निन्दा नहीं करना चाहता। कण्ठी, तिलक या दूसरे साधुता के चिन्हों की महत्ता पर मेरा कोई आक्षेप नहीं। शास्त्रों में उनकी जो महिमा बतलाई गई है, वह ठीक ही है। लेकिन वह बात भी सर्वमान्य है कि वेश साधन की अपेक्षा रखता है। बिना वेष के भी साधन करके पूर्णता को प्राप्त करने में कोई बाधा नहीं और वेश लेकर भी साधन न करने से पतन हो सकता है।

कोई समय होगा जब साधु का वेश नम्रता और संयम का कारण रहा होगा। आज अवस्था ठीक इसके विपरीत है। आज यदि वेश से कोई लाभ हो सकता है तो यही कि लोकलाज का भय पतन से बचाये रहेगा। लोगों में बदनामी के भय से अथवा सम्मान की इच्छा से कुछ राम नाम जप होता रहेगा। यह लाभ साधक के लिये नहीं है। यह तो अत्यन्त बहिर्मुख के लिये है। जो स्वयं साधन करना चाहता है, वह करेगा ही। दूसरों को दिखाने की उसे आवश्यकता नहीं। पतन से कुछ सीमा तक वेश रक्षा कर सकता है, परन्तु पतनोन्मुख के लिये वहाँ भी सब कुछ है। मैं तो कहूँगा कि वर्तमान समय में वेश की जो दशा है, उसमें पतन की सामग्री साधारण अवस्था से कहीं अधिक है।

कोई विशेष अन्तर नहीं था। केवल केश बड़े बड़े थे। उनकी जटायें नहीं बनी थी, लेकिन उनमें तेल भी नहीं पड़ता था। धोती के स्थान पर कभी लुँगी और कभी धोती ही। सिले हुए वस्त्र नहीं पहनता था। चद्दर तथा सर्दियों में कम्बल ओढ़े रहता था न कोई कण्ठी थी और न तिलक। फिर भी बढ़े हुये रूखे बाल और चद्दर दूसरों को बताने के लिये पर्याप्त थे कि यह साधु है।

संसार में तो भेड़िया धसान है। लोग पैर छूने लगे, प्रणाम करने लगे। अपने मन ने भी कहा ‘हम साधु हैं।’ कहीं जाते तो आगे आसन मिलता। ब्राह्मण साधुओं को प्रणाम करना छूटने लगा। प्रणाम करने पर वे भी प्रणाम नहीं करते तो मन में बुरा लगता। कोई आगे बैठता तो मन में आता कि ‘मैं भी तो साधु हूँ’ फिर इसी का विशेष आदर क्यों हो!’ भगवान की कृपा थी कि भण्डारे उड़ाने और पैर पुजवाने से अपने को सदा घृणा रही।

एक तीर्थ में घूम रहा था। कुछ गुजराती सामने से आ रहे थे। मेरे साथ एक सज्जन थे जो मुझसे कहीं अधिक साधन भजन करते हैं। वे पहिने थे कुर्ता और यहाँ थी जटा। गुजरातियों ने हाथ जोड़कर प्रणाम करते जाने का ताँता लगाया। वे थे भी बीस के लगभग। मेरे साथी हँस रहे थे। उन्होंने सम्भवतः कहा भी कि ‘ वेश का सम्मान तो होना ही चाहिये।’ ऐसी घटनायें कई बार हो चुकी हैं। मैं था भी कच्चा साधु। इन प्रमाणों को पचा नहीं पाता था। बराबर हृदय में संकल्प विकल्प उठते रहते थे। वेश मेरे लिये आडम्बर के अतिरिक्त और कुछ नहीं जान पड़ता था। इस दिन कुछ अधिक उत्तेजना मिली।

मैं सोचने लगा— वेश महत्ता का सूचक है। तुममें कोई भी विशेषता तो है नहीं। साधारण वेश में थे तो यह भाव था कि तुम गृहस्थ हो और साधु तुम्हारे पूज्य हैं। साधु और ब्राह्मणों के प्रति आदरभाव था। अब बाल बढ़ाकर साधु बन गये। दूसरों से सम्मानित होने लगे। स्वयं साधु बन गए तो साधु वर्ग के प्रति आदर कैसे हो? इसमें हुआ क्या? अहंकार बढ़ गया। साधन में अथवा प्रभु के प्रेम में बालों ने कोई सहायता नहीं दी।

‘आये थे हरि भजन को,

ओटन लगे कपास।’

सौभाग्य से किसी से न तो कण्ठी बंधवाई थी और न मूँड़ मुड़ाया था। कान फुकबाने की बात कभी सामने नहीं आई थी। अतएव कोई शास्त्रीय नियमों संबंधी या लौकिक मर्यादा के तोड़ने संबंधी अड़चन नहीं थी वेश को बदल देने में। चार पैसे में नाई ने केशों से छुट्टी दे दी और खद्दर की कमीज बनवाकर मैंने अपनी साधुता से छुटकारा पाया एक पैसे की गेरू के बिना जो साधुता कमीज छोड़ देने से मिली थी, उससे मुक्ति पाने में मेरे सवा रुपये लगे।

अब कोई प्रणाम क्यों करेगा ? जूता, कमीज, स्वीटर प्रभृति ने अब उस अहंकार को भी भगा दिया है। साधुओं को प्रणाम करने की इच्छा होती है। सार्वजनिक समूह में उनसे आगे या उनके बराबर बैठा जा ही नहीं सकता। उनका आदर होते देख कोई ईर्ष्या मन में नहीं होती। भजन पूजन तो पहिले भी नाममात्र का होता था और वैसा ही अब भी होता है।

इस अपने ही दृष्टान्त का तात्पर्य यह नहीं है कि साधक त्याग को छोड़कर संग्रही और विलासी बन जावें। सीधी बात तो यह है कि जो साधक है, जिसमें साधन करने की इच्छा है, वह किसी भी वेश में विलासी और संग्रही नहीं बन सकता। जो साधन न करके भोग चाहता है, वेश उसको संग्रह में बाधा नहीं देता। साधक के लिये कोई साधुवेश आवश्यक नहीं है। वह वेश के कारण सम्मानित होने लगेगा और यह उसके अहंकार को बढ़ाने का कारण हो सकता है। वेश के साथ साधन होने पर अत्यधिक सम्मान प्राप्त होना स्वभाविक है। यदि वह वेश कोई न रखे और सादे कुरते धोती में रहकर घर पर या कही बाहर भी साधन करे तो बहुत कुछ अंशों में वह अहंकार एवं यशेच्छा से बचा रहेगा।

जिन लोगों की कंठी और तिलक में श्रद्धा है, वे प्रशंसनीय हैं घर रहकर भी वे उन्हें धारण कर सकते हैं। बहुत से गृहस्थ कंठी तिलक धारण करते ही हैं। तात्पर्य इतना ही है कि साधक को कोई ऐसा वेश नहीं बनाना चाहिए जिससे वह पूजित होने लगे। उसे उपदेशक बनने से भी बचना चाहिए। यह भी पूजित होने का प्रधान साधन है।

जो किसी सम्प्रदाय में दीक्षित होकर वेश स्वीकार कर चुके हैं, उन के लिए उसका त्याग उचित नहीं। ऐसा करना शास्त्र तथा लोक मर्यादा दोनों के विरुद्ध है। उन्हें सच्चे साधु होने का प्राणपण से प्रयत्न करना चाहिये। भण्डारों और चेलों से बचना चाहिए। जहाँ तक सम्भव हो अपने साधन को गुप्त रखना चाहिए और सम्प्रदायों तथा मण्डलियों के संसर्ग से दूर एकान्त सेवन करना चाहिए। वेश केवल महापुरुषों का सूचक हो सकता है, वह किसी को महापुरुष बना नहीं सकता। अतः प्रथम तो वेश धारण ही अपनी योग्यता देखकर करना ठीक है और यदि धारण कर ही लिया तो उसका निर्वाह भी करना चाहिए।


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