अहंभाव का प्रसार करो।

June 1940

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(पं. शिवनारायण शर्मा हैडमास्टर वि. घ. व. पाठशाला आगरा)

तुम ब्राह्मण हो, अर्थात् परोपकारी, जितेन्द्रिय, विलास शून्य विद्वान् हो किन्तु यदि अकेले ब्राह्मण रहे और अन्य लोग यदि शूद्र धर्मी अर्थात् निरक्षर, अधार्मिक रह गये तो शूद्रों के संसर्ग से तुम्हारा ब्राह्मणत्व भी क्या निर्बाध रह सकता है? अहंभाव के विस्तार बिना किसी तरह बचाव नहीं। तर्क स्थल में स्वीकार किया कि—शास्त्र में शूद्र को वेद पढ़ाने की आज्ञा नहीं है। ठीक तो है, जो शूद्र निरक्षर है वह वेद पढ़ेगा किस तरह? जो ‘क’ ‘ख’ नहीं जानता वह ऋषि-हृदय-प्रसूत उच्चभाव पर किस तरह अधिकार करेगा? किन्तु शूद्र को भी तो उन्नत करना होगा। संसार में जो चोर डाकू मिथ्यावादी मूर्ख हैं उन्हें क्या सदा उसी अवस्था में बनाये रहोगे? नहीं, उनको भी उन्नति करने की चेष्टा करनी होगी। जब शुद्र ने लिखना पढ़ना आरम्भ कर दिया, आहार विहारादि में सात्विक भाव रखना आरम्भ कर दिया तब फिर शूद्रत्व कहाँ रहा? फिर उसे वेद तत्व क्यों न सिखाइयेगा? अति नीच और अति महत् व्यक्ति के जीवन के परिणाम का आदर्श एक ही ब्रह्मदर्शन या मोक्ष प्राप्ति है उससे कोई वञ्चित न होगा। उच्चाधिकारियों को नीचे के अधिकारियों को उन्नत पथ पर ले जाना होगा। अन्यथा उनको सदा ही अज्ञान अन्धकार में रखकर मोक्ष से वञ्चित करना होगा। तुम समाज में जिनको ब्राह्मण कहते हो, अच्छी तरह निगाह फैलाकर देखोगे तो उनमें अनेक शूद्र मिलेंगे और जिनको शूद्र कहोगे उनमें भी अनेक ब्राह्मण पावेंगे। तुम ब्राह्मण नामधारी शूद्रों को तो वेद धर्म सिखाना चाहते हो, यह तो घोर अविद्या जनित कार्य है। ब्राह्मण शूद्र दोनों ही पारिभाषिक शब्द मात्र हैं, नहीं तो इन दोनों बातों में और कुछ नहीं है अमुक गुण रहने से ब्राह्मण होता है और अमुक गुणों के रहने से शूद्र कहा जाता है इतनी ही भेद है। तुम केवल शब्दालंकार पर झगड़ा करते हो वस्तु की जड़ में नहीं जाते। शब्द वस्तु का परिचायक है। एक लोहे के टुकड़े को तुम कितने ही जोर से सोना क्यों न कहो तो क्या वह कभी सोना हो सकता है? और यथार्थ सोने को यदि तुम राजा के हुक्म से भी लोहा कहकर उठाना चाहो तो भी उसका सुवर्णत्व किसी तरह न जायगा। यथार्थ ब्राह्मण को तुम शूद्र कहो चाहे कुछ कहो परन्तु वह रहेगा ब्राह्मण ही, और यथार्थ शूद्र को तुम कितना ही ब्राह्मण कहकर प्रणिपात करो परन्तु उसका शूद्रत्व तो जाज्वल्यमान रहेगा ही परन्तु यथार्थ ब्राह्मण कभी यथार्थ शूद्र से घृणा न करें वे उनको शनैः-शनैः उच्च प्रदेश में ले जावें और उनके अधिकारानुसार उन्हें शिक्षा दें। शिक्षा देने से क्रमशः अधिकार बढ़ते बढ़ते वे भी तुम्हारी व्यवस्था प्राप्त कर सकेंगे। आर्य-शास्त्र के अधिकार तत्व का यही तात्पर्य है। शूद्र को वेद न पढ़ावे यह आदेश अधिकार के तत्वज्ञ अध्यापक के लिए बिलकुल अनावश्यक है। शूद्र प्रथम तो वेद पढ़ना ही न चाहेगा। वह वेद को समझे क्या? यदि तुम समझाने की चेष्टा भी करो तो न समझेगा। यदि कहो कि शिशु को युद्ध में मत जाने दो, यह भी ठीक वैसा ही आदेश होगा जैसा कि “शूद्र को वेद मत पढ़ाओ” किन्तु शिशु क्या फिर बड़ा न होगा? वह जब युद्ध के उपयुक्त हो जाय तब उसे युद्ध में क्यों न जाने दिया जाय? क्या उसे फिर सदा शिशु ही बनाये रहोगे इस कारण उसे युद्ध में न जाने दोगे, ऐसा आदर्श अनावश्यक है। संसार में जो उत्कृष्ट हो क्या उसी की वृद्धि करना आवश्यक है और जो अपकृष्ट है उसका ह्रास करना आवश्यक है? नहीं, क्रमशः निम्न उपाधिस्थ ‘मैं को उत्तम करना होगा और उपाधिस्थ हम को निरुपाधिक परब्रह्म का मैं करना होगा। यह मैं वा अहंभाव का संकोच ही जगत के मंगल और अमंगल का कारण है।

संसार में जो कुछ झगड़ा फिसाद देखेंगे, उसका कारण अनुसंधान करने पर देखेंगे कि उसके मूल में अहंभाव का संकोच है क्या पारिवारिक, क्या राजनैतिक क्या सामाजिक सब प्रकार की अशान्ति का कारण अहंभाव का संकोच है। राम श्याम दो सहोदर भाई हैं, किन्तु राम श्याम का सुख नहीं देखना चाहता। और श्याम राम का मुँह नहीं देखना चाहता। व्यवहार देखने से कोई नहीं कह सकेगा कि वे दोनों भाई हैं कि न्यौला और सर्प का सा व्यवहार है। परस्पर आपदविपद में रक्षा करना तो दूर रहा देवासुर की भाँति आपस की संहार चेष्टा ही दिन गत अन्तःकरण में जागरुक है। एक के सुख से दूसरा दुःखित और उसके दुख से सुखी है। राम बड़ा है पैतृक सम्पत्ति के कुछ अंश से श्याम को वञ्चित करना ही विवाद का मूल है। राम ने श्याम को ‘मैं’ के बाहर करके अहंभाव को कुछ संकुचित कर डाला और सर्वस्व आप ही हजम कर लिया है। श्याम भी अपने ‘मैं’ को छोड़ और कोई ‘मैं’ नहीं जानता। राम के ‘मैं’ का सब धन हुआ, जिसका मैं वञ्चित रहा, अतएव उसका संकीर्ण ‘मैं’ अत्यन्त क्षुब्ध हुआ प्रत्येक दशा के लोगों में ऐसे राम-श्याम देखे जाते हैं। जो समाज में गन्यमान्य, धनी विद्वान धार्मिक कहे जाते हैं, जो महाशय देश में महात्मा नाम से विख्यात हैं। जीवनी लेखक जिनका चरित समाज के अनुन्नत व्यक्तियों के आदर्श स्वरूप करना चाहते हैं, उनमें भी राम श्याम हैं। पक्षान्तर में निरक्षर अज्ञानी, निर्धन नगण्य व्यक्तियों में भी राम श्याम मिलेंगे। जमींदार राम श्याम शायद जमींदारी लेकर एक दूसरे के नाश के लिए तैयार है और किसान राम खेत की हाथरस प्रेड़केडडडडडड लिये लाठी चलाते हैं। समाज का कृत्रिम उच्च आदमी परित्याग कर जमींदार राम-श्याम भी किसानों से कुछ कम नहीं है। वृक्ष के ऊपर जैसे दो चीलें एक टुकड़ा माँस के लिये विवाद करती हैं, राम श्याम क्या उनसे अच्छे हैं? मनुष्य राम, श्याम का केवल आकार मनुष्यों का सा है और चील राम, श्याम का आकार पक्षी का है। दोनों में सिर्फ आकार का अंतर है, प्रकृति गत भेद कहाँ? सुन्दर वन में बाघ बलवान है हिंसक है वह अपना उदर पूर्ण करने के लिये सैंकड़ों दुर्बल प्राणियों का संहार करता—ज्ञान चक्षु खोल कर देखिये कि आपके समाज में भी सैकड़ों बाघ हैं। सुन्दरवन के बाघ कभी कभी पहली झपट में ही शिकार के प्राणी को खा लेते हैं, किन्तु आपके शिकारी भाई रूपी बाघ धीरे-धीरे शिकार का विनाश साधन कर अधिकतर निर्दयता का परिचय देते हैं। भेद यह है कि उनकी आकृति एक नहीं परन्तु प्रकृति में कुछ भेद नहीं। फिर यदि सूक्ष्म दृष्टि रहते देख सकोगे कि व्याध प्रकृति मनुष्य ने यथार्थ में क्या बुरा आकार धारण किया है। किन्तु यह सूक्ष्म दृष्टि साधना योगविज्ञान सापेक्ष है। अस्तु शृंगाल कुक्कुट सिंह व्याघ्र वागवास आदि इतर प्राणियों की तरह हम भी अहंभाव में व्यस्त हैं। अपनी अपनी इन्द्रिय लालसा पूरी होना यथेष्ट समझते हैं। अब कहिये, यदि अन्य प्राणियों की भाँति मनुष्य भी एक टुकड़ा माँस ही जीवन का चरम उद्देश्य मानलें तो फिर मनुष्य कहाँ रहे? वस्तुतः दिव्य नेत्रों द्वारा देखने से समाज जिनको मनुष्य कहता है उनमें बहुत थोड़े मनुष्य मिलेंगे और जिनको आप कुत्ते और सियार समझकर दुर दुराते हैं, जिनकी छाया पड़ जाने पर भी स्नान करके पवित्र होते हैं शायद वन में भी अनेक यथार्थ मनुष्य पावेंगे। यह जमाने की खूबी है कि जो वास्तव में मनुष्य है उन्हें प्रायः पद दलित किया जाता है और कुत्ते गीदड़ों के पैरों पर लोटते हैं। सर्प को रज्जु जानकर निर्भय हैं और रज्जु को सर्प समझकर डर के मारे काँपते हैं। अविद्या जनित अज्ञान ने तुम्हारा हृदय आच्छन्न कर लिया है। ज्ञान रहित होकर आप वस्तु को वस्तु और अवस्तु को वस्तु समझ रहे हैं। इन्द्रिय चरितार्थता ही जीवन का प्रधान कार्य समझ लिया है और जिनमें अहंबोध का संकोच अधिक है उनको ही आप प्रधान मानते हैं। यह अहंभाव का संकोच ही संसार की अशान्ति का मूल है। इसी संकोच के कारण मनुष्य पशु रूप में परिणत हो रहे हैं। अहंभाव का संकोच छोड़ दीजिये, आप देवता बनिये और दूसरों को देवता बनाने की चेष्टा करो, तो सर्वत्र ही शान्ति दीख पड़ेगा। तात्पर्य यह है कि अहंभाव के प्रसार बिना शान्ति कभी पास नहीं रह सकती।

किसी समाज का कोई मनुष्य दूसरों को पृथक न समझे तो जिस तरह वह समाज देव समाज में परिणत हो जाता है उसी तरह कोई देश दूसरे देश को अपने से पृथक न समझे तो समस्त पृथ्वी पर स्वर्ग राज्य हो जाय। अहंभाव के संकोच के कारण ही एक देश दूसरे देश के साथ विपरीत व्यवहार करता है। उपयुक्त भारतवासी जो हमारे देश में उच्च पद पर नियुक्त नहीं हुए हैं वह भी इंग्लैंड के अहंभाव के संकोच के कारण हैं। मद्रास नेशनल कांग्रेस के प्रेसीडेन्ट देव साहब ने कहा था कि ‘सारी पृथ्वी हमारा स्वदेश है और सब मनुष्य हमारे स्वदेश वासी हैं।’

अयंनिज परोवेत्ति गणना लघु चेतसाम्।

उदार चरितानाँ तु वसुधैव कुटुम्बकम्॥

(हितोपदेश)

यदि इंग्लैंड के अधिकाँश लोगों में अहंभाव का ऐसा प्रसार रहता तो भारत की यह दुर्दशा न होती। व्यक्ति विशेष की भाँति देश विदेश को भी अहंभाव के संकोच के कारण परिणाम में विषमय फल अवश्य ही भोगना पड़ेगा। विधाता के राज्य में अहंभाव का संकोच कर कोई भी कुशलपूर्वक नहीं रह सकता, यह यथार्थ सत्य है। अहंभाव के संकोच के कारण ही इस संसार में सर्वत्र अशान्ति है, इसके हजारों उदाहरण बुद्धिमान पाठक स्वयं संग्रह कर सकते हैं। अधिक क्या कहा जाय कि ऐसे दो चार नर केसरी हर जगह मिल सकेंगे और नाम न लेने पर भी वे अपने आप रामायण की उस चौपाई का अर्थ विचारने लगेंगे—”दीन्ह मोहि सिख नीक गुसाईं। लागत अगम अपति कदराइ॥ जिनके रहीं भावना जैसी। प्रभु मूरति देखी तिन तैसी॥”


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