कब्ज दूर करने के लिये उषापान प्रयोग

June 1940

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(ले.—श्री. हकीम ज्ञानसिंह जी वैद्य, आगरा)

शरीर शुद्धि के लिए ही नहीं, उसे स्वस्थ और जीवित रखने के लिए भी जल की अनिवार्य आवश्यकता है। साँस, मल, मूत्र, पसीना आदि के द्वारा बड़ी तादाद में पानी खर्च होता है उसे पूरा करने के लिए प्यास लगती है। यदि उचित मात्रा में जल शरीर के अन्दर न पहुँचाया जाय तो निस्संदेह उसकी सारी व्यवस्था बिगड़ जायगी।

हमें घरों में सफाई करने के लिए पानी की बहुत सख्त जरूरत होती है। फर्श धोने, नालियाँ साफ करने के लिए, शौच जाने के लिए, कुल्ला करने के लिए, मुँह-हाथ धोने के लिए बिना पानी के काम नहीं चल सकता। बाहर-बाहर ही लीपा पोती करने से यह काम नहीं चल जाता अपितु भीतरी अंगों की भी शुद्धि जल से ही होती है। हिन्दू धर्म शास्त्र जल द्वारा शरीर की आन्तरिक शुद्धि करने के विधान से भरे पड़े हैं। कई व्रतों में केवल जल पीकर ही रहा जाता है। संस्कारों और धार्मिक कृत्यों में से कोई ऐसा नहीं है जिसका आरंभ आचमन किये बिना आरंभ होता है। गंगाजल पीकर तो लोग सब पापों से छूटकर स्वर्ग प्राप्त कर लेने पर विश्वास करते हैं। हठ योगों, जल को गुदा द्वारा पेट में और शिश्न द्वारा मूत्राशय में जल चढ़ा कर उदर की शुद्धि करते हैं। आयुर्वेद शास्त्र वस्ति कर्म द्वारा ऐसा ही शोधन करते हैं। डाक्टरों ने जल द्वारा शरीर की आन्तरिक शुद्धि के सिद्धान्त को स्वीकार करते हुए ‘एनेमा’ यंत्र बनाया है जिसका प्रयोग संसार भर में साधारण जनता द्वारा होता है।

नाली में पानी डालकर जिस तरह उसकी सफाई की जाती है वह बात शारीरिक अवयवों की हो सकती है। आँतों में यदि मल की गाठें अटक गई हैं तो पेट में पिचकारी द्वारा पानी चढ़ाकर उन्हें निकाल देना सुलभ और उचित इलाज है। आयुर्वेद ने तो पानी को अजीर्ण की औषधि बताया है (अजीर्णे भैषजंबारि) शरीर शास्त्र के पंडित विभिन्न विधियों द्वारा जल से रोग मुक्ति का विधान करते हैं। डॉक्टर लुईकूने ने तो जल चिकित्सा का एक स्वतन्त्र शास्त्र ही बना दिया है।

इस लेख में हमें उषा पान के संबंध में कुछ चर्चा करते हुए उसी सचाई पर प्रकाश डालना है। इसके दो प्रकार हैं। एक तो मुँह द्वारा पीने का और दूसरा नासिका द्वारा जल पीने का विधान है। प्रातः काल सोकर उठने से आध घंटे पूर्व शीतल जल का एक गिलास पी लेना ही उषा पान है।

संध्या समय के भोजन की लोग ठीक प्रकार व्यवस्था नहीं कर पाते। अक्सर ऐसा होता है कि भोजन करके थोड़ी ही देर सोने को चले जाते हैं। भोजन पचने में जितना समय मिलना चाहिए उतना नहीं मिलता। फलस्वरूप भोजन पेट में पड़ा रहता है। यदि गरिष्ठ या सूखी वस्तुएं खाई हैं तब तो और भी कठिनाई होती है। सोते समय पाचन क्रिया होती तो हैं पर उतनी अच्छी तरह नहीं जैसी कि जाग्रत अवस्था में। इसी अव्यवस्था से अधिकाँश लोगों को कब्ज की शिकायत रहने लगती है। जब वे सोकर उठते है तो पेट भारी रहता है। भोजन बिना पचा पेट में पड़ा रहता है या पच गया तो आगे नहीं खिसकता। ऐसे लोग कम मिलेंगे जिन्हें भूख कड़ाके की लगती हो और दस्त भी साफ होता है। अपच के कारण कुछ और भी हो सकते हैं, हमारा कहना तो इतना ही है कि वह बहुत से लोगों को बना रहता है।

उषापान कब्ज रोग की प्राकृतिक और प्राचीन यौगिक जल चिकित्सा है। देखा जाता है कि रात को पाचन क्रिया में शिथिलता आ जाने के कारण पेट में पड़ा हुआ अन्न कुछ विकृत होकर विषैला हो जाता है। यह विष उष्णता और दाह उत्पन्न करता है और अपना प्रभाव ऊर्ध्व नालियों द्वारा मुख, नासिका एवं मस्तिष्क तक भेजता है। प्रातः काल उठने पर साधारणतः इतनी फुर्ती और सजीवता होनी चाहिए कि आदमी अपने को सब कार्यों के योग्य नवीन बल धारण किए हुए अनुभव करे। इसके विपरीत सोकर उठते समय जिनके मुँह का स्वाद खराब हो जाता है, होठ सूखे रहते हैं, सिर में भारीपन प्रतीत होता है, नथुनों में खुरट जम जाते हैं, पेट में जलन होती है, एवं प्यास लगती है समझना चाहिए इनको रात को भोजन हजम नहीं हुआ है। भोजन का ठीक पाचन हो जाने पर उठते ही जोर से टट्टी लगती है और तत्पश्चात् कड़ाके की भूख लगनी चाहिए।

जिसका पाचन नहीं हुआ है वह भोजन आमाशय में पड़ा रहता है। इसे अजीर्ण कहते हैं; पच जाने पर आँतों में होकर आगे चलने का कार्य नहीं होता उसे मलावरोध कहते हैं। इनमें से कोई ऐसा या दोनों का आक्रमण शरीर पर जारी रहता है, और इन्हीं दोनों के अँचल में छिपे हुए और अनेक रोगों के कीटाणु पलते रहते हैं। बदहजमी के होते हुए नवीन रक्त और बल वीर्य के प्राप्ति तो ही ही कैसे सकती है?

अपच से पैदा होने, अजीर्ण और मलावरोध और विष उत्पादन तीनों ही बाधा को उषापान हटा देने की सामर्थ्य रखता है। प्रातः काल उठने से आध घंटे पूर्व पिया हुआ शीतल जल पेट में जाते ही अपनी क्रिया आरम्भ कर देता है। शुष्क भोजन में जल का मिश्रण होते ही वह पतला हो जाता है। आमाशय ठोस भोजन को पचाने में अशक्त था वह द्रव रूप हो जाने पर आसानी से पचा लेता हैं। रस बनाने वाली नालियाँ खुलने का कार्य आरम्भ कर देती है। जिससे पाचन कार्य बहुत सुगम हो जाता है। इस बात को सब जानते हैं कि गाढ़ी वस्तु की अपेक्षा पतली जल्दी बहने लगती है। नाली में रुकी हुई कीचड़ पानी पड़ते ही आगे को खिसक जाती है। इसी तरह पानी की सहायता से भोजन आंतों में होता हुआ मल मार्ग तक पहुँच जाता है और दस्त साफ हो जाता है। अजीर्ण के कारण जो विष उत्पन्न हुए थे और जिनके द्वारा मुख, मस्तिष्क आदि में विकास पैदा किये गए थे वह भी शान्त हो जाता है। गरमी शान्त करने के लिए पानी का प्रयोग होता है, लोहे के गरम तवे पर पानी डाल दिया जाय तो वह थोड़ी ही देर में शान्त हो जायगा। जिन्होंने उषापान किया है उन लोगों के अनुभव द्वारा यह बात सिद्ध हो चुकी है कि कुछ दिन पहले जिस प्रकार मुँह में कडुआपन, सिर में भारीपन, प्यास, पेट में जलन आदि शिकायतें होती थीं अब नहीं होतीं।

शारीरिक अन्य विकारों की वजह से प्रातः काल जो उष्णता छाई रहती है उषापान उनके लिए अमृत तुल्य है। एक भुक्त भोगी का कहना है “मुझे पिछले कई वर्षों से गर्मी की बड़ी शिकायत थी प्रातः काल जब कि अन्य साथी तरोताजा उठते थे मैं ऐसी देह लिए हुए होता था जिसमें भारीपन और जलन का दौरा होता था। स्नान, शरबत पान, या ऐसा ही कुछ ठंडा उपचार जब तक नहीं कर लेता था तब तक ऐसा प्रतीत होता रहता था कि मैं हल्के ज्वर से पीड़ित हूँ। जब से मैंने ऊषापान किया है तब से सारी शिकायतें जाती रही हैं। पेट की सफाई के साथ अब मैं ताजगी और ठंडक भी अनुभव करने लगा हूँ।

अखंड ज्योति के पाठक ऊषापान की परीक्षा करेंगे तो उन्हें प्रसन्नता हुए बिना नहीं रहेगी। उषा पान किस प्रकार करना चाहिए इसकी पूरी विधि अगले अंक में दी जायगी।


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