पथिक से— (कविता)

June 1940

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(श्री. बसन्तसिंह भृंग)

अरे! पथिक अविराम चलाचल, पथ में है विश्राम कहाँ?
कौन किसी का संगी होता, पल भर का सामान यहाँ॥

धूथ इन्द्रियों के ठग भारी तुझको आलस में पाकर।
तीन गुणों का जाल गूंथ कर तुझे फंसावेंगे आकर॥

रूप नर्त की नृत्य दिखा कर देती है प्रति पल झाँसा।
इस पथ पर चलने वालों को सदा कुटिलता से फाँसा॥

वहीं औट ले तरु कुँजों की बैठा कुटिल काम कामी।
थोड़ी सी भी भूल हुई तो पतन, पाप, दुख, बदनामी॥

चेत! चेते! अब चेत! अचेते, कहाँ चेतना को खोया।
देर नहीं है संध्या में अब तू पथ में पड़कर सोया॥

चली मोह की दुर्गम आँधी, प्रबल थपेड़े मार रही।
बड़े बड़े धीरज वालों की बुद्धि यहाँ पर हार रही॥

पथिक चला चल, चल चल आगे, थोड़ा समय अभी बाकी।
मदिरालय को ओर न ललचा, बहका लेवेगा साकी॥


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