(लेखक—ठाकुर रामसुमेरसिंह, बी. ए., अमेठी)
गीता एक अपूर्व रत्नाकर है, इर रत्नाकर में गोता लगाकर बहुत से गोताखोर अनेक प्रकार के बहुमूल्य रत्नों को निकालते हैं और निकाल रहे हैं। शंकर, रामानुज, मध्व, निम्बार्क, वल्लभ आदि आचार्यगण इस रत्नाकर में गोता लगाने वाले बड़े-बड़े गोताखोर हुए हैं। उन्हें भिन्न-भिन्न रूप के अनेक सिद्धान्त रत्नों को गीता रूपी रत्नाकर से बड़े परिश्रम पूर्वक निकाला है। वे सब बहुमूल्य रत्न आज भी भारत के बाजार में बिकते हैं और मुमुक्षु, लोग उन्हें अपनी अपनी रुचि के अनुसार खरीदते हैं।
गीता एक अपूर्व रत्न है, जिसे जगत् के एक अपूर्व कारीगर ने ऐसे विचित्र ढंग से तराशा है कि उसके प्रत्येक अवयव से एक ‘अखण्ड-ज्योति’ जगमगा रही है। इस ज्योति ने सूर्य की ज्योति को भी मात कर दिया है, क्योंकि सूर्य की ज्योति तो इस संसार को ही प्रकाशित करती है परन्तु यह ज्योति ब्रह्मलोक तक प्रकाश करती है, जिसके सहारे से मुमुक्षा लोग अहरहः ब्रह्मलोक गमन करते हैं।
गीता त्रिवेणी संगम है। इसमें ज्ञानगंगा, कर्म यमुना और उपासना सरस्वती की विमल धारायें आकर एकत्रित हुई हैं। भला, इसमें स्नान करने वालों को गर्भवास कैसे हो? जो इस अष्टादश तरंगयुक्त त्रिवेणी में नित्य स्नान करता है वह ‘ज्ञान सिद्धि सलभते ततोयाति परमं पदम्’ के अनुसार जीवितावस्था में ही ज्ञानसिद्धि को प्राप्ति होकर जीवन मुक्ति हो परम पद को प्राप्त कर लेता है।
गीता एक पवित्र एवं निर्मल जज-प्रपात (झरना) है इस झरने की उत्पत्ति-स्थान असीम, गम्भीर और स्थिर उपनिषद् रूपी एक झील है। साधारण झरने के जल से इस झरने के जल में विशेषता यह है कि जो इसका जल एक बार पी लेता है उसकी पिपासा सदैव के लिए शान्त हो जाती है।
गीता एक ‘अखण्ड-ज्योति’ बाला प्रज्वलित प्रदीप है, यह प्रदीप भारत-मन्दिर में प्रज्वलित हुआ है, किन्तु प्रकाश समस्त जगत में करता है।
गीता एक परिष्कृत, स्वच्छ, बहुमूल्य दर्पण है। मनुष्यमात्र इस दर्पण में अपने यथार्थ स्वरूप को देख तथा समझ सकता है।
गीता मोक्ष-मंदिर की एक अपूर्व कुँजी है। कलियुग के लोगों को साधन रहित जानकर भगवान कृष्ण चन्द्र जी ने इस कुँजी को द्वापर-युग के शेष भाग में पहले पहल अर्जुन को दिया था। इसके द्वारा अर्जुन तो स्वयं मोक्ष मन्दिर से पहुँच ही गए उनके पीछे भी अनेक मुमुक्षु उसी कुँजी को लेकर इस भवसागर से पार उतर गए।
गीता संजीवनी बूटी है। जब कुरुक्षेत्र के युद्ध में मोह के वशीभूत होकर कृष्ण सखा अर्जुन किंकर्तव्यविमूढ़ होकर मृत प्रायः अवस्था को प्राप्त हुए थे, जब भगवान कृष्णचन्द्र ने गीता रूपी संजीवनी बूटी के अमृतमय रस को पिलाकर अर्जुन को अपने कर्तव्य का प्रबोध कराया था।
गीता अमृत तुल्य एवं पुष्टि कारक मधुर गोरस है, यह गोरस उपनिषद् रूपी कामधेनु के धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूपी चार स्तनों से निकाला गया है। दूध निकालने वाले गोपाल नन्दन भगवान श्रीकृष्णचन्द्र जी हैं। वत्स (बछड़ा) कृष्ण सखा अर्जुन है। अर्जुन ने इसका थोड़ा सा ही रस पिया था और कृत कृत्य हो गए। वह अविकृत गोरस अभी भी पृथ्वी पर विद्यमान है और सुधी समुदाय अहर्निश उसी रस को पीकर मस्त हो रहे हैं।
गीता एक मधुर, मनोहर, सुदृढ़ एवं भव्य अट्टालिका है। अग्रहायण शुष्क एकादशी के शुभ मुहूर्त के अवसर पर धर्म क्षेत्र रूपी कुरुक्षेत्र की पवित्र भूमि में विश्वनियन्ता भगवान श्री कृष्ण चन्द्र जी ने पुरुष श्रेष्ठ अर्जुन के द्वारा इसकी नींव डलवाई और स्वयं उत्तम चातुर्य के साथ इसकी अपूर्व रचना की। इस अट्टालिका की तीन मंजिल हैं। नीचे की मंजिल का नाम कर्म खण्ड बीच की मंजिल का नाम उपासना खंड और सर्वोपरि मंजिल का नाम ज्ञानखण्ड है। ब्रह्मचर्य, सत्य, अहिंसा, शम, दम आदि अनेक विचित्र खम्भे इसमें लगे हुए हैं, जिनका दृश्य अपूर्व ही है। इस अट्टालिका के बहुत से शिखर भी हों, जिनमें रचयिता के आदेश लिखे गए हैं, उनमें से एक ऐसा है-
सर्व धर्मान्परित्यज्य माम्मेंक शरणं व्रज।
अहंत्वाँ सर्व पापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥
इस अट्टालिका में इसके रचयिता स्वयं निवास करते हैं और यहाँ रहकर तीनों लोकों का पालन करते हैं।
गीता श्रयो हं तिष्ठामि, गीता में चोत्तमम् ग्रहम्।
गीता ज्ञानमुपाश्रित्य त्रींल्लोकान् पालयाम्यहम् ॥
गीता कल्पतरु है। इसका मूल वेद रूपी सरस दृढ़ भूमि में स्थित है। इसके कर्म, उपासना और ज्ञान काण्ड नामक तीन काण्ड इसमें यज्ञ, दान, तप, योग आदि अनेक शाखा प्रशाखाएं हैं और शान्ति, दान्ति उपरति आदि अनेक पत्र हैं। यह वृक्ष सदैव चार ही फल देता है जिनका नाम धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष है, और चार प्रकार का भक्त आर्त जिज्ञासु, अर्थार्थी तथा ज्ञानी उन चारों फलों का सेवन करते हैं।
गीता ब्रह्म विद्या है- “गीता से परमा विद्या ब्रह्म रूपान संशयः” यह ब्रह्मविद्या भगवान् पद्मनाभ के श्री मुख-कमल से निकली है, अतएव पादनिः सृत सवित्र गंगा से भी अधिक पवित्र है इसका दूसरा नाम ज्ञान गंगा भी है। इसमें जो सतत गोता लगाता रहता है उसकी सम्पूर्ण अविद्या नष्ट हो जाती है और वह दिव्य स्वरूप को प्राप्त होकर अक्षय, अमर बन जाता है।
गीता भगवान् का हृदय है। गीता में हृदय पार्थ!’ भगवान् के हृदय में अनन्त ज्ञान का भण्डार है। अतएव गीता में भी वही है। जो गीता की सेवा करेगा वह अनन्त ज्ञान का भागी बनेगा। भगवान् के हृदय में कौस्तुभ, मणि, बनमाला, भृगु, लान्छन और लक्ष्मी जी आदि चार वस्तु हैं। जो गीता रूप भगवान के हृदय को अपने हृदय में धारण करेगा उसकी भी वे चारों वस्तुएं मिल जाएंगी। अज्ञानाघ्नान्त निवारक ज्ञान रूपी कौस्तुभ मणि मिल जाएगी। दूसरी चारों और सौरभ विस्तार करने वाली कीर्ति रूप बनमाला मिल जायेगी। तीसरी इहलौकिक धन सम्पत्ति रूप लक्ष्मी मिल जाएगी और चौथी भृगुलोछन रूप क्षमा आदि गुणों की प्राप्ति होगी।
गीता एक अपूर्व ग्रन्थ है, इसमें दिव्य अमर-संदेश है, सर्वश्रेष्ठ उपदेश है! यह उपदेश सर्व जाति, वर्ण, आश्रम, सम्प्रदायों के लिए समान भाव से उपयोगी है मानव जाति का सनातन धर्मोपदेश है, सार्वभौम संदेश है। इसके वक्ता जगत् गुरु भगवान श्री कृष्णचन्द्र जी हैं, इसका श्रोता सत्वगुणी मानव जाति है, और श्रवण का फल अमरत्व की प्राप्ति है।
संक्षेपतः गीता इस जगत् का अमर फल है। असार संसार का सार है, संसार सागर का आलोक—स्तम्भ (Light house) है। मानव जीवन का पथ-प्रदर्शक है। शास्त्र-सागर का मथितार्थ है, उपनिषदों का सार है, वेदों का तत्व है, सनातन तत्वों का अवभासक है, एक अपूर्व ग्रन्थ रत्न है, इसके सदृश ग्रन्थ संसार में न हुआ और न होगा। चाहे किसी, देश किसी भाषा, किसी जाति, किसी सम्प्रदाय या किसी मत का मानने वाला विद्वान हो, मुक्तकण्ठ से गीता की प्रशंसा करता है। अतएव गीता अपने ढंग का निराला ग्रन्थ है। गीता गीता ही है।
गीता का तत्व हम नहीं जानते—
कृष्णों जानाति वै सम्यक कि ञ्चत्कुन्ती सुतः फलम्।
व्यासो वा व्यास पुत्रो वा याज्ञवल्को ऽथ मैथिलः॥
श्रीकृष्ण गीता को सम्यक् जानते है। अर्जुन कुछ फल जानते हैं व्यासजी, व्यासजी के पुत्र शुकदेवजी, योगी, याज्ञवल्क्य और राजा जनक भी कुछ-कुछ जानते थे।
तब हमारे लिये क्या कर्तव्य है—
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः।
गीता का अध्ययन ही सर्वथा कर्तव्य है। अन्य शास्त्रों के विस्तार की क्या आवश्यकता है?