(श्रीमती करुणा द्विवेदी, विशारद, पराँची)
अपाहिज पुरुष दुनिया के एक कोने में पड़ा सिसक रहा था। न तो उसमें ज्ञान था और न गति। न वह परख जानता था और न प्रेम को पहचानता था। तब इस मकोड़े को मातृ शक्ति ने अपनी गोद में उठाया। अपने स्तन में से जीवन रस पिलाकर, पाल पोस कर बड़ा किया, छाती से लगाकर इसे प्रेम सिखाया। अपने एक माँस से इसका पिंड बनाकर वह दिव्य गुण धारण कराये जिनके बल पर यह हैवान, इन्सान कहला सकने योग्य बना। साँसारिक संघर्ष की भट्टी में जब यह जला जा रहा था, कठिनाइयों के चट्टानों से टकराकर जब यह घायल होकर चिल्ला रहा था, मातृ शक्ति को इस पर दया आई और अपने आँचल में छिपाकर शान्ति और शीलता प्रदान की।
जब तक यह रक्त माँस का लोथड़ा मात्र था बिलकुल पंगु और अशक्त था उस समय तक वह मातृ शक्ति के आश्रित था, उसी की दया पर जीवन धारण किये हुए था। स्तन चोखने के लिए, टुकड़ा खाने के लिए, पानी पीने के लिए, मल मूत्रों से सने हुए अपने शरीर को शुद्ध कराने के लिए सब प्रकार की सहायता पाने के लिए माता का भिखारी था। रोकर आँखों से आँसू टपकाकर अपनी दीनता प्रकट करता हुआ माता से याचना करता था कि माँ! मैं सर्वथा अपाहिज हूँ, मुझे जीवित रखना तेरी ही कृपा पर निर्भर है। मातृ शक्ति को इस अपाहिज पर दया आई और अपना रक्त चुसवा कर इसे समर्थ बना दिया।
जब यह कुछ कुछ समझने लगा था, कुछ कुछ बढ़ने लगा था किसी की सहायता और सहयोग चाहता था तो बहिन ने इसे कंधे पर उठाया और खेलने के सारे सामान जुटा दिये। उन्नति और शिक्षा के वह सब साधन सुलभ कर दिये जिन्हें वह दूसरी जगह नहीं पा सकता था। उसने इसे खिलाया, हँसाया, नहलाया और सिखाया कि समाज में किस प्रकार रहा जाता है।
जब पुरुष जवान हुआ । अंग अंग में से यौवन फूटा। आशा और उत्साह से भरा हुआ यह अल्हड़ अपने में किसी कमी का अनुभव कर रहा था। बिना उस चीज के अपनी जीवन यात्रा, वंश परम्परा और सुख सौभाग्य खतरे में देख रहा था तब मातृ शक्ति ने पत्नी के रूप में अपने प्राण उसे अर्पण किये, अपना प्राणनाथ बनाया। अपने अन्दर वह सब गुण धारण कर लिए जिनके बिना वह बड़ी बेचैनी अनुभव कर रहा था और तड़प कर पाँव पीट रहा था।
मातृशक्ति ने इस प्रकार पुरुष को पुरुष बन सकने योग्य बनाया। उसके खोखले शरीर में अपने प्राण फूँक कर एक सजीव पुतला बनाया। कार्यशील, क्रिया कुशल, ज्ञान शील, विचारवान, चतुर शिक्षित!
आज वही पुरुष अपनी मर्यादा को भूल गया है। अभिमान की मदिरा पीकर मदोन्मत्त हो गया है। अधिकार और शक्ति के नशे ने उसे पागल बना दिया है। उसने अपनी असलियत को बिल्कुल भुला दिया है। उस दिन का अपाहिज आज का शासक है। कल जिसके अंचल की छाया प्राप्त करने के लिए वह भूमि पर लोटा लोटा फिरता था। कल जिसका स्तन पान किये बिना जिसका जीवन अशक्य था, आज वही पुरुष स्त्री को अपनी दासी बताता है, पैर की जूती घोषित करता है। अपनी संपत्ति सिद्ध करता है। कहता है यह मेरी दासी है, रमणी है, मेरी भोग्य सामग्री है। आज वह समर्थ हुआ है तो अपनी जननी पर भी वश आजमाना चाहता है। प्रत्युत्तर की बात तो दूर आज तो वह पाजीपन पर उतर आया है। कृतज्ञता को ठुकरा कर कृतघ्नता का बाना पहिन लिया है।
पुरुष ने अपनी मातृजाति को आज विलास की सामग्री बना लिया है। जिस तरह मजे के लिए सिगरेट का उपयोग किया जाता है वैसा ही उपयोग स्त्रियों का होता है। भलमनसाहत का तकाजा है कि स्त्री को देखते ही पुरुष नत हो जाय अपने रोम रोम पर लदे हुये असंख्य अहसानों का स्मरण करे और उसके चरण चूमकर अपने को धन्य माने। गौ माता का स्मरण मात्र जिस प्रकार मन में एक श्रद्धा और कृतज्ञता की भावना पैदा करता है वैसा ही स्मरण मातृजाति का स्मरण आते ही पुरुष के मन में उठना चाहिए। मगर आज तो इससे विपरीत हो रहा है।
जब मैं दीवारों पर चिपके हुये पोस्टरों, सिनेमा की फिल्मों, बाजार में बिकने वाली तस्वीरों, मासिक पत्रिकाओं में छपने वाले चित्रों, नृत्य ग्रहों में नारी का अर्धनग्न स्वरूप उपस्थित किया जाता देखती हूँ तो मेरी आंखें क्रोध से जल उठती हैं। पुरुष ने हमारा यही सम्मान करना सीखा? हमारा स्वरूप उसने यही समझा है जिसे देखकर वह प्रसन्न होता है और अपने ग्राहकों को आकर्षित करता।
मैं यह देखकर सिहर उठती हूँ कि पुरुष इतना नीच होता चला जा रहा है। अपनी पूजनीय मातृजाति का नग्न सौंदर्य देखने में उसे मजा आता है। यह तो ठीक वैसा ही है जैसे अपनी सगी माता, बहिन या पत्नी को अर्धनग्न अवस्था में बाजार में इसलिए फिराया जाय कि लोग उनकी ओर नीच वासनाओं से देखें और अपना मनोरंजन करें। सभ्यताभिमानी कहते हैं कि मनुष्य में दैवी गुणों की वृद्धि हो रही है, उसका विकास हो रहा है, वह अधिक उदार और कृतज्ञ बनता जाता है परन्तु स्त्रियों के नग्न चित्र देखने की इस विकट प्यास को देखकर मुझे अनुभव होता है कि पुरुष अभी हैवानियत से आगे नहीं बढ़ सके हैं।
मैं पूछती हूँ आपके कमरों में, दुकानदारों की दुकानों पर, दफ्तरों में, विनोद ग्रहों में पुस्तकों के मुख पृष्ठों पर, पत्रिकाओं के पन्नों में, दवाओं के विज्ञापनों में दूषित भाव भंगी रखने वाले स्त्रियों के अर्धनग्न चित्र किस लिए टंगे हुये हैं? इनका उद्देश्य क्या है? इन से किस मतलब को पूरा किया जाता है? अपने को सुधारक, नेता और कलाकार कहने वाले अपने पिता भाई और पुत्रों से मैं बड़े कड़े शब्दों में पूछती हूँ कि यह कैसी कला है? इससे जाति का क्या हित होने वाला है? वे इस विषय में उदासीन रहकर अपनी अर्ध स्वीकृति क्यों प्रकट करते हैं?
जन साधारण की यह दुष्प्रवृत्ति दिन दिन बढ़ती जा रही है। जनता का सर्वप्रिय मनोरंजन सिनेमा इस बात का साक्षी है कि अर्धनग्न और नीच वृत्तियों को उकसाने वाले फिल्म ही अधिकाँश बनते हैं। पिता और पुत्र, भाई और बहिन, इन मित्रों को क्या साथ-साथ बैठकर देख सकते हैं? उन पर पूरी समालोचना कर सकते हैं? यदि नहीं तो इस कुरुचि पूर्ण विचारधारा को क्यों बढ़ने दिया जाता है? समाज के पिता इस ओर क्यों चुप्पी साधे हुये हैं?
यदि पुरुष सचमुच इंसानियत की ओर बढ़ रहे है, यदि उन्हें मातृजाति के उपकारों का स्मरण है, तो उन्हें उचित है कि नग्न चित्रों को न देखें। जहाँ देखें वहाँ विरोध करें और जन साधारण में इस बात का प्रचार करें कि स्त्रियाँ हमारी मातृशक्ति की पूजनीय प्रतिनिधि हैं। उनका अपमान मत करो। पुरुषों, पिताओं, भाइयों, पुत्रों ! मैं कहती हूँ कि तुम हमारा अपमान मत करो। हमारे और अपने सम्बन्धों की वास्तविकता पर विचार करो !