मैस्मरेजम का अभ्यास

June 1940

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(प्रो. धीरेन्द्रनाथ चक्रवर्ती बी. एस. सी.)

पिछले पाँच अंकों में मैस्मरेजम विद्या की अच्छी तरह जानकारी प्राप्त कर लेने के बाद अब साधक इस योग्य हो गये होंगे कि वे इस विद्या की ओर कदम बढ़ाने का कार्य आरंभ करें। जो सज्जन इस विद्या का अभ्यास शुरू करना चाहते हैं उन्हें उचित है कि सबसे पहले यह जाँच करें कि हम साधन की योग्यता रखते हैं या नहीं। अभ्यासी के लिये आवश्यक है कि वह (1) बीस वर्ष कम और पैंतालीस वर्ष से अधिक न हो (2) बीमार न हो (3) किसी मानसिक दुख में ग्रसित न हो (4) स्वभाव आलस्य रहित और परिश्रमी हो (5) आर्थिक चिंता से व्याकुल न हो (6) मादक द्रव्य या अन्य व्यसनों का गुलाम न हो (7) आत्म विश्वासी और आशावादी हो (8) दृढ़ निश्चयी और धैर्य धारण करने वाला हो (9) आँखों में कोई रोग, न हो (9) मन रोग द्वेष और नीच वासनाओं से भरा हुआ न हो (10) इस विद्या पर पूर्ण विश्वास और सीखने की दृढ़ इच्छा हो। यदि यह योग्यताएं साधक में न हों तो उन्हें ठहरना चाहिए और समय की प्रतीक्षा करनी चाहिए। जब तक यह गुण अपने में न आ जायं प्रतिदिन ऐसी अभ्यास करना चाहिये जिससे मन में दृढ़ इच्छा उत्पन्न हो जाय और सारे शारीरिक और मानसिक दुर्गुण दूर हो जायें।

दृढ़ निश्चयपूर्वक जब मैस्मरेजम को सीखना तय कर लिया जाय तो सबसे प्रथम अपना आहार विहार ठीक करने की व्यवस्था करनी चाहिए। गरम उत्तेजक अधिक मसाले पड़ी हुई, बासी गरिष्ठ वस्तुओं को त्याग कर सादा और हलका भोजन अपनाना चाहिए। घी, दूध, फल, मेवे आदि का व्यवहार बढ़ा देना चाहिए। ठीक समय पर नियत मात्रा में भूख जगाने पर और खूब चबाकर खाया हुआ साधारण भोजन, अव्यवस्थित रूप से खाये हुए बहुमूल्य भोजन की अपेक्षा अधिक लाभ प्रद होता है। रात को खेल तमाशा देखते हुए जागते रहना और दिन में सोना निषिद्ध है। अभ्यास के दिनों में ब्रह्मचर्य के साथ रहना चाहिए। पूर्ण ब्रह्मचर्य न बन पड़े तो भी जहाँ तक हो सके कम से कम वीर्य गिराया जाय। चिन्ता, क्रोध, रोष, कलह आदि से दूर रहकर मानसिक स्थिति को ठीक बनाये रहना चाहिए।

योगाभ्यास में सफलता कुछ देर से मिलती है इसलिए दृढ़तापूर्वक अधिक दिनों तक अभ्यास करने के लिए पहले से ही तैयार रहना चाहिए। कुछ लोगों की मानसिक स्थिति ऐसी होती है जिससे उन्हें सफलता बहुत जल्दी मिलने लगती है। परन्तु सबके लिए ऐसी बात नहीं है। जैसे शरीर को मजबूत बलवान बनाने के लिए निरन्तर अभ्यास और सावधानी की जरूरत होती है वैसे ही मन को बलवान बनाने के लिए भी बहुत दिनों तक साधन करने रहने की आवश्यकता होती है। एक दो महीने में ही सफलता न मिले तो साधन छोड़ना न चाहिए वरन् प्रयत्न जारी रखना चाहिए।

मैस्मरेजम विद्या का प्रमुख साधन नेत्र हैं। नेत्रों द्वारा ही एक मनुष्य का प्रभाव दूसरे पर पड़ता है। यह बिजली के जलते हुए बल्ब हैं जो दूसरों पर तुरन्त ही अपना असर डालते हैं। इसलिए अभ्यासी को अपनी नेत्र शक्ति बढ़ानी चाहिए। भारतीय योगशास्त्रों में त्राटक का बड़ा महत्व है। पश्चिमी डाक्टरों ने नेत्र शक्ति बढ़ाने के लिए त्राटक को ही उपयुक्त समझा है। इसलिये सर्वप्रथम साधक को त्राटक का अभ्यास करना पड़ता है आगे इसी अभ्यास पर कुछ प्रकाश डाला जाता है। ब्राटक की कई विधियाँ नीचे लिखी जाती हैं साधक इनमें से जिसको अपने अनुकूल और सुलभ समझें, उसे ही आरम्भ कर दें।

एक हाथ लंबा एक हाथ चौड़ा एक चोकोर कागज या पट्ठा लेकर उसके बीच में रुपये के बराबर एक काला गोल निशान बनाओ। स्याही एक सी कहीं कम ज्यादा न हो। इसके बीच में सरसों के बराबर सफेद निशान छोड़ दो और उस सफेदी में पीला रंग भर दो। इस कागज को किसी दीवार पर टाँग दो और तुम उससे चार फीट दूरी पर इस प्रकार बैठो कि वह काला गोला तुम्हारी आँखों के बिलकुल सामने सीध में रहे। यह साधना का कमरा ऐसा होना चाहिए जिसमें न अधिक प्रकाश रहे न अन्धेरा न अधिक सर्दी हो न गर्मी। पाल्थी मारकर मेरुदण्ड को सीधा रखते हुये बैठो और काले गोले के बीच में जो पीला निशान है उस पर दृष्टि जमा लो। चित्त की सारी भावनाएं एकत्रित करके उस बिन्दु को इस प्रकार घूरो मानो तुम अपनी सारी शक्ति नेत्रों द्वारा उस में प्रवेश कर देना चाहते हो? ऐसा सोचते रहो कि मरी तीक्ष्ण दृष्टि से इस बिन्दु में छेद हुआ जा रहा है। कुछ देर इस प्रकार देखने से आँखों में दर्द होने लगा और पानी बहने लगेगा तथा अभ्यास को बन्द कर दो।

अभ्यास के लिए प्रातः काल का समय ठीक है। नित्य कर्म से निवृत्त होकर नियत स्थान पर बैठना चाहिए और चित्त को एकाग्र करके साधन आरम्भ करना चाहिए। पहले दिन देखो कि कितनी देर में आंखें थक जाती हैं और पानी आ जाता है पहले दिन जितनी देर अभ्यास किया है प्रतिदिन उसमें एक या आधा मिनट बढ़ाते जाओ। इस प्रकार दृष्टि को स्थिर करने पर तुम देखोगे कि उस काले गोले में तरह तरह की आकृतियाँ पैदा होती हैं। कभी वह सफेद रंग का हो जायेगा तो कभी सुनहरा। कभी छोटा मालूम पड़ेगा तो कभी बड़ा। कभी चिनगारियाँ सी उड़ती दिखाई देंगी तो कभी बादल से छाये हुए प्रतीत होंगे। इस प्रकार वह गोला अपनी आकृति बदलता रहेगा। किन्तु जैसे-2 दृष्टि स्थिर होना शुरू होगी वैसे ही वैसे यह गोला भी स्थिर होता जायगा और उसमें दीखने वाली विभिन्न आकृतियाँ बन्द हो जायेगा। और बहुत देर देखते रहने पर भी गोला ज्यों का त्यों बना रहेगा।

त्राटक करने का चित्र और भी कई प्रकार से बनाया जाता है। एक एक फुट लंबे चौड़े चौकोर दर्पण के बीचों बीच चाँदी की चवन्नी भर काले रंग के कागज का गोल टुकड़ा काटकर चिपका दिया जाता है। उस कागज के मध्य में सरसों के बराबर एक पीला बिन्दु बनाते हैं। इस अभ्यास को एक मिनट से शुरू करते हैं और प्रतिदिन एक एक मिनट बढ़ाते जाते हैं। जब इस तरह दृष्टि स्थिर हो जाती है तब और भी आगे का अभ्यास शुरू किया जाता है। दर्पण पर चिपके हुए कागज को छुड़ा देते हैं और उस में अपना मुँह देखते हुए अपनी बाईं आँख की पुतली पर दृष्टि जमा लेते हैं। और उस पुतली में बड़े ध्यानपूर्वक अपना प्रतिबिम्ब देखते हैं।

तीसरी विधि मोमबत्ती या दीपक की ज्योति पर दृष्टि जमाने की है। दीपक घृत का या शुद्ध सरसों के तेल का होना चाहिए। मोमबत्ती की रोशनी बहुत ठण्डी समझी जाती है।

चौथी विधि प्रातःकाल के सूर्य पर दृष्टि जमाने की और पांचवीं चन्द्रमा पर त्राटक करने की है। इनमें से इच्छानुसार चाहे जिसे किया जा सकता है पर हम अपने अनुयायियों को यही सलाह देंगे कि इन सब विधियों के अनुसार क्रमशः त्राटक करें और सब त्राटकों पर दृष्टि स्थिर हो जाय तो अपने को सफल हुआ समझें।

अभ्यास पर से जब उठो तो गुलाब जल से आँखें धो डालो। आँख धोने के लिए एक काँच की प्याली चार पाँच पैसे की बाजार से मिलती है उसमें गुलाब जल भर कर आँखों से लगाना चाहिए और उस पानी में आँख खोल कर उन्हें स्नान कराना चाहिए जिससे उनकी उष्णता शान्त हो जाय और शीतलता प्राप्त हो। अभ्यास से उठने के बाद कोई पौष्टिक शीतल वस्तु खा लेना भी आवश्यक है। दूध या दही की लस्सी, मक्खन, मिश्री, फल, शरबत आदि कुछ सेवन कर लेने से शरीर की बढ़ी हुई गर्मी भी शान्त हो जाती है।


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