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आम मान्यता है कि सुख और दुख परस्पर विरोधी हैं। एक को दूसरा काटता है। सुखी और दुखी दो विपरीत स्थिति के व्यक्ति हैं, पर गहराई से विचार करने पर दूसरी ही बात सामने आती है। चिन्तन बताता है कि दुख नग्न सत्य है, सुख तो उसकी सुसज्जित करने वाला परिधान-अलंकार मात्र है।
पुत्र प्राप्ति की मुस्कान के पीछे माता की प्रसव पीड़ा झाँकती है। आज का गौरवान्वित कंठाभरण कल सुनार की भट्ठी में तप रहा था और हथौड़ों की चोटें खा रहा था। आग पर पकाये बिना स्वादिष्ट भोजन बन सकना कैसे संभव हो सकता है? धनी किसान, पदोन्नत श्रमिक और पुरस्कृत कलाकार के आज के सौभाग्य को सराहते हुए थोड़ा पीछे मुड़कर भी देखना होगा। उनसे पूछा जा सकता है कि उन उपलब्धियों के लिए उन्हें कितने समय तक-कितने मनोयोगपूर्वक कितनी कठोर साधना करनी पड़ी है? सफलता प्राप्ति के पूर्व उन ने कितनी ठोकरें खाई व कितनी असफलताएँ गले उतारीं? वस्तुतः पल्लवित वृक्ष का इतिहास वहां से आरंभ होता है जहाँ एक बीज ने अपने अस्तित्व की बाजी लगाई थी।
दुख बड़ा भाई है और सुख छोटा। दुख पहले पैदा हुआ और सुख बाद में। दोनों चिरन्तन सहचर हैं। उनकी एकता को कोई तोड़ नहीं सकता। दुख को स्वेच्छापूर्वक वरण किए बिना कोई सुख का सौभाग्य पा नहीं सकता।