नास्तिकता की फसल भावनाओं से रहित बौद्धिकता के खेत में उपजती है। इस क्षितिज पर जीने वालों में से अधिकाँश प्रायः इस पर अपना हक मानते हैं। ऐसे लोगों के लिए यह शान और फैशन दोनों हैं। शान इसलिए क्योंकि इसे अपनाकर उन्हें लगता है कि इस तरह वे सरल-विश्वासी आस्तिक जनों की अपेक्षा कुछ अधिक बुद्धिपरायण हैं। तनिक ऊपर उठे हैं। और फैशन यों क्योंकि बौद्धिकता के जमाने में उन्हें सरलतापूर्वक अद्यतन होने की प्रतीति बनी रहती है। इस प्रतीति को अपने से लिपटाए फिरने वालों में शायद ही कोई ऐसा हो, जिसने इस पर अनेक दृष्टिकोणों से विचार किया हो। विचार करते तो उन्हें नास्तिकता क्यों नहीं? इस प्रश्न के तर्क और अनुभव सम्मत अनेकों समाधान मिले बिना न रहते।
नास्ति अर्थात् “नहीं है” का नकारात्मक दृष्टिकोण रखने वाले अपने समूचे जीवन को एक अनचाही काल कोठरी में अनजाने कैद कर बैठते हैं। तभी तो सुविख्यात थियालॉजिस्ट वालटिलिक ने कहा है नास्तिकता बुद्धि का गौरव नहीं वरन् बौद्धिकता का माया जाल है। इस फेर में पड़ न केवल जीवन व्यक्तित्व बल्कि स्वयं बुद्धि की यात्रा थम जाती है। समूचा विकास अवरुद्ध हो जाता है। क्योंकि जो आदमी नहीं के ऊपर जिन्दगी खड़ी करेगा, वह खाली हो जाएगा। सार्त्र और कामू जैसे विख्यात बौद्धिक इस रिक्तता की व्यथा से अपने को नहीं बचा सके तब औरों की बात क्या?
नहीं के बीज से कोई अंकुर नहीं निकलता। नहीं के बीज से कोई फूल नहीं खिलते। नहीं के बीज से कोई जीवन विकसित नहीं होता। जीवन में कहीं न कहीं “हाँ” न हो तो जीवन खाली हो जाएगा। “नहीं” से बड़ा कोई मरुस्थल नहीं है और जमीन पर जो मरुभूमियाँ होती हैं वहाँ तो कुछ मरुद्यान भी होते हैं। पर इस नकारा भूमि में कहीं कोई हरियाली नहीं। एक रिक्तता शून्यता समूचे व्यक्तित्व को घेर लेती है।
आधुनिक मनोवैज्ञानिकों ने तथ्य को भली भाँति पहचाना और परखा है। तभी तो आई. जे. रोजेट “क्रिएटिवनेस ऑफ लाइफ” में विधेयात्मक चिंतन को सृजनात्मक जीवन का आधार बताते हैं। उन्हीं के शब्दों में विधेयात्मक चिंतन का मतलब आस्तिकता। आस्तिकता का मतलब कोई कर्मकाण्ड नहीं देवी-देवताओं की भीड़ के सहारे जीवन की परावलम्बिता नहीं। इसका तात्पर्य तो उस जीवन शैली से है जो न केवल स्वयं पर विश्वास करना सीखती है बल्कि यह भी शिक्षण देती है कि अपने विकास की असीम सम्भावनाओं को मत भूलो।
इसके अभाव में व्यक्तित्व बीज की तरह सड़ता घुनता और नष्ट होता है। बुद्धि जिसे भावनाओं से घुल मिल कर प्रज्ञा, स्वयं को खोज कर ऋतंभरा बनना था, विराट सागर में समाहित होने वाली सरिता का रूप लेना था, नास्तिकता के माया जाल में पड़ कर एक अवरुद्ध नाला मात्र बनकर रह जाती है। ऐसी दशा में उसका एक ही काम रह जाता है जीवन के प्रति विषाक्तता का वमन।
व्यक्तित्व के विकास की पहेली सुलझने की एक मात्र शर्त यही है कि हमारे अस्तित्व की गहराइयों से “हाँ”- निकले। अपने घर में आग लगा लेना, स्वर्णिम भविष्य की उज्ज्वल सम्भावनाओं को अपने ही पैरों से ठुकरा देना, कितनी बड़ी नादानी है इसका विचार स्वयं करना होगा। इस नादानी को करने वाले न केवल अपने विकास की सम्भावनाओं के द्वार पर वजनी ताला लटका देते हैं बल्कि उनके स्वयं के जीवन में अनेकों दरारें पड़ने लगती हैं। किसी न किसी स्तर पर उनको असुरक्षा, अनिश्चितता विक्षिप्तता, उन्माद, घुटन से वास्ता पड़े बिना नहीं रहता।
जीवन खिले, व्यक्तित्व की सुरभि चारों और फैल सके इस हेतु जरूरी है आस्तिकता को स्वीकारा जाय। आस्तिकता का एक ही मतलब है संवेदनशीलता। देश-काल के अनुरूप इसके स्वरूप अनेकों हो सकते हैं। इसको स्वीकारने तदनुसार जीवन जीने की सफलता की एक ही कसौटी है सर्वहित के लिए सर्वस्व उत्सर्ग करने की आतुरता। संवेदना का स्वर जिसके जीवन में हो, उसके जीवन में प्रार्थना ज्यादा दूर नहीं। संवेदना का स्वर जिस जीवन में गूँजे उसके जीवन में परमात्मा ज्यादा दूर नहीं। बदलते समय में यही आस्तिकता शानदार जीवन का मानदण्ड बनेगी अच्छा हो, हमारी बुद्धि नास्तिकता के मायाजाल से उबरने में अपनी शान समझे। अवरुद्ध प्रवाह की जगह एक सरिता बनकर उज्ज्वल सम्भावनाओं के सागर की ओर बहे।